शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

कविता की एक शाम

इन्दौर के वैज्ञानिक अनुसंधान केन्द्र राजा रामन्ना प्रगत प्रोद्योगिकी केन्द्र में १५-०२-२००९ को जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, केट स्टाफ क्लब और स्थानीय साहित्यिक व साँस्कृतिक संस्था भूमिका द्वारा एक काव्य संध्या का आयोजन किया गया। चर्चित युवा कवि प्रेमरंजन अनिमेष के इन्दौर आगमन के अवसर पर आयोजित इस काव्य संध्या में उनकी श्रेष्ठ कविताओं साथ इन्दौर के युवा कवियों देवेन्द्र रिणवा, प्रदीप कान्त, प्रदीप मिश्र, उत्पल बेनर्जी व आशुतोष दुबे व देवास के बहादुर पटेल की भी बेहतरीन कविताएँ सुनने को मिली। इन सबके साथ परिसर की मधु कान्त व यहाँ के वैज्ञानिकों अपर्णा चक्रवर्ती, राजीव खरे, आर के शर्मा व मनोरंजन प्रसाद सिंह ने भी कविता पाठ किया। चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल, विवेक गुप्ता व कवि विनीत तिवारी ने भी कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।



आशुतोश दुबे, उत्पल बेनर्जी व प्रेमरंजन अनिमेष कविता पाठ करते हुए

कुल मिला कर काव्य संध्या में युवा कवियों की श्रेष्ठ कविताएँ श्रोताओं के मन में उतर गई वहीं वैज्ञानिकों की काव्यात्मक अभिरूचि भी उनकी कविताओं के माध्यम से नज़र आई। कार्यक्रम के अन्त में प्रख्यात कवि सुदीप बेनर्जी को श्रद्धांजली अर्पित की गई। कार्यक्रम का संचालन प्रदीप मिश्र ने किया।


मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

प्रकाश कान्त की कहानी

प्रकाश कान्त

१५५ , एल आई जी, मुखर्जी नगर, देवास,

म.प्र. - ४५५००१

फोन : २२८०९७ (०७२७२ )


प्रकाश कान्त हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। २६ मई,१९४८ को सेन्धवा ( पश्चिम निमाड़, म. प्र.) कान्त ने रांगेय राघव के उपन्यासों पर पी. एच. डी. की है. शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लगभग सौ कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं. तीन उपन्यास अब और नहीं, मक्त़ल और अधूरे सूर्यों के सत्य, एक कहानी संग्रह शहर की आखिरी चिड़िया और कार्ल मार्क्स के जीवन एवं विचारों पर एक पुस्तक आपकी प्रकाशन उपलब्धियों में शामिल हैं. इस बार तत्सम में प्रकाश कान्त की एक कहानी मोनालिसा आर्टस इन्दौर के युवा कवि देवेन्द्र रिणवा की टिप्प्णी के साथ.


प्रकाश जी की ज़्यादातर कहानियाँ कस्बाई सँस्कृति या छोटे नगरों के निम्न मध्यम वर्गीय परिवेश के कड़वे यथार्थ व जटिल अनुभवों को बड़ी सहजता के साथ उकेरती हैं। हम रहे न हम, कोंडवाड़ा जैसी उनकी कहानियाँ इस बात का सशक्त उदाहारण है। प्रस्तुत कहानी मोनालिसा आर्टस भी इसी तरह की कहानियों में सम्मिलित की जा सकती है। कोई पेंटर जिस तरह धूल भरी मटमैली दीवार को झाड़ पोंछ कर फिर उस पर सफेद रंग पोत कर चित्र बनाता है या शब्द उकेरता है उसी तरह इस कहानी के नायक युनूस भाई भी अपनी ज़िन्दगी के कैनवास को झाड़ते पौंछते और अपने ख्व़ाबों के ब्रश से उसे चित्रित करते नज़र आते हैं। सहज रफ्तार से चलती प्रकाश जी की कहानियाँ बड़ी ही सरलता से पाठक को उसके निजी से निकाल कर कहानी के परिवेश में शामिल कर लेती है। वे पाठक को अपने प्रवाह में इस तरह बहा ले जाती है कि पाठक उससे मुक्त नहीं हो पाता।

-देवेन्द्र रिणवा


मोनालिसा आर्टस

मोनालिसा आर्टस!

उधर से गुजरते वक्त नज़र अपने-आप उस तरफ चली जाती थी। दरवाजें पर एक मामूली-सा ताला। पास में लगी एक मामूली तख्ती। युनूस पेंटर! स्याह अक्षर। आग में झुलसे हुए। सुना था कि नगर पालिका उस तरफ भी अपना अतिक्रमण हटाओ अभियान चलाने वाली थी।

मोनालिसा! जब पहली बार सुना था तब थोडा-सा चौका था। यह क्या नाम हुआ!

“ तुम नहीं समझोगे प्यारे भाई! मोनालिसा का मतलब समझने के लिए दिल,दिमाग ओर नजर तीनों चाहिए!” कहा गया था। एक खास मुस्कुराहट के साथ। मैंने अपने दिल,दिमाग और नज़र तीनों पर ज़ोर डाला था। खास कुछ भी दिखाई नहीं दिया। गाढ़े रंगों में बनी ढँकी-मूँदी एक औरत! क्या खास है इसमें!!

“ देख नहीं रहे उसकी मुस्कुराहट। पिछले पाँच सौ सालों से लोग हैरान हैं इस मुस्कुराहट को देखकर। बल्कि यों कहो कि दीवाने हैं! हाय तबस्सुम तेरा!” कहते वक्त उनके चेहरे पर की मुस्कुराहट में अजीब-सा कुछ घुला हुआ था। मैंने तस्वीर की मुस्कुराहट को एक बार फिर देखा था। किसी पत्रिका से काटकर उस तस्वीर को फ्रेम करके दुकान के बिल्कुल बीचो -बीच टाँग दिया गया था। कुछ इस तरह से कि नज़र अपने-आप उस पर जा सके। नज़र जाये और आप पायें कि कोई आपकी ओर देखकर मुस्कुरा रहा है। आप फिर चाहे जो कोई भी हों!अजीब लग सकता था तस्वीर मे से ही किसी का अपनी ओर देखकर इस तरह से मुस्कुराना। और फिर इतनी लम्बी मुसकुराहट! पाँच सौ सालों से लगातार चली आ रही। बिल्कुल एक जैसी!

“ तुम नहीं समझ पाओगे।”

“ तुम ही समझते रहो! मैं तो चला।” मैं चला आता।

अगर हकीकत में किसी दिन मोनालिसा अचानक मिल जाये तो! यूँ ही खयाल आया था। तब उससे इस तरह से मुस्कुराने के मायने पूछे जा सकते हैं। लेकिन, मोनालिसा अगर यूनूस भाई को मिल गयी तो!

“ तब तो प्यारे भाई, समझो कि जन्नत ही मिल गयी।” कहते वक्त उनकी आँखों में एक खास तरह की चमक होती। चेहरे पर गुजरे हुए वक्त का कोई टुकड़ा झिलमिलाने लगता।

“ मोनालिसा मिली तो थी। मिली। कुछ दिन रही। और जिन्दगी में हमेशा-हमेशा के लिए आ जाने से पहले ही चली गयी।” झिलमिलाहट में किसी के जाते कदमों की गूँज सुनाई देने लगती।

युनूस भाई ने वह किस्सा दो-एक बार बहुत डूब कर सुनाया था।” यों समझो कि जिन्दगी में लियोनार्दो द विंची की मोनालिसा और वह मोनालिसा करीब-करीब एक साथ ही आयी थीं। पढ़ने-लिखने की उम्र थी। बावजूद फाकाकशी और बदहाली के एक अजीब-सा जूनून सिर पर सवार रहता था। जवानी का जोश। हर चीज़ मुमकिन और अपनी जद में दिखाई देती थी। आर्ट्रिस्ट बनना चाहता था। शेरगिल,रवि वर्मा,पिकासो जैसे कुछेक नाम तभी सुने थे। जैसे -तैसे ही। क्यों कि यूँ भी छोटी और पिछड़ी हुई जगहों पर ऐसी चीजे जरा देर से ही पहुँच पाती हैं। देर से और अक्सर आधी-अधूरी भी। मुझ तक भी ऐसी ही पहुँची थीं। उन्हीं दिनों किसी पत्रिका में देखा था मोनालिसा को। पहली बार। समझो कि दीवाना ही हो गया था। हालाँकि वह उम्र फिल्मी हीरोइनों का दीवाना होने की थी। दोस्त लोग उन्हीं के दीवाने थे। कोई आशा पारेख का, कोई सायरा बानों का, कोई साधना का! उनके कमरों में इन्ही की तस्वीरें लगी हुआ करती थीं। जब कि मेरी सिलन और अन्धेरे से भरी कोठरी में मोनालिसा लगी हुई थी। दोस्त लोग हैरान थे। उन्हें मोनालिसा होने का मतलब समझाना मुश्किल था। एक बेहद छोटे पिछड़े कस्बे के साथ एक दिक्कत यह भी रहती है कि वहाँ और कछ चीजों की तरह मोनालिसा होना भी एक समस्या बन जाता है। बहरहाल, उन्हीं दिनों मेरी गली के कोने वाले मकान में रहने आयी थी वह लड़की! मोनालिसा! पहली बार देखते ही भीतर कहीं गूँजा था। उसी पल वह मोनालिसा भीतर कहीं उतर गयी थी। हालाँकि वे दिन बेहद मुश्किल और जानलेवा थे। लेकिन, गली में अचानक एक मोनालिसा के आ जाने से सब कुछ जैसे बदल गया था। खूब सूरत हो गया था। अजीब इत्तेफाक था कि एक मोनालिसा अपनी कोठरी की दीवार पर थी और दूसरी गली के कोने पर! नशे का आलम था।”

कहते वक्त उनकी आँखों में उस वक्त के नशे की हल्की-हल्की परछाइयाँ तैरने लगतीं। हालाँकि मैं चाह कर भी उन बातों में कोई ज्य़ादा दिलचस्पी नहीं ले पाता। एक अजीब-सी ऊब होने लगती थी। तकरीबन पाँच सौ साल पुरानी मोनालिसा जिसे वे चौबीस-पच्चीस साल की बताया करते थे मुझे कभी कुछ खास नहीं लगी। उससे ज्य़ादा अच्छी तो अपनी गली के घरों में झाड़ू-पोंछा करने वाली धापूबाई की लड़की लछमी लगती थी। ही नहीं बल्कि सब्जी वाली नसीरन, बस स्टैंड की प्याऊवाली नरबदा! ये सब सिर्फ अच्छी नहीं बल्कि बहुत ज्य़ादा अच्छी लगती थीं।

“ तुम जैसे नामाकूल ज़िन्दगी-भर कभी झाड़ू-पोछेवाली, सब्जीवाली वगैरह से ऊपर ही नहीं उठ पाओगे। मोनालिसा की खूबसूरती महसूस करने के लिए सिर्फ इनसे ही नहीं बल्कि ऐसी और भी बहुत-सी चीज़ो से ऊपर उठना होगा।” मोनालिसा की शान मे कुछ भी गल़त सुनना उन्हें मंजूर नहीं था। उनकी यह पाँच सौ साल पूरानी मोनालिसा किसी सामन्त या अधिकारी की बीवी थी। दूसरी बीवी। उन्होंने ही बताया था।

“ प्यारे भाई, जब पहली बार यह सुना तब अच्छा नहीं लगा था। उदास हो गया था। गुस्सा भी आया था। बीवी! वह भी दूसरी!! मोनालिसा भी क्या बीवी होने के लिए होती है! ऐसे में फिर क्या फर्क रह जाता है मोनालिसा और दूसरी औरतों में! क्या अहमियत रह जाती है मोनालिसा की! काफी झुंझलाहट होती रही थी। इतनी कि अगर तब सच में वही मोनालिसा सामने पड जाती तो बुरी तरह से झगड़ पडता। बीवी और वह भी दूसरी बीवी बन जाने की कैफियत माँगता। झुँझलाहट काफी दिन बनी रही। फिर समझा लिया था खुद को! रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी! वर्ना अपने मोनालिसा होने का तो उसे भी एहसास रहा होगा।” यह सब बताते वक्त उनके चेहरे पर ऐसा कुछ होता जिससे लगता कि उन्हेंाने माफ कर दिया है। मोनालिसा को! राहत महसूस की होगी बेचारी ने।

युनूस मियाँ की अजीब-सी दीवानगी थी वह। हैरानी होती थी कि पाँच सौ साल पहले के किसी शख्स की तस्वीर को लेकर इस हद तक दीवाना कैसे हुआ जा सकता है! शख्स भी ऐसा जिसके हकीकत में रहे होने को लेकर पक्की तौर पर कुछ भी पता न हो। बस एक खयाल, एक कल्पना। उसी की तस्वीर।

“अमर भाई, उन दिनों तय कर रखा था कि चाहे जो करना पड़े, जिन्दगी में कभी न कभी पेरिस जरूर जाऊँगा और वहाँ के लूव्र के संग्रहालय में मोनालिसा को रूबरू देखूँगा। लेकिन, नहीं हो सका ऐसा। तंगहाली ने कभी पीछा ही नहीं छोड़ा। और अब जो हालत है वह तुम्हारे सामने है।” उनके चेहरे पर उदास रंग फैल जाते।

“ जिन दिनों अपनी गली के सिरे वाले मकान में दूसरी मोनालिसा रहने आयी थी तब जो हाल था उसका बयान नहीं कर सकता। समझो कि बस पागल हो जाने का मौसम था।” कहते-कहते वे अपने में उतर कर कहीं चले गये थे।” फरहाद क्यों नहर खोदने को राजी हुआ होगा, मजनूँ ने पत्थर क्यों खाये होंगे, सोहनी के गाँव के जानवर चराने को महिवाल क्यों तैयार हुआ होगा यह सब तभी समझ में आया था। मुझे लगता है कि हर आदमी के भीतर कहीं एक फरहाद, एक मजनूँ या एक महिवाल छिपा होता है। अलबत्ता उसकी मौजूदगी का एहसास तब तक नहीं हो पाता जब तक कि कोई मोनालिसा नहीं टकरा जाती। मैं भी उसी दौर से गुजर रहा था। गली के सिरे के मकान में आसमानों से एक मोनालिसा उतरी हुई थी और मेरे भीतर फरहाद, मजनूँ,महिवाल की रूहें जगमगा रही थीं।” कह चुकने के बाद वे अपने भीतर से काफी देर बाद लौटे थे। उनके सामने साँईराम किराना स्टोर का अधबना साईन बोर्ड रखा था। ओर बीड़ी के धुएँ के पीछे उनके चेहरे पर राख उड़ रही थी। मैं शाम का आया अखबार उलटता-पुलटता रहा था।

