शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

७२ दिनों तक चला था राम-रावण युद्ध

प्रसंग वश – विजयादशमी


विजयादशमी के पावन अवसर पर शुभकामनाएँ। तत्सम में इस बार राम रावण युद्ध की महत्वपूर्ण जानकारियाँ देता पत्रकार, रजनी रमण शर्मा का एक आलेख.........। पेशे से पत्रकार और कवि तथा उपन्यासकार रजनी रमण शर्मा का एक उपन्यास ‘तुम्हारे आसपास’ राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हो चुका है।

- प्रदीप कांत 
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दशहरा का तात्पर्य

दशहरा का तात्पर्य, सदा सत्य की जीत। 
गढ़ टूटेगा झूठ का, करें सत्य से प्रीत॥ 
सच्चाई की राह पर, लाख बिछे हों शूल। 
बिना रुके चलते रहें, शूल बनेंगे फूल॥ 
क्रोध,कपट,कटुता,कलह,चुगली अत्याचार। 
दगा, द्वेष, अन्याय, छल, रावण का परिवार॥ 
राम चिरंतन चेतना, राम सनातन सत्य। 
रावण वैर-विकार है, रावण है दुष्कृत्य॥ 
वर्तमान का दशानन, यानी भ्रष्टाचार। 
आज दशहरा पर करें, हम इसका संहार॥

अजहर हाशमी

भगवान श्रीराम और रावण के बीच युद्ध हुआ और काफी मेहनत के साथ श्रीराम की सेना ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी हिम्मत बनाए रखी और बलशाली राक्षसों को न केवल हराया बल्कि लगातार कई दिनों तक युद्ध करते रहे। यह युद्ध निश्चित रूप से सामान्य नहीं था और इसमें कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के अलावा कई शक्तियों का भी प्रयोग हुआ था। फिल्मों व धारावाहिकों में इन बातों का उल्लेख जरूर है, पर किस मुहूर्त में क्या हुआ इस बारे में केवल पुराणों में ही बातें लिखी गई हैं। विजयादशमी के दिन यह जानना सामयिक होगा कि राम और रावण के बीच युद्ध कैसा और कब हुआ था।


वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, कबंध रामायण व अन्य इतर मुद्रित रामायणों के अलावा भी हमारे पुराणों में श्रीराम की गाथा देखने को मिलती है। मुनिष्ठ महर्षि लोमश ने भी रामचंद्रजी के अद्भुत चरित्र का वर्णन किया है। मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की अष्टमी को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और विजय नामक मुहूर्त में दोपहर के समय श्री रघुनाथजी का लंका के लिए प्रस्थान हुआ। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "मैं समुद्र को लाँघकर राक्षसराज रावण का वध करूँगा", वे दक्षिण दिशा की ओर चले। सुग्रीव उनके सहायक हुए। सात दिनों के बाद समुद्र के तट पर पहुँचकर उन्होंने सेना को ठहराया। पौष शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक श्रीराम सेना सहित समुद्र तट पर टिके रहे। चतुर्थी को विभीषण आकर उनसे मिले। फिर पंचमी को समुद्र पार करने के विषय में विचार हुआ। इसके बाद चार दिनों तक अनशन किया। समुद्र ने पार जाने का उपाय दिखा दिया। तदंतर दशमी को सेतु बाँधने का कार्य आरंभ होकर त्रयोदशी को समाप्त हुआ। चतुर्दशी को श्रीराम ने सुवेल पर्वत पर अपनी सेना को ठहराया। पूर्णिमा से द्वितीया तक तीन दिनों में सारी सेना समुद्र के पार हुई। यह गणना शुक्लपक्ष से महीने का आरंभ मानकर की गई है। समुद्र पार करके लक्ष्मण सहित श्रीराम ने सुग्रीव की सेना साथ ले तृतीया से दशमी तक आठ दिनों तक लंकापुरी को चारों ओर से घेर कर रखा। एकादशी के दिन शुक और सारण सेना में घुस आए थे। पौष कृष्णा द्वादशी को शार्दूल के द्वारा वानर सेना की गणना हुई। साथ ही उसने प्रधान-प्रधान वानरों की शक्ति का भी वर्णन किया।


शत्रुसेना की संख्या जानकर रावण ने त्रयोदशी से अमावस्या तीन दिनों तक लंकापुरी में अपने सैनिकों को युद्ध के लिए उत्साहित किया। माघ, शुक्ल प्रतिपदा को अंगद दूत बनकर रावण के दरबार में गए। उधर रावण ने माया के द्वारा सीता को उनके पति के कटे हुए मस्तक आदि का दर्शन कराया। माघ की द्वितीया से लेकर अष्टमीपर्यंत सात दिनों तक राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध होता रहा।

माघ शुक्ल नवमी को रात्रि के समय इन्द्रजीत ने युद्ध में श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश से बाँध लिया। इससे प्रधान-प्रधान वानर व्याकुल और उत्साहहीन हो गए तो दशमी को नागपाश का नाश करने के लिए वायुदेव ने श्रीरामचंद्रजी के कान में गरुड़ के मंत्र का जप और उनके स्वरूप का ध्यान बता दिया। ऐसा करने से एकादशी को गरुड़जी का आगमन हुआ। फिर द्वादशी को श्रीराम के हाथों धूम्राक्ष का वध हुआ। त्रयोदशी को भी उन्हीं के द्वारा कम्पन नाम का राक्षस युद्ध में मारा गया। माघ शुक्ल चतुर्दशी से कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तक तीन दिन में नील के द्वारा प्रहस्त का वध हुआ। माघ कृष्ण द्वितीया से चतुर्थी तीन दिनों तक तुमुल युद्ध करके श्रीराम ने रावण को रणभूमि से भगा दिया। पंचमी से अष्टमी तक चार दिनों में रावण ने कुंभकर्ण को जगाया और जागने पर उसने आहार ग्रहण किया। फिर नवमी से चतुर्दशी पर्यंत छः दिनों तक युद्ध करके श्रीराम ने कुंभकर्ण का वध किया। अमावस्या के दिन कुंभकर्ण की मृत्यु के शोक से रावण ने युद्ध को बंद रखा। उसने अपनी सेना पीछे हटा ली। फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक चार दिनों के भीतर विषतंतु आदि पाँच राक्षस मारे गए। पंचमी से सप्तमी तक के युद्ध में अतिकाय का वध हुआ। अष्टमी से द्वादशी, इन पाँच दिनों में निकुंभ और कुंभ मौत के घाट उतारे गए। उसके बाद तीन दिनों में मकराक्ष का वध हुआ। फाल्गुन कृष्ण द्वितीया के दिन इन्द्रजीत ने लक्ष्मण पर विजय पाई। फिर तृतीया से सप्तमी तक पाँच दिन लक्ष्मण के लिए दवा आदि के प्रबंध हेतु श्रीराम ने युद्ध को बंद रखा।



तदंतर त्रयोदशीपर्यंत पाँच दिनों तक युद्ध करके लक्ष्मण ने विख्यात बलशाली इंद्रजीत को युद्ध में मारा। चतुर्दशी को रावण ने युद्ध को स्थगित रखा और यज्ञ की दीक्षा ली। फिर अमावस्या के दिन वह युद्ध के लिए प्रस्थित हुआ। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर पंचमी तक रावण युद्ध करता रहा। इन पाँच दिनों के भीतर बहुत से राक्षसों का विनाश हुआ। षष्ठी से अष्टमी तक महापार्श्व आदि राक्षस मारे गए। चैत्र शुक्ल नवमी के दिन लक्ष्मणजी को शक्ति लगी तब श्रीराम ने क्रोध में भरकर दसशीश को मार भगाया। फिर हनुमानजी लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए द्रोण पर्वत उठा लाए। दशमी के दिन श्रीरामचंद्रजी ने भयंकर युद्ध किया जिसमें असंख्य राक्षसों का संहार हुआ। एकादशी के दिन इन्द्र के भेजे हुए मातलि नामक सारथी श्रीराम के लिए रथ ले आए और उसे युद्धक्षेत्र में श्री रघुनाथजी को अर्पण किया। तदनंतर श्रीरामचंद्रजी चैत्र शुक्ल द्वादशी से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तक अठारह दिन रोषपूर्वक युद्ध करते रहे। 

अंततोगत्वा उस द्वैरथ युद्ध में राम ने रावण का वध किया। उस तुमुल संग्राम में श्री रघुनाथजी ने ही विजय प्राप्त की। माघ शुक्ल द्वितीया से लेकर चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक सतासी दिन होते हैं, इनके भीतर केवल पन्द्रह दिन युद्ध बंद रहा। शेष बहत्तर दिनों तक राम-रावण संग्राम चलता रहा। रावण आदि राक्षसों का दाह संस्कार अमावस्या के दिन हुआ। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा को श्रीराम युद्ध भूमि मे ही ठहरे रहे। द्वितीया को लंका के राज्य पर विभीषण का अभिषेक किया गया। तृतीया को सीता की अग्नि परीक्षा हुई। वैशाख शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से अयोध्यापुरी की ओर चले। वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रीराम दल-बल के साथ भारद्वाज मुनि के साथ आए और चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर षष्टि को नन्दीग्राम जाकर भरत से मिले। फिर सप्त्मी को बयालीसवे वर्ष की उम्र में श्री रघुनाथजी का राज्याभिषेक हुआ, उस समय सीताजी के उम्र तैंतीस वर्ष की थी।

- रजनी रमण शर्मा
42, मिश्र नगर 
अन्नपूर्णा रोड़, इन्दौर - 452 009,  (म प्र)
फोन - 98263 90787
नई दुनिया 17-10-2010 से साभार
फोटो: गुगल सर्च से साभार

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

भाषा के 'क्रियोलीकरण' के विरोध में

यह एक बहुत बड़ी विडम्बना है सितम्बर में हमारी ही अपनी भाषा हिन्दी के लिये हिन्दी पखवाड़ा, हिन्दी मास आदि आदि आयोजित किये जाते हैं और इस तरह समारोह मना कर इतिश्री कर ली जाती है। जबकि हमारे हिन्दी अखबार ही सुनियोजित रूप से इसे बिगाड़ते हुऐ अपनी ही भाषा को ख़त्म करने में लगे हुऐ हैं। इसी के विरोध में इस साल हिन्दी दिवस पर इन्दौर में हिन्दी अखबारों की एक-एक प्रति जुटाकर उनकी होली जलाई गई। तत्सम में इस बार भाषा के 'क्रियोलीकरण' के विरोध में अनिल त्रिवेदी व तपन भट्टाचार्य द्वारा जारी वक्तव्य......

- प्रदीप कांत

भाषा के 'क्रियोलीकरण' के विरोध में वक्तव्य

- अनिल त्रिवेदी

आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गाँधी-प्रतिमा के समक्ष देश भर के लगभग सभी हिन्दी अखबारों की एक-एक प्रति जुटाकर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। आज-हम-सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किये जाते रहे संवादात्मक-प्रतिरोध असफल हो जाते हैं, तब ही विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है, जो हमें गाँधीजी से विरासत में मिला है।


आज हिन्दी के अखबारों की प्रतियों को जलाकर प्रतीकात्मक रूप से हम भारतीय समाचार-पत्रों, उनके संचालकों, पत्रकारों, सम्पादकों के साथ ही साथ पूरे देश के हिन्दी-भाषा-भाषियों को इस बात की स्मृति दिलाना चाहते हैं, कि आज हम हिन्दी का जो विकास देख रहे हैं उस हिन्दी को बनाने और बढ़ाने में सबसे बड़ी और ऐतिहासिक भूमिका आजादी की लड़ाई में हथियार की तरह काम करने वाले हिन्दी के समाचार-पत्रों ने ही निभायी थी- लेकिन, दुर्भाग्यवश वही समाचार-पत्र जगत आज विकास के इतने ऊँचे सोपान पर चढ़ चुकी हिन्दी को अंग्रेजी के नव साम्राज्यवाद को नष्ट करने पर उतारू हो चुका है। नतीजतन, स्थिति यह है कि पिछली एक शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने हिन्दी को जितने क्षति नहीं पहुँचायी थी, आज उससे दस गुनी क्षति मात्र दस साल में हिन्दी को हिन्दी के समाचार पत्रों ने पहुँचा दी है।

यहाँ हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का मुख्य आधार भाषा के बोले गये नहीं, बल्कि लिखित-रूप के कारण होता है। लिखित रूप ही किसी भाषा को अक्षुण्ण रखता है। लेकिन, आज हिन्दी को सबसे बड़ा धोखा उसके लिखित-छपित शब्द की जगह से ही मिल रहा है। चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को बहत सूक्ष्म और धूर्तयुक्ति से नष्ट किया जा रहा है, जिसे कहा जाता है, भाषा का 'क्रियोलीकरण'। आज का हमारा यह प्रतीकात्मक-प्रतिरोध हिन्दी के अखबारों द्वारा चलाये जा रहे उसी खतरनाक 'क्रिओलीकरण' की प्रक्रिया के विरूद्ध है।

'क्रियोलीकरण' एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है।

'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया का पहला चरण होता है, जिसे वे कहते हैं स्मूथ डिसलोकेशन आफ वक्युब्लरि अर्थात् मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। इस अवस्था को अखबारों अब अपने सर्वग्रासी सीमा तक पहुँचा दी है।

उदाहरण के लिए यह क्रिओलीकरण ठीक उस समय किया जा रहा है, जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सीमित भाषाओं की सूची में शामिल करने के प्रयास बहुत तेज हो गये हैं। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीट्यूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/

वे कहते हैं, धीरे-धीरे स्थिति यह कर दो कि अंग्रेजी के शब्द ७० प्रतिशत तथा मूल भाषा के शब्द मात्र ३० प्रतिशत रह जायें। और इसके चलते हिन्दी का जो रूप बन रहा है, उसका एक स्थानीय अखबार में छपी खबर से दे रहे हैं।

इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट गव्हमेण्ट स्कूल लेवल पर इण्ट्रोड्यूस करे, इसके लिए चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेक्ट रिपोर्ट प्रिंसिपल सेके्रटरी जारी करेंगे।

इसके बाद वे दूसरा और अंतिम चरण बताते हैं : फाइनल असालट ऑन लैंग्विज। अर्थात् भाषा के पूरी तरह खात्मे के लिए 'अंतिम हल्ला'। और, वह अंतिम प्रहार यह कि उसे भाषा की मूल लिपि को बदल कर रोमन कर दो। भाषा समाप्त। और, कहने की जरूरत नहीं कि बहुत जल्दी अखबारों को साम्राज्यवादी सलाहकार की फौज समझाने वाली है। कि हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 'क्रिओलीकरण' के विरूद्ध है, जिसमें, गुजराती-मराठी, कन्नड़, उड़िया, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं।

बहुत मुमकिन है कि देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के भीतर अपनी भाषा का बचाने की एक सामूहिक चेतना के जागृत होने के खतरे का अनुमान लगा कर अखबार-जगत हिन्दी के 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया एकदम तेज कर दें। क्योंकि, जब ५ जुलाई १९२८ को यंग इंडिया में जब गाँधी ने ये लिखा था कि अंग्रेजी उपनिवेश की भाषा है और इसके हम हराकर रेंगे - तब गोरी हुकुमत अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार पर तबके छह हजार पाउण्ड खर्च करती थी- वह खर्च की राशि १९३८ तक ३,८६,००० पाउण्ड कर दी गयी थी। बहरहाल, अंग्रेजी का जो 'नया साम्राज्यवाद अमेरिका और इंग्लैण्ड की रणनीति के चलते बढ़ रहा है - उसमें हमारे यहाँ हाथ बँटाने के लिए देश का प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया एकजुट हो गये हैं- हम उनकी इस खतरनाक मुहिम के विरोध का संकल्प लेते हैं।

अनिल त्रिवेदी,

३०४/२ए भोलाराम उस्ताद मार्ग,

ग्राम-पीपल्याराव, ए.बी. रोड,

इन्दौर-१७

अंग्रेजी के साम्राज्यवाद का हथियार 'क्रियोलीकरण'

-तपन भट्टाचार्य

आजादी के बाद सत्ता में आते ही पहली भारतीय जनतांत्रिक सत्ता ने अंग्रेजी से लड़ाई लड़ी, इसी का नतीजा यह रहा कि 'उदारीकरण' के साथ अंग्रेजी अब की बार बहुत सुनियोजित और सुरक्षित ढंग से अपना 'नया साम्राज्यवाद' खड़ा कर रही है, जिसमें हमारा मीडिया और सत्ता स्वयं भी शामिल है। याद रखिए, लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भाषा से भाषा के स्तर पर चलाने की नीति बनायी, बाद में अंग्रेजी को शिक्षा समस्या बनाकर चलाया, लेकिन नहीं चल पायी। अलबत्ता, इससे उनको एक कटु अनुभव का यह सामना करना पड़ा कि एक मजबूत व्याकरण के आधारवाली मातृभाषा के चलते भारतीयों ने एक किताबी इंग्लिश सीखी और अव्वल दर्जे के आइ.सी.एस. हो गये; लेकिन अंग्रेजी भाषा को रोजमर्रा के जीवन में दूर तक प्रवेश नहीं दिया। बल्कि, बाहर ही रह गयी।

इसलिए, अब नयी नीति तय की गयी है, जिसमें उन्होंने भाषा-संस्कृति का गठबन्धन करते हुए कहा कि अंग्रेजी को 'स्ट्रक्चरली' पढ़ाया जाये, व्याकरण के जरिये नहीं। इसके लिए उन्होंने बच्चों के लिये कॉमिक्स चलाये, कार्टून फिल्में थोक के भाव में भारत के टेलिविजन चैनलों पर चलायी-और, एक मिथ्या 'यूथ-कल्चर' बनाया, जिनका कुल मकसद अंग्रेजी भाषा तथा जीवन शैली को उन्माद की तरह उनसे जोड़ दें- जिसमें भाषा, भूषा और भोजन के स्तर पर वे उनके नये उपनिवेश के शिकंजे में आ जाएँ और कहना न होगा कि, आज के तमाम महाविद्यालयों में अध्ययन कर रही पीढ़ी को उन्होंने 'माडर्न' (?) बना दिया है, जबकि वे 'माडर्न' नहीं हुए, सिर्फ परम्परच्युत हुए हैं। एक 'सामूहिम स्मृति' का शिकार हैं वे और अपनी-अपनी मातृभाषा को न केवल हेय समझते हैं, बल्कि उसे नष्ट करने के अभियान के जत्थों में बदल गये हैं। आज के तमाम हिन्दी अखबार 'यूथ-प्लस' या 'यूथ फोरम' के नाम पर चार-चार चमकीले और चिकने पन्ने छाप रहे हैं - जिसमें एक दो पृष्ठ अंग्रेजी में है और बाकी के दो पृष्ठ हिंग्लिश में, जिसमें, 'लाइफ स्टाइल के फण्डे` सिखाये जा रहे हैं। हमें इसके साथ ही एफ.एम. रेडियो की भूमिका का भी विरोध करते हैं, जो केवल 'क्रियोलीकृत' हिन्दी बनाम हिंग्लिश में ही अपना प्रसारण करते हैं और पूरी की परी युवा पीढ़ी से उसकी भाषा छीन रहे हैं।

हिन्दी के अखबारों की यह भूमिका अंग्रेजी तथा उसके जरिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की भारतीय समाज में स्थापना की है। हम इस स्तर पर भी भारतीय समाचार-पत्रों की दृष्टि का विरोध करते हैं कि वे अपने इस एजेण्डे को अविलम्ब रोकें।

तपन भट्टाचार्य

३०१, सुशीला कॉम्प्लेक्स,

१३०, देवी अहिल्या मार्ग,

इन्दौर-३