शनिवार, 12 दिसंबर 2009

भगीरथ की लघुकथाएँ

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भगीरथ परिहार समकालीन हिन्दी लघुकथा आन्दोलन के वरिष्ठ हस्ताक्षर है। समकालीन हिन्दी लघुकथा के प्रथम संकलन 'गुफाओं से मैदान की ओर` (१९७२) का सम्पादन इन्होनें ही किया। इस संकलन ने लघुकथा को एक विधा के रूप में मान्यता दिलवाने में मदद की । १९९६ में प्रकाशित उनका लघुकथा संग्रह पेट सबके हैं काफी चर्चित रहा। आज भी हिन्दी लघुकथा साहित्य में यह संग्रह महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लघुकथा के आलोचनात्मक पक्ष को मजबूत करने के लिए आपके कई सैद्धांतिक और व्यवहारिक समीक्षा संबधी दृष्टिपरक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए। व्यवहारिक समीक्षा के क्षेत्र में दो पुस्तकों का उल्लेख जरूरी है , पहली पंजाबी की चर्चित कथाएँ` दूसरी राजस्थान की चर्चित कथाएँ इनमें संकलित लघुकथाओं पर महत्वपूर्ण टिप्पणियॉं संकलित है।
इन लघुकथाओं के शिल्प में किसी एक गम्भीर विचार की महीन बुनावट को महसूसा जा सकता है। यथार्थ के जिन पक्षों को सामान्यत: देख कर भी नकार दिया जाता है, उसी यथार्थ के धरातल पर खडा करके ये लघुकथाएँ आपको सोचने को मजबूर करती है।
- प्रदीप कांत
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सपने नहीं दे सकता
पुत्रियाँ इतनी जल्दी युवा क्यों हो जाती हैं! युवा होकर सपने क्यों देखती है! सपने भी इन्द्रधनुषी! सपनों में वे हिरनियों - सी कूदती - फांदती, किलोल करती, मदन - मस्त विचरण करती है। हिरनी जैसी आँखों को देखकर सपनों का राजकुमार पीछा करता है। वह रोमांचित हो उठती है। अंग - प्रत्यंग मस्ती में चूर। इस उमर में इतनी मस्ती आती कहाँ से है!
घोड़े पर सवार राजकुमार फिर उसके सपने में आता है। वे वन में अठखेलिया कर रहे है। आँख मिचौनी खेल रहे है। राजकुमार, आँख पर पट्टी बाँधे अपनी राजकुमारी को आलिंगन में ले लेता है।
बेटी, सपना देख, लेकिन सपने में राजकुमार को मत देख। किंतु युवती का सपनों पर वश नहीं है। वे आते हैं और आते ही चले जाते हैं। एक रोमानी खुमारी और मीठी चुभन छोड़ जाते हैं। वह सपनों के बाहर नहीं आ पाती, सपनों का सौंदर्य और माधुर्य अलौकिक है। रोमांस भरे दृश्य उसकी आंखो में तैरते हैं। वह खुली आंखो से सपने देखती है।
इन सपनों में वह पति नहीं, चिर प्रेमी को देखती है। बस एक आकर्षण है, भविष्य के सपने है, लेकिन भविष्य के परिणाम से निश्चिंत है, वह अतीत में नहीं है, भविष्य में भी नहीं है। सिर्फ वर्तमान में है, सपने में है। उसे लग रहा है जैसे पूरा अस्तित्व उसके साथ उत्सव मना रहा हो, प्रेम में परिपूर्ण आनन्द है।
पिता चिंतित है क्योंकि उन्होनें उसकी आंखो में सपना देख लिया है। पिता समझाते है, सच देख, सपने नहीं। 'मैं तुम्हें सपने नहीं दे सकता। स्त्री यहाँ सपने नहीं देखती वह सपनों में भी यथार्थ देखती है। अपना हौसला कर बुलंद कि सपनों में यथार्थ देख सके। समाज में औरत की नियति देख। परिवार में औरत की नियति देख।`
सपने टूटने लगते है, और टूटते ही चले जाते हैं। कहीं आत्मा के चटखने की आवाज भी सुन लेती है युवती। एक आत्महीन युवती का जीवन सामाजिक यथार्थ बन जाता है।