युनूस भाई शहर के अकेले पेंटर थे। शहर छोटा-सा था। एक पायवेट कालेज, दो-तीन हायर हायर सेकण्डरी स्कूल। एकाध फेक्ट्री। बाजार। स्टेट हाई वे पर होने से वाहनों की आवा-जाही लगी रहती थी। बस स्टैण्ड शहर के भीतर था। उसी के पास थी युनूस भाई की ‘मोनालिसा आर्टस’ । बारह बाय दस का एक कमरा। टिन की छत। पुरानी लकड़ी का बना दरवाज़ा! मोनालिसा आर्टस। एक कोने में टर्पेंटाइन, रंग वगैरह के खाली भरे, अध भरे डिब्बे-डिब्बियाँ रखे होते। इसके अलावा, अलग-अलग नम्बर के छोटे-बडे ब्रश। चद्दर के टुकड़े, पटिये। छोटी आरी, हथौडी, कीलें - साईन बोर्ड, नेम प्लेट बनाने का सामान। दूसरे कोने में बने-अधबने बोर्ड, बेनर। दो-एक लोहे की कुर्सियाँ। दीवारो पर केलेण्डर, युनूस भाई के बनाये फिल्म कलाकारों के पोर्टेट और इस सब के बीच मोनालिसा। युनूस भाई का कुल जमा असबाब। मोनालिसा आर्टस। उस शहर ओर आस-पास के गाँव-खेड़ों का काम वहीं हुआ करता था। नेम प्लेट, नम्बर प्लेट, साईन बोर्ड, भाव सूची, बेनर वगैरह।

इनके अलावा, दीवारों पर दन्त मंजन, साबुन, गुप्त रोगों की दवाओं के इश्तेहार, चुनावी नारे, साधू-महात्मा, नेताओं की सभा-प्रवचनों की सूचना लिखने जैसे मौसमी काम भी हुआ करते थे। युनूस भाई अपनी साइकिल पर नील या रंग के डिब्बे, ब्रशों की थैली, लम्बी स्केल लिए पूरे कस्बे का चक्कर लगा डालते थे। इस तरह के इश्तेहारों -इत्तेलाओं की जगहें करीब-करीब तयशुदा थीं। बस स्टैण्ड,दो-तीन चौराहे, स्कूल-अस्पताल की बाउण्ड्री वाल, मकानों की दीवार ऐसी ही कुछ और जगहें! युनूस भाई बीड़ी के कश लेते रहते और उनके ब्रश चलते रहते। बीच-बीच में चाय पी लेते। ऐसे में ही एक बार यह हुआ था कि अस्पताल की बाउण्ड्री वाल पर एक नामी नेता के होनेवाले जलसे का इश्तेहार लिखकर निपटे ही थे कि ठीक तभी नेता के नाम के ऊपर एक कुत्ते ने आ कर अपनी टाँग ऊँची कर दी थी।

“ अच्छा है प्यारे, जो काम हम लोगों को करना चाहिए वह तूने कर दिया। ये साले हैं ही इसी काबिल। वैसे तो इतने के काबिल भी नहीं है!” उनका फिकरा था।

बरसों पहले जब शहर में परिवार नियोजन अभियान शुरू हुआ था तब शहर-भर में उसके स्लोगन लिखने का ठेका उन्हें ही मिला था। ‘हम दो, हमारे दो’, ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’। विनोबा जब अपने भूदान आन्दोलन के सिलसिले में शहर में आये थे तब सन्त विनोबा का यह नारा, ‘धन-धरती का हो बँटवारा’ और ‘सबै भूमि गोपाल की’ जैसे नारो से युनूस भाई ने रात-भर में सारे शहर की दीवारें पाट दी थीं। शहर की पहली सिनेमा टाकीज का तीन बाय पन्द्रह का बोर्ड उन्होंने ही बनाया था। ‘आदिवासी कल्याण आश्रम’, ‘जास्मीन प्रायमरी स्कूल’, ‘रेड स्टार टाइम्स’, ‘महादेव दाल मिल्स’, ‘इम्तियाज़ जीनिंग फेक्ट्री’ जैसे पचासों साईन बोर्ड जो शहर में दिखायी देते थे युनूस भाई के ही बनाये हुए थे। उन्हें सारे बोर्ड याद थे। इस बहाने उस छोटे-से शहर की बहुत खास-खास घटनाओं का इतिहास भी उन्हें याद था। “शहर की तमाम दीवारें इतनी-इतनी बार लिख चुका हूँ कि वे भी अब मेरी उंगलियों और ब्रश की छुअन पहचानने लगी होंगी।“ वे अक्सर कहते थे।

