गुरुवार, 7 जनवरी 2010

नई किताब

डॉ कुमार विनोद

जन्म: 10 मार्च 1966, अम्बाला शहर (हरियाणा)

शिक्षा: कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम एस सी, एम फिल, पी एच डी (गणित)

प्रकाशन: लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, ग़ज़लें एवम व्यंग्य प्रकाशित। काव्य-संग्रह कविता ख़त्म नहीं होती (2007) के साथ-साथ गणित के विभिन्न प्रतिष्ठित अंतरार्ष्ट्रीय जर्नल्स में अनेक् शोध-पत्र भी प्रकाशित।

सम्प्रति: डॉ कुमार विनोद, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, गणित विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र-136 119, (हरियाणा)

सम्पर्क: 1705/2, वार्ड 8, विष्णु कॉलोनी, कुरुक्षेत्र - 136 118 (हरियाणा)

फोन: 094161 37196, 01744 293670

ई मेल­: vinodk_bhj@rediffmail.com


हाल ही के वर्षों में जिन ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल के राष्ट्रीय परिदृश्य पर बेहद प्रभावी ढंग से अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज की है - युवा ग़ज़लकार कुमार विनोद उनमें से एक हैं। कुमार विनोद की ग़ज़लें हंस, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कथन, कथादेश, कथाक्रम, कादम्बनी, उद्भावना, बया, अन्यथा, प्रगतिशील वसुधा, वर्तमान साहित्य, हरिगन्धा, समावर्तन, समकाकलीन भारतीय साहित्य, आजकल, अक्षर पर्व इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन कर्म में पूरी गम्भीरता और मनोयोग से लगातार सक्रिय, कुमार विनोद की कविताओं का एक संग्रह कविता ख़त्म नहीं होती 2007 में प्रकाशित हो चुका है और अभी हाल ही में (जनवरी 2010) आधार प्रकाशन से इनका पहला ग़ज़ल-संग्रह बेरंग हैं सब तितलियाँ प्रकाशित हुआ है। (आधार प्रकाशन से मंगाने के लिए 094172 67004 पर फोन कर सकते हैं किताब की कीमत है 100 रु)


किसी भी विशिष्ट रचना समय में यूँ तो कई रचानाकार अपना अपना रच रहे होते हैं किंतु पहचान उसी की बनती है जो अपने रचनाकर्म में कुछ नया कर रहा होता है। इस लिहाज़ से कुमार विनोद की गज़लों की कहन एक नयापन लिए है और यही कारण है कि इनकी गज़लें पाठकों व आलोचकों, दोनों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। जहाँ एक ओर कुमार विनोद की गज़लें मौजूदा दौर की तल्ख़ हक़ीक़तों से हमें रू-ब-रू करवाती हैं:


आस्था का जिस्म घायल रूह तक बेज़ार है

क्या करे कोई दुआ जब देवता बीमार है


तो दूसरी ओर यही गज़लें हौसला बनाए रखने का सम्बल भी देती हैं क्योंकि बदलाव का रास्ता अंततः हमसे होकर ही गुज़रेगा:


कम से कम तुम तो करो ख़ुद पर यक़ीं, ऐ दोस्तो!

गर ज़माने को नहीं तुम पर यक़ीं, तो क्या हुआ ।


चाहे भूख हो या बाज़ार, ग्लोबलाइजेशन हो या ज़मीर की जद्दोज़हद , हमारे वक़्त के कई सवालों को निडर होकर उठाती सहज-सरल भाषा में गढी ये गज़लें पाठक के दिल में सीधे उतरने में कामयाब होती हैं। कुल मिलाकर, बेरंग हैं सब तितलियाँ कुमार विनोद की एक ईमानदार कोशिश है जो यकीनन देर-सवेर रंग लाएगी|


तत्सम में इस बार कुमार विनोद के इसी संग्रह बेरंग हैं सब तितलियाँ से कुछ गज़लें...

-
प्रदीप कान्त


1

धुंध में लिपटा हुआ साया कोई

आज़माने फिर हमें आया कोई


दिन किसी अंधे कुएँ में जा गिरा

चाँद को घर से बुला लाया कोई


चिलचिलाती धूप में तनहा शजर

बुन रहा किसके लिए छाया कोई


दुश्मनी भी एक दिन कहने लगी

दोस्ती-जैसा न सरमाया कोई


पेड़ जंगल के हरे सब हो गए

ख़्वाब आँखों में उतर आया कोई


आज की ताज़ा ख़बर इतनी-सी है

गीत चिड़िया ने नया गाया कोई


दूसरों से हो गिला क्यों कर भला

कब, कहाँ ख़ुद को समझ पाया कोई

०००००


2

एक सम्मोहन लिए हर बात में

हर तरफ़ बैठे शिकारी घात में


आने वाली नस्ल को हम दे चुके

दो जहाँ की मुश्किलें सौग़ात में


बादलों का स्वाद चखने हम चले

तानकर छाता भरी बरसात में


आप जिंदा हैं, ग़नीमत जानिए

कम नहीं ये आज के हालात में


जगमगाते इस शहर को क्या पता

फ़र्क़ भी होता है कुछ दिन-रात में


मोम की क़ीमत नहीं कुछ इन दिनों

छोड़िये, रक्खा है क्या जज़्बात में !

०००००


3

राग मज़हब का सुनाना आ गया

हुक्मराँ को गुल खिलाना आ गया


देखकर बाज़ार की क़ातिल अदा

ख़्वाहिशों को सर उठाना आ गया


सच को मिमियाता हुआ-सा देखकर

झूठ को आँखें दिखाना आ गया


ताश के पत्तों का है तो क्या हुआ

बेघरों को घर बनाना आ गया


कुछ भी कह देता मैं कल उस शोख़ से

बीच में रिश्ता पुराना आ गया


दूर खेतों में धुआँ था उठ रहा

और हम समझे ठिकाना आ गया

०००