पुनश्च: - लेकिन सपने देखने वाले ही सामाजिक यथार्थ को बदलते है। नहीं, तू देख सपने और मुस्तैदी से देख, कि तू औरत की नियति बदल सके ।
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बैसाखियों के पैर
वह अपनी टांगों सहारे नहीं चलता था, क्योंकि उसकी महत्वाकाक्षाएँ ऊँची थी क्योंकि वह चढ़ाइयॉं बड़ी तेजी में चढ़ना चाहता था, क्योंकि उसे अपनी टांगों पर भरोसा नहीं था क्योंकि वे मरियल और गठिया से पीड़ित थी।
फिर भी, जिन दूसरी टांगों के सहारे चलता था, उन पर टरपेन्टाइन तेल की मालिश किया करता था। हाथ की मॉंसपेशियाँ खेता नाई की तरह मजबूत हो गई थी और शाम उनके टखने एवं ऊँगलियॉं चटखाया करती थीं ताकि विश्वास हो जाये कि कल भी ये टांगे उसका साथ देंगी। इतना कर चुकने के बावजूद उसका मन संशकित रहता, काँपता और बोलते वक्त भाषा उससे आगे निकल जाती। और वह फिर आश्वस्त हो जाता कि एक वाक्य में चार बार हिनहिनाने से उसकी वैसाखियों में सुखद हरकत होने लगती है। आखिर उसे अपनी सारी दूरियॉं इन्ही बैसाखियों से तय करनी हैं ।
वह इस बात को जानता है कि उसके सम्मान में उठे हाथ उसके लिए नहीं है पर वह जानता है यहॉं के लोग इसी भाषा को समझते हैं। निहायत दरबारी ।
वह जानता है जो सेनापति बैठें हुए हैं, उनसे सुरक्षा का वचन लेना है और उन्हीं की सहायता से अपने प्रतिद्वन्दी को पछाड़ना है।
वह जानता है कि वह स्वयं अपने में कुछ नहीं है, और उसकी बैसाखियों को छीन लो तो वह धड़ाम से धूल में लोट जायेगा पर वह अपनी बैसाखियों को दूसरे के हाथों में नहीं जाने देगा ।
आज वह किले की हर बुर्ज पर मौजूद है। भव्य महल और मयूर सिहांसन की सुरक्षा के लिए बना है किला यह, जिसमें अब उसके लिए 'श्री १००८ महाराजाधिराज` की गुहार लगानेवाले मौजूद हैं ।
वह अपनी सफलता के जश्न का केक काटते हुए इस बात का ऐलान करता है कि उसके पैर निकल आए हैं - मजबूत और बलिष्ठ ।
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छिपकली
छिपकली रेंगती है, तेजी से दौड़ती है बिना आहट किए, उसके छोटे-छोटे पैर दीवार पर चिपके रहते है, ताकि गिरे नहीं, लेकिन हरकत तेज करते है। वह कभी भी गिर जाने का अहसास नहीं होने देती। कभी-कभी वह पांव पर खड़ी हो जाती है। गुस्से में लाल-पीली होती है। गर्दन उठाकर आक्रमण करने की मुद्रा में और भी भयानक लगती है। छिपकली जुगुप्सा जगाती है। छिपकली हममें सौंदर्य बोध नहीं जगाती, लोग इससे घृणा करते है, डरते है, लडकियां तो इन्हें देखते ही चीखने लगती है। वे उन्हें देख कर ऐसे भागती है जैसे दुश्मन गन लेकर कमरे में घुस आया हों। छिपकली की आंखे आदमी की तरह गड़ढे में नहीं धंसी रहती, बल्कि माथे पर उभरी होती है, जिससे वह चारों तरफ देख, हर पल चौकन्नी रहती है। वह आदमी की तरह अनेकानेक विचारों में उलझी रहने की बजाए, हमेशा एक ही तन्मयता में रहती है, एक ही बिन्दु पर यानि शिकार पर सम्पूर्ण शक्ति केंद्रित करती है। शिकार करना उसके लिए महज शिकार नहीं है, इबादत करने का तरीका है, जिस धैर्य से,चपलता से, तन्मयता से एक निष्ठ होकर शिकार की टोह में रहती है, वह केवल सच्चे ऋषि मुनि को ही उपलब्ध हो सकती है। उसे धोखेबाज कहना, इसलिए कि वह पीछे से वार करती है, दबे पांव आती है, बिना आहट के और अपनी लम्बी जिह्वा से शिकार को पकड़ कर जबड़ों में जकड़, पछाड़ देती है, और इस पूरी क्रिया में उसे क्षण भर ही लगता है, सही नहीं है, यह धोखे बाजी नहीं, शिकार पकड़ने के कलात्मक अंदाज है। छिपकली की चाल में अब शिकार पा जाने का संतोष है। ताज्जुब की बात है, यह सब कीट-पतंगों को खा जाती है, किंतु इसे कोई नहीं खा सकता, क्योंकि इसकी पूंछ में कहते है जहर होता है। इसके पास आक्रमण और बचाव के तमाम साधन है। आदमी सोचता है छिपकली फसले नहीं उगाती, खदानों में नहीं खपती, उद्योगों में काम नहीं करती, सिर्फ जिंदा या तबाह करती है। इन जहरीले रैंगते जीवों से बचने का क्या तरीका है, बचने का नहीं, इन्हें नेस्तनाबूद करने का क्या तरीका है, दूसरे आदमी ने प्रश्न किया।
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कोणार्क
कोणार्क का सूर्यमन्दिर, मन्दिर के दोनों ओर रथ और घोड़े पर गतिशील सूर्य और वाद्ययंत्र बजाते नाचते स्त्री - पुरूष उत्कीर्ण हैं। साथ ही विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरूष प्रेमालिंगन व रति क्रिया में रत देखे जा सकते हैं। पुरूष व स्त्री की सुन्दर देह और यौन अंगों को पत्थरों पर मूर्तिकार ने स्पष्ट उकेरा है ।
उनके चेहरों पर कामुकता या यौनहिंसा के भाव नहीं हैं। एक प्रेमपूर्ण शांतचित से की गई यौनलीला अपूर्व है। मैं देखकर दंग रह गया कि क्या ऐसा भी हो सकता है! परिपूर्ण प्रेम के बिना रति की कोई कल्पना ही नहीं है। क्या ऐसा भी समाज रहा होगा जब यौन को लेकर वर्जनाऍं न रहीं हों? अपराध बोध का भाव न रहा हो? नैतिकता के मापदंड यौनता से न जुड़े हों? क्या ऐसा भी समाज रहा होगा जो अपने पूजा स्थलों में भोग की इन कौतुक क्रियाओं को इतना स्पष्ट उत्कीर्ण करने में कहीं संकोच नहीं करता था, आश्चर्य इसलिए भी होता है कि इसी देश में भोग की जड़ हत्या को प्रतिष्ठित किया गया था । लेकिन भोग शब्द का यहॉं उपयोग अनुचित लगता है, इसके स्थान पर प्रेमपूर्ण समर्पण ही सही शब्द होगा।
सूर्य मन्दिर की सूर्य घड़ी, यही काल चक्र है। कुछ भी स्थिर नहीं, समय भी नहीं । लेकिन परिपूर्ण प्रेम के दृश्यों में जैसे समय थम सा गया है। एक अपूर्व आनन्द के क्षणों में समय का भान रहता भी कहॉं है! किसी की दृष्टि में यह भोग हो सकता है, लेकिन उस समय के कलाकारों ने इनमें भोग नहीं, प्रेम की पूर्णाहुति देखी थी, हमारी दृष्टि क्यों और कैसे परिवर्तित हो गई? हमने जीवन्त आत्माओं को वस्तु बनाकर भोग का माध्यम बना दिया,ऐसा क्यों और कैसे हो गया? यह प्रश्न लगातार मेरे मन पर चोट कर रहा है।
मैँ मूर्तिकला को नहीं, जीवंत भाव भंगिमाओं को देखकर भावविभोर हूँ। आनन्द उनके चेहरे पर झलक-झलक पड़ रहा है जीवन का प्याला लबालब भरा हुआ । सृजन के ये अप्रतिम क्षण हैं जो मुर्तिकार ने उत्कीर्ण किये हैं । सृजन के क्षण सबसे सुन्दर और प्रेममय होते हैं। व्यक्ति अपनें में ठहरा, अपने से विस्तीर्ण होता दिखाई पड़ता है। ये पूजा के क्षण रहे होंगे जब वह अपने अस्तित्व को ही विसर्जित कर देता है।
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