युनूस भाई ने कायदे से कहीं काम सीखा नहीं था। बचपन में अपने मामू के यहाँ जाने पर उनके पड़ोस में रहने वाले पेंटर को काम करते अक्सर देखा था। वही सब देखते-देखते पता नहीं कब ब्रश पकडने लग गये।

“ शुरू-शुरू में न तो रंग बनाने की तमीज़ थी और न ढँग के हर्फ निकालना आता था। पहली बार अपनी स्कूल के हेडमास्टर साहब पं० सूर्यनारायण चतुर्वेदी, बी०ए० की नेम प्लेट बनायी थी। हर्फ काफी अनगढ़ थे। फिर भी हेडमास्टर साहब काफी खुश हुए थे। इनाम में एक फाउंटेन पेन दिया था। उसके बाद तो स्कूल का बहुत सारा छोटा-मोटा काम मैं ही करने लगा था। कमरों पर नम्बर लिखना, पन्द्रह अगस्त,छब्बीस जनवरी पर दीवारें सजाना वगैरह। तभी थोड़ा-बहुत काम बाहर का भी करने लग गया था। मवेशी अस्पताल में मवेशियों से ताल्लूक रखने वालीं खास-खास बातें,सरकारी योजनाओं की जानकारियाँ, पान-बीड़ी के इश्तेहार। इस सब से जेब खर्च और घर खर्च में सहूलियत होने लगी थी। उन्हीं दिनों स्कूल में छगनलाल सर आये थे। गणित पढ़ाते थे। बहुत सख्त टीचर समझे जाते थे। हालाँकि वैसे थे नहीं। स्कूल के सामने ही कमरा लेकर रह रहे थे। अकेले। घरवालों का कुछ पता नहीं था। स्कूल के बाद अपने कमरे में बैठे या तो सिगरेट पीते रहते या तसवीरें बनाते रहते थे। स्कूल के लिए सरस्वती की एक काफी बड़ी तसवीर बनायी थी। जो कई साल स्कूल के दफ्तर में लगी रही थी। इसके अलावा, महात्मा गाँधी,भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आज़ाद के चित्र भी बनाये थे। जो अलग-अलग क्लासों में लगे थे। उनके कमरे में हमेशा रंग, ब्रश, ड्राइंगशीट,किताबें बिखरे पडे रहते थे। उन्होंने ही पहली बार मोनालिसा के बारे में बताया था। उन्हीं से पहली दफा दुनिया के मशहूर पेंटरों के नाम सुने थे। इनके बनाये चित्रों के प्रिंट देखे थे। वही सब देख सुनकर वैसा ही कुछ बनने-करने की चाह पैदा हुई थी। हालाँकि, वे सर वहाँ ज्यादा नहीं रहे थे। दीवाली की छुट्टी के बाद जब स्कूल खुला तब पता लगा कि वे नौकरी छोड़कर जा चुके हैं। पता नहीं कहाँ! मैं मायूस हो गया था। उनसे सब कुछ अच्छी तरह से सीखने, जानने-समझने की ख्वाहिश दिल में ही रह गयी थी। उसके बाद तो और बहुत सारा दिल के दिल में ही रह गया। एक उम्दा आर्टिस्ट बनना, दुनिया-जहान धूमना,पेरिस जाकर मोनालिसा को देखना ऐसा ही जाने क्या-क्या! यहाँ आया तो बस यहीं का हो कर रह गया। बजरंग साइकिल सर्व्रिस, जैन किराना स्टोर, सदा सुहागन कंगन स्टोर यही कुछ बनाता रहता हूँ। लिखता रहता हूँ ताकत की दवा, हाजमे की दवा, दन्त मंजन वर्गरह के इश्तेहार! ज्यादातर लोगों का शायद किस्सा भी यही है। जो कुछ होना चाहते हैं, नहीं हो पाते ; कुछ और हो कर रह जाते हैं। हमेशा ही होते-होते रहे जाने की ट्रेजेडी!” उनके चेहरे पर से रंग की पपड़ियाँ झरने लगीं।

युनूस भाई शहर के पूरब में एक तरह से सबसे आखिरी सिरे पर रहते थे। अपने कच्चे-पक्के दो कमरों के मकान में। जब से लिया था तब से वैसा ही था। न कभी मरम्मत करवाई न सफेदी! बारिश के पहले कवेलू की टूट-फूट ठीक करवा लेते थे। ज्य़ादा से ज्यादा इतना-भर होता कि साल-छ: महीनों में झाड़- पोंछ कर लेते, बस!

“मियाँ, घर, घर होता है, नुमाइश की चीज़ नहीं! फिर क्यों भला उसे हमेशा सजा-सँवार कर रखा जाये! इतना कि उसमें रहने से ही एक तरह का डर लगता रहे। उसके मैले हो जाने, थोड़ा-सा इधर-उधर हो जाने का डर। बेहद सजे-सँवरे घरों को देखकर समझ में नहीं आता कि कि लोग आखिर उनमें रहते कैसे होंगे! वे घर सिर्फ्र देखने की चीज लगते हैं, रहने की जगह नहीं!” वे कहते थे।

उन दिनों उनका अपने घर से रिश्ता सिर्फ सोने-खाने जितना था बस! अकेले थे। सुबह खाने से निपटने के बाद एक बार घर से निकले कि फिर देर रात को ही लौटते थे। काम ज्यादा होने से जिस दिन देर हो जाती, नहीं भी लौटते। दुकान में ही सो जाते। वैसे, फूफी के हयात रहते यह बात नहीं रही। महीन-सा ही सही घर से एक रिश्ता बना रहा। दिन में खाना खाने के अलावा साग -भाजी या ऐसा ही दूसरा सामान पहुँचाने आते-जाते रहे। रात को भी काम समेटकर ठीक वक्त पर पहुँचने की कोशिश करते थे।अगर किसी वज़ह से देर होने वाली हो तो या तो खुद बता कर आते थे या फिर किसी आते-जाते के हाथ खबर करवा देते थे। जानते थे कि ऐसा नहीं किया तो फूफी बावजूद अपनी नजर कमजोर होने के उतनी दूर पैदल चल कर आयेगी। आयेगी और सबके सामने कस कर डाँट लगायेगी। कई बार कर चुकी थी ऐसा। वे फूफी का बेहद अदब करते थे। उससे डरते भी थे। दरअसल, उनकी अम्मी तो उन्हें बहुत छोटी उम्र में छोडकर ही गुजर गयी थी। तब से फूफी ने ही उन्हें सम्भाला था। फूफी युनूस मियाँ के वालिद से बड़ी थीं। शायद तीन-चार साल। उनका निकाह काफी जल्दी हो गया था। फूफी कुछ दिन ससुराल रहीं। उसके बाद जाने क्या हुआ कि एक बार की ससुराल से आयी फूफी फिर कभी नहीं लौटी। सारी ज़िन्दगी अपने भाई और भाई के गुजरने के बाद युनूस मियाँ के पास ही रहीं। आखिरी दम तक। काफी सख्त मिजाज औरत थीं।युनूस मियाँ तो खैर उनसे डरते ही थे, सारा मोहल्ला भी डरता था। बडे-छोटे, औरत-मर्द सब! पूरे मोहल्ले की फूफी थीं वह!

उन्होंने ही युनूस भाई की शादी करवायी थी। लड़की खुद ही पसन्द की थी। लेकिन, फूफी अपने युनूस की शादी की खुशी ज्यादा जी नहीं पायी। पहली ही जचकी में बीवी चल बसी। बच्चा भी मरा हुआ पैदा हुआ। युनूस भाई के लिए तो था ही फूफी के लिए भी यह गहरा सदमा था। पता नहीं इस सदमे से या और किसी वजह से इस हादसे के तीन महीने होते न होते फूफी भी एक रात नींद में ही गुजर गयीं। अपने युनूस की गिरस्थी दुबारा बसने की मुराद दिल में लिये-लिए। युनूस भाई के लिए बहुत सख्त वक्त था वह! उदासी की एक मोटी परत उनके चेहरे पर लम्बे दिनों तक बिछी रही थी। उनकी बातों में एक गहरा उजाड़ पसरा मिलता था। जो काफी लर्म्बे अर्से तक बना रहा। मै हमेशा की तरह शाम को दुकान पर आता-जाता रहा। जाने-आने का सिलसिला उसी दिन टूटा जिस दिन कम्पनी ने छ: महीनों की जरूरी ट्रेनिंग के लिए भेज दिया। ट्रेनिंग से लौटने पर पता लगा कि युनूस मियाँ ने दुबारा घर बसा लिया है। एकदम से यकीन तो नहीं हुआ लेकिन बात सच थी।

“ हाँ मियाँ,बसा लिया फिर घर।” युनूस मियाँ ने मसकुराते हुए कहा था।

“ लेकिन!”

“ मियाँ, दुनिया पूरी इन 'लेकिनों ` से ही तो भरी पड़ी है।”

मोनालिसा! मुझे लगा कि शायद फिर कोई और मोनालिसा मिल गयी होगी।

“ काहे कि मोनालिसा यार, वह तलाकशुदा औरत, दो बच्चों की अम्मा युनूस मियाँ की बीवी तो नहीं माँ ज़रूर लगती है।” पानवाले अनवर ने थोड़ी-सी नाराज़गी के साथ बताया था।” इस भले आदमी को भी जाने क्या सूझी! अपने मामू के यहाँ किसी की शादी में गया और मामू के ऐन पडोस में रहने वाली इस हूर से दिल लगा बैठा। वह हूर भी इसी हातिम का रास्ता देख रही थी। इनका दो-एक बार और आना-जाना हुआ। तीसरी बार गये तो लौटते वक्त वह हूर अपने मय दो बच्चों के दुल्हन बनी इनके साथ में थी।” अनवर ने पूरी बात का खुलासा किया।

“ चलो अच्छा हुआ। गृहस्थी बस गयी!”

“ हाँ, जरा ज्यादा ही अच्छी तरह से बस गयी। दहेज में दो बच्चे भी आ गये!”

वाकई उम्र में काफी बडी लगती थी वह। रंग एकदम पक्का। मोटे होंठ। तमाखू से रंगे हुए दाँत। कद-काठी में युनूस भाई से डबल! हूर!

“ अब इस उम्र में कोई असल हूर या परी तो मिलने वाली थी नहीं। और फिर यह दिल आने का मामला है। दिल कब किस पर आ जाये इसका क्या ठिकाना!” कोई दूसरा बात समझाने की कोशिश करता।

बहरहाल, युनूस मियाँ खुश थे। आदमी जब खुश हो तो बाकी चीजें अपने-आप बेमानी हो जाती हैं। सो युनूस मियाँ खुश थे। दुकान पर टाइम टेबिल से आने-जाने लगे थे।

“ घर-गिरस्थी भी साली अच्छे-खासे आदमी को पालतू बना डालती है।” कहकर कभी-कभी हँसते भी थे।

अजीब इत्तेफाक था कि दोनों बच्चे पोलियो के शिकार थे ओर घर में इधर-उधर घिसटते रहते या कहीं भी पड़े रहते थे। चेहरों पर मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं। बच्चो की माँ का अमूमन उन पर ध्यान नहीं होता, वह या तो अपना काम करती होती या फिर दरवाजे पर खडी पडोसनों से बातें करती रहती। या फिर आईने के सामने बैठी घंटों कंघी-चोटी करती रहती। युनूस भाई को आये दिन दुकान से लौटते वक्त कोई क्रीम, नेल पॉलिश, किसी ब्राण्ड का टेलकम पाउडर ले जाना होता। वे सब्जी-भाजी जैसी चीजों के अलावा ये चीजें भी पहले से खरीद कर अपने झोले में रख लेते थे।

“ युनूस मियाँ को अब बुढापे में क्रीम-पाउडर की जरूरत पड़ने लग गयी है शयद!” चन्दर छेड़ता।

“ बुढापे का ब्याह बडी बुरी बला होती है मियाँ, अच्छों-अच्छो की हेकडीं भुला देती है!” उनका जवाब होता। मुस्कुराता हुआ।

बहरहाल, युनूस भाई में काफी तब्दली आ गयी थी। दुकान पर टाइम-टेबिल से आने जाने के अलावा काम भी काफी जिम्मेदारी से करने लगे थे। बच्चों की परवरिश,इलाज वगैरह को लेकर पूरी तरह से फिक्रमन्द थे। घर से निकलने के पहले बच्चों का काफी कुछ काम वे निपटा देते थे। लेकिन, शकील से परेशान थे। शकील उनका साला था। युनूस भाई की बीवी के अलावा उसका कहीं और कोई न होने से वह भी साथ में आ गया था।

युनूस भाई ने भी सोचा था कि उनके पास रहेगा तो थोड़ा-बहुत पढ-लिख लेगा, कोई हुनर सीख लेगा। कमाने-धमाने लग जायेगा। हालाँकि पढ़ाई-लिखाई में उसकी कतई दिलचस्पी नहीं थी। गल़त सोहबतो में रहने से कुछ खराब आदतें भी सीख गया था। सबसे पहले उसे रामेश्वर साइकिल वाले के यहाँ बिठाया। लेकिन, वहाँ हफ्ते-भर से ज्यादा नहीं टिका। फिर गफ्फार के गेरेज पर रखा। वहाँ भी यही हाल रहा। बेवजह नागा करना अक्सर देर से आना, बीच में से कभी भी चले जाना। काम में लापरवाही, मुँहजोरी ऊपर से। गफ्फार ने इसके बावजूद कुछ दिन तो धकाया लेकिन जब देखा कि गेरेज के सामान की हेरा-फेरी होने लगी है तब काम से अलग कर दिया। मजबूरन युनूस मियाँ ने अपने साथ बिठाने की कोशिश की तो एकाध दिन बैठकर साफ मना कर दिया। दिन-भर आवारागर्दी। अपनी बहन से लड़-झगड़ कर पैसे ले जाना और उड़ा देना। पत्ते लगाता है इसका पता उस दिन चला जब पुलिस ने एक दिन पत्ते लगाते हुए पकड़ लिया और थाने में ले जाकर बिठा दिया। जैसे-तैसे छुड़ाकर ला पाये। पुलिस थाने जाने का वह बिल्कुल पहला मौका था। खासी बेइज्जती महसूस की थी। लेकिन लडके को इस सब से जरा फर्क नही पड़ा था। उसके चेहरे पर हल्की-सी शिकन तक नही थी। जब थोड़े-से सख्त लहजे मे समझाने- बुझाने की कोशिश की तो मुँहजोरी करने लगा। बात बढ़ी। और फिर इस सब में वह हुआ जिसका दूर-दूर तक अन्दाज या अन्देशा नहीं था। कहा-सुनी में लड़के के मुँह से गाली निकल गयी। युनूस मियाँ पहली बार किसी की गाली सुन रहे थे। भीतर से गुस्से की लपट उठी और उनका हाथ उठ गया। लडके ने कुछ पल सुलगती नज़रो से युनूस मियाँ को धूरा और फिर एकदम से पास पड़ा सब्जी काटने का चाकू उठाया और युनूस मियाँ के कलेजे के आर-पार कर दिया। कोहराम मच गया। अस्पताल पहुँचने के पहले ही युनूस मियाँ ने दम तोड दिया। लडका अब तक फरार हो चुका था।

पोस्ट मार्टम के बाद लाश उसी दिन शाम होते-होते दफना दी गयी। जनाजे में मोहल्लेवालों के अलावा अनवर पानवाला, चन्दर कण्डक्टर और मोनालिसा आर्टस के आसपास के छोटे-मोटे दुकानदार थे।उनकी दुकानें उस पूरे दिन बन्द रहीं। अगले दिन ही खुलीं। 'मोनालिसा आर्टस’ पर युनूस भाई के हाथ का लगा ताला अगले कई महीनों तक लगा रहा। जब तक कि पड़ोस की दुकान में शार्ट सर्किट की वज़ह से लगी आग से मोनालिसा आर्ट्स का भी काफी बड़ा हिस्सा जलकर राख नहीं हो गया। थोड़ा-बहुत जो बचा वह भी काफी मुश्किल और मशक्कत से ही बचाया जा पाया। फकत आधी छत। डेढ दीवार। भीतर मोनालिसा का पता नहीं क्या हाल था! इस दरमियान युनूस भाई की बीवी अपने बच्चों को लेकर मकान पर ताला डाल एक सुबह बिना किसी को कुछ बताये पता नहीं कहाँ चली गयी!

“ घर में जो कुछ भी रहा होगा वह सब समेट ले गयी होगी और कोई दूसरा घर ढूँढ लिया होगा। युनूस मियाँ के नाम पर सारी उम्र बैठी रहने वाली तो नहीं थी।” चन्दर ने कहा था। पता नहीं सही क्या था! लेकिन, युनूस मियाँ अक्सर याद आते रहते थे। उनके हाथ की लिखी इबारतें शहर-भर में मौजूद थी। सदा सुहागन कंगन स्टोर, कमल वाच सेंटर, अरिहन्त क्लाथ शाप, हाजी इमाम बख्श करीम बख्श टेलरिंग शाप। और भी नं जाने क्या-क्या! इन मे सें कई सारी इबारतें अपने सामने लिखी जाती देखी थीं। इसलिए उन पर नज़र पड़ते ही सब कुछ याद आ जाता था। तब सोचा नहीं था कि आदमी जाने के बाद इस तरह से भी याद आने के लिए बचा रह जाता है। हमेशा के लिए चाहे न सही, कुछ दिनों के लिए सही।

बहरहाल, अधजली मोनालिसा आर्टस थोड़ी-बहुत बची हुई थी। उधर से गुजरते वक्त धुआँ-धुआँ साईन बोर्ड पर नज़र चली जाती थी।दो-एक बार सोचा था कि अधजली दुकान से कुछ ओर न सही लेकिन मोनालिसा अगर बची हो तो निकाल लाऊँ। लेकिन, जब तक ऐसा कर पाता नगरपालिका वालों ने उस पूरी पट्टी को अतिक्रमण बता कर उस पर बुल डोजर चला दिया। दुकान में सामान के नाम पर जो दो-एक अधबने साईन बोर्ड रंग के खाली-भरे डिब्बे पडे थे उन्हें कबाड़ में डाल दिया गया। मोनालिसा का पता नहीं चला। पता नहीं उसका क्या हुआ!

अब उस जगह एक पूरी खाली पट्टी पड़ी थी। जिस पर गिट्टी-पत्थर डलने के बाद डामर बिछना था।