शनिवार, 24 जुलाई 2010

कृष्ण बिहारी 'नूर' की गज़लें


कृष्ण बिहारी 'नूर'
जन्म: 08 नवंबर १९२५, निधन: 30 मई 2003
प्रकाशित कृतियाँ: दुख-सुख, तपस्या (उर्दू), समुन्दर मेरी तलाश में है (हिन्दी), तजल्ली-ए-नूर(उर्दू), आज के प्रसिद्ध शायर कृष्ण बिहारी नूर (सम्पादन -कन्हैया लाल नंदन), मेरे मुक्तक : मेरे गीत, मेरे गीत तुम्हारे हैं, मेरी लम्बी कविताएँ (कविता), दो औरतें, पूरी हक़ीकत पूरा फ़साना, नातूर (कहानी संग्रह), यह बहस जारी रहेगी, एक दिन ऐसा होगा, गांधी के देश में (एकांकी नाटक), संगठन के टुकड़े (नाटक), रेखा उर्फ नौलखिया, पथराई आँखों वाला यात्री, पारदर्शियाँ (उपन्यास), सागर के इस पार से उस पार से (यात्रा वृतांत) आदि
कृष्ण बिहारी नूर की ग़ज़लें जब बोलती है तो साफ साफ बोलती है, बिना किसी लाग लपेट के। ग़ज़ल की रवायत कृष्ण बिहारी नूर के यहाँ ग़ज़ल की रवायत जैसी ही नज़र आती है, न कम न ज़्यादा, ठीक उन्ही के इस शेर की तरह - सच घटे या बढ़े तो सच न रहे/झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं। तत्सम में इस बार कृष्ण बिहारी नूर की कुछ ग़ज़लें....
- प्रदीप कान्त

1
बस एक वक़्त का खंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है

ये और बात कि पहचानता नहीं मुझे
सुना है एक सितमग़र मेरी तलाश में है

अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है

ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं
दिया जलाये जो दर पर मेरी तलाश में है

अज़ीज़ मैं तुझे किस कदर कि हर एक ग़म
तेरी निग़ाह बचाकर मेरी तलाश में है



मैं कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है 
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है

मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में 
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है 

मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था 
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है

वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला ‘नूर’
वही ख़ुलूस मुकर्रर मेरी तलाश में है

2

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं 
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं 
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है 
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे 
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं

ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ 
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं 
उसका कोई अता-पता ही नहीं

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं

कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर 
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं

उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं

चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो 
आईना झूठ बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है 
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं

3

तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था 
कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था

बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था 
मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था

वो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे 
हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था

कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं 
हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था

ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते 
तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था

हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस 
रहे-हयात में यारो घुमाव ऐसा था

कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक 
हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था

बस उसकी मांग में सिंदूर भर के लौट आए 
हमारा अगले जनम का चुनाव ऐसा था

फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़ 
तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था

वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका 
हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था

ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है 
दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था

फ़रेब दे ही गया ‘नूर’ उस नज़र का 
ख़ुलूस फ़रेब खा ही गया मैं, सुभाव ऐसा था


(शायर के ग़ज़ल संग्रह समन्दर मेरी तलाश में है से)
छायाचित्र: प्रदीप कांत