सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

एस आर हरनोट की कहानी



मोबाइल


एस आर हरनोट
जन्म: 1955 हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले के एक गाँव चनावग में
प्रमुख कृतियाँ  आकाशबेल (कहानी संग्रह - 1987), पीठ पर पहाड़ (कहानी संग्रह - 1994), दारोश तथा अन्य कहानियाँ (2001), हिडिम्ब (उपन्यास - 2004) आदि प्रमुख है।
उसके छोटे-छोटे पाँव थे। देख कर नहीं लगता था कि किसी बच्ची के होंगे।

लम्बे, बेतