शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

दीपोत्सव की शुभकामनाएँ


आज हमारी परम्परा का एक महत्वपूर्ण दिवस है - दीपोत्सव यानि दीपावली। यह पर्व हमारे लिये मुफ्त में हषोल्लास का कारण नहीं है। इसके पीछे बुराई पर अच्छाई की जीत की चिरपरिचित कथा है। और वही सबसे बड़ा सत्य भी है, कम से कम उन लोगों की नज़र में जिनका काम केवल अच्छाइयों को कहीं से भी तलाश करके आत्मसात करते हुए जीना होता है। सत्य के पक्ष में बोलना होता है। जैसा कि कृष्ण बिहारी नूर ने अपने एक शेर में कहा भी है -


चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो

आइना झूठ बोलता ही नहीं


अब त्योहार तो है हषोल्लास का और आप सभी को दीपोत्सव की शुभकामनाएँ भी। बावजूद इसके कि बढ़ती जा रही महंगाई आम आदमी की कमर तोड़ रही है। ग्लोबलाइजेशन की लम्बीऽऽ ट्रेन छोटे दुकानदारों को रोंद रही है। भ्रष्टाचार का मुँह सुरसा की तरह खुलता ही जा रहा है। और सुरसा का मुँह तो वापस छोटा भी हो गया था, ये तो बन्द होने का नाम भी नहीं लेता। स्त्रियों की असुरक्षा दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। बलात्कार के मामलों में देश में राज्यों की रेंकिग होती है। और शायद ही कोई राज्य बुराई की इस रेंकिग में अपने आप को पीछे करने का प्रयास कर रहा हो। समस्याएँ बहुत गम्भीर हैं और ऐसे में हमारे समय के महत्वपूर्ण शायर निदा फाज़ली याद आते हैं -


वही हमेशा का आलम है क्या किया जाए

जहाँ से देखिये कुछ कम है क्या किया जाए


मिली है ज़ख्मों की सौगात जिसकी महफिल से

उसी के हाथ में मरहम है क्या किया जाए


और हम है कि बावजूद इसके कि बहुत कुछ बुरा हो रहा है, अच्छे की उम्मीद बनाए रखे हुऐ है। क्यों कि किसी भी चीज़ की अति बहुत देर तक कायम नहीं रह सकती। एक ना एक दिन उसे खत्म होना होता है। ठीक वैसे ही, जैसे दीपोत्सव के पीछे की कथा का खलनायक माना जाने वाला रावण। और सबसे बढ़िया दृष्टांत तो भस्मासुर का है। घोर तप के बाद शिवजी से वरदान पाकर, शिवजी के ही सर पर हाथ रख उन्हे भस्म करने चला था। बचा तो वो भी नहीं। हालांकि ग़लत अपने आप खत्म नहीं होगा, उसके खिलाफ़ बोलना होगा। इसलिये आप भी ग़लत के खिलाफ़ सही के लिये संघर्ष करते हुए सकारात्मक रहें, मस्त रहें और स्वस्थ रहें।


पुनश्च:


दीपोत्सव की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ


-प्रदीप कान्त

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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार


शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

गाँधी की प्रासंगिकता पर सवाल क्यों?

आज हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी यानि सबके प्यारे बापू की जयन्ती है। बापू की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में जो थोड़ा बहुत समझ पाया हूँ वह इस बार तत्सम पर आपके सामने आपकी प्रतिक्रियाओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहेगा।
-प्रदीप कान्त
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न्यूटन का तीसरा नियम है - प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है। विज्ञान के ज़्यादातर नियम आम जीवन में भी लागू होते हैं। इनमें से यह नियम भी एक है। यदि आप किसी को मारने दौड़ोगे तो वह भी लठ्ठ लेकर आपको मारने आऐगा, यह एक सामान्य सी बात है, यानि प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया। किन्तु गाँधी ऐसे शख्स़ थे जिन्होने इस नियम को नकारा। यानि केवल सामने वाला ही क्रिया करता जाऐ, आप विपरीत प्रतिक्रिया मत करिये। अर्थात् हिंसा के जवाब में प्रतिहिंसा नहीं, अहिंसा। होता है ना आश्चर्य, लेकिन तभी तो कहने वालों ने गाँधी को उनके जीवन काल में ही महात्मा बना दिया।

पिछले सालों एक फिल्म आई थी लगे रहो मुन्ना भाई, इसने बापू की गांधीगिरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, लोकप्रिय तो कर दिया था। वैसे तो सही शब्द गाँधीवाद है, गाँधीगिरी नहीं। किन्तु यदि सही ही इस्तेमाल करेंगे तो फिर फिल्म वाले फिल्म वाले कैसे कहलाएंगे? युवा वर्ग इससे खासा प्रभावित होता नज़र आया। भ्रष्ट कर्मचारियों को फूलों के गुच्छे भेंट किये गए।ये ठीक है कि फिल्मों का असर आखिर कितने दिन रहता? धीरे धीरे हम सब भूल गए। किन्तु इसको देखते हुऐ बापू की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करना आवश्यक है। सच बात तो यह है कि बापू भी पहले एक साधारण आदमी ही थे। महात्मा तो उन्हे उनके कर्मों ने साबित किया। और ऐसा भी नहीं है कि अहिंसा की परिकल्पना सबसे पहले बापू ने ही की। यह तो सदियों पुरानी अवधारणा है जो गौतम बुद्ध ने की थी। यही महावीर स्वामी भी मानते थे। अपनी जिद के कारण सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध जीत तो लिया किन्तु उसमें हुई मारकाट और जन हानि को वह बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसका हृदय परिवर्तन हो गया तथा वह अहिंसावादी हो गया। उसने बोद्ध धर्म के प्रचार के द्वारा इसे फैलाया भी। किन्तु अहिंसा के इतने सशक्त उपयोग बापू से पहले शायद ही किसी ने किया हो।

इस बात को समझने के लिये हमें भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास जाना पड़ेगा जहां दो तारिखें बहुत महत्वपूर्ण हैं - २९ मार्च १८५७, जहाँ गरम दर्जे का विरोध होता है और ११ सितम्बर १९०६ जहाँ नरम विरोध की नींव बनती है जब बापू ने पहली बार दक्षिण अफ्रीका में बने खूनी बिल के सामने सर झुकाने से साफ साफ इन्कार कर दिया था। गरम दर्जे का पहला विरोध यानि १८५७ का स्वतन्त्रता संग्राम इसलिये असफल नहीं हुआ था कि उसमें ताकत नहीं थी, वरन् इसलिये असफल हुआ था कि ताकत तो थी पर संघटित नहीं थी। दूसरा, एक सामान्य से सिद्धान्त के तहत लोहे को लोहा काटता है जिसका बापू ने उपयोग नहीं किया। उन्होने तो पत्थर को रस्सी से काटने वाला नियम अपनाया, जैसे पानी खींचते खींचते रस्सी कुँऐ की मुंडेर पर पत्थर को काटने लगती है। ये ठीक है कि इसमें समय लगता है किन्तु शत प्रतिशत एक निश्चित समय बाद पत्थर कटने लगता है। रास्ता लम्बा था किन्तु बापू ने यही किया क्योंकि वे समझ गये थे कि हिंसा के प्रभाव अल्पकालिक होंगे। बापू की महानता इसमें नहीं थी कि उन्होने हिंसा के ख़िलाफ अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया वरन् उनकी महानता इसमें थी कि उन्होने अहिंसा को ही हिंसा के ख़िलाफ सबसे शक्तिशाली हथियार बनाया। सामान्यतया लोगों को मारकाट नहीं पसन्द होती और इस बात को बापू ने सबसे पहले समझा। उन्होने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया तो लोगों ने इसे मारकाट से ज़्यादा सही समझा और वे संघटित हो गये और यही बापू की सबसे बड़ी सफलता थी। संघटन की यही ताकत १८५७ में नहीं मिलती। वहाँ कहीं न कहीं सबके अपने अपने स्वार्थ थे जिसके कारण सबका अपना अपना विरोध शुरू हुआ। शायद यही वजह थी कि इस शुरूआत को गदर का नाम देकर अंग्रेजों ने लगभग ५० सालों तक भारतीय जनता को भरम में रखा जबकि अन्तत: वह स्वतन्त्रता आंदोलन ही था न कि गदर। लेकिन बापू के अहिंसा वाद के आह्वान से जो संघटन पैदा हुआ वह अंग्रेज सरकार को भारी पड़ गया।

बापू के दर्शन में केवल अहिंसा नहीं है, वहाँ सत्य है, सादगी है, स्वदेशी है, प्रकृति की और लौटने की अभिलाषा है और एक और महत्वपूर्ण बात कि जो स्वयं न कर सको औरों को भी न कहो। इस सन्दर्भ में ज़रा बापू की वेशभूषा को भी याद करें। उसके पीछे एक नहीं कई दर्शन थे - पहला कि इस देश के कई गऱीब लोगों के पास कपड़ा नहीं है तो वे अपने तन पर केवल एक धोती पहनते थे। दूसरी, स्वदेशी की धारणा कि यहाँ की कपास मेनचेस्टर चली जाती थी और कपड़े वहाँ से बन कर आते थे। वह नहीं पहनना ताकि स्वदेशी के माध्यम से देशप्रेम की प्रेरणा प्राप्त हो। और तीसरा प्रकृति की और लौटना और स्वस्थ रहना।

शायद बापू के सत्य और अहिंसा के दर्शन को देख कर ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने एक बार कहा था कि आने वाली पीढियां शायद ही यकीन कर पाएं कि हाड मांस का कोई ऐसा पुलता इस धरती पर कभी हुआ था। एक और दिलचस्प बात यह भी है गांधी जयंती के आसपास ही हर बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा होती है। दुनिया के सबसे बड़े सम्मान देने वाली नोबेल समिति को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि दुनिया को सत्य और अहिंसा का बेमिसाल दर्शन देने वाले और इसे अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को वह सम्मानित नहीं कर सकी. नोबेल शांति पुरस्कार के लिए गांधी जी तीन बार नामांकित हुए थे. १९४८ में जब उन्हें यह पुरस्कार मिलना तय था तो उनकी हत्या हो गई और नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता।

कौन नहीं जानता कि दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला के प्रेरणा स्रोत भी बापू ही थें। यहाँ तक कि अफ्रीका का तो संविधान भी गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित ही बनाया गया है। गाँधीवाद के कतिपय समर्थक तो ये आज भी मानते हैं कि आज के तमाम् सवालों का हल भी गाँधीवाद में मिलता है। अब अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा को ही लें। स्कूली छात्राओं के एक प्रश्न के जवाब में कि वे किस महान हस्ती के साथ भोजन करना पसन्द करते तो उन्होने गाँधी का ही नाम लिया। बराक ओबामा के अनुसार उनके आदर्श हैं महात्मा गाँधी, नेल्सन मंडेला एवं अब्राहम लिंकन। इसी से आप बापू के नैतिक मूल्यों की वर्तमान प्रासंगिकता के बारे में सोच सकते हैं। वैसे भी बापू ने जिन नैतिक मूल्यों पर ज़ोर दिया है वे बुद्ध, महावीर और ईसा के नैतिक मूल्यों से अलग नहीं हैं। जैसे इसा भी सूली पर चढ़ते हुए भी कह रहे थे कि हे ईश्वर इन्हे क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहें हैं? और जब बुद्ध और ईसा की प्रासंगिकता पर कोई सवाल नहीं उठता तो फिर गाँधी पर ही प्रासंगिकता का सवाल क्यों? हमें तो उनकी प्रासंगिकता को समझते हुऐ उस तमाम बाज़ारवाद का विरोध करना चाहिये जो बापू का उपयोग करके वस्तु बेचने कि बात करता है। इसका उदाहरण है आज ही नई दुनिया की एक खबर - गाँधी की सादगी और ११ लाख का पेन, इसके अनुसार एक विदेशी कम्पनी गाँधीजी के नाम पर ११ लाख ३९ हज़ार के २४१ सोने के पेन बाज़ार में उतारे हैं जिसे गाँधीजी की २४१ मील लम्बी दांडी यात्रा से जोड़ा गया है। सोचने की बात है जो आदमी तमाम उम्र सादगी से जीता रहा उसका उपयोग निर्मम बाजारवाद कर रहा है और हम ख़ामोश हैं। ऐसे में क्या हमें दुश्यन्त कुमार नहीं याद आने चाहिये -

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलना चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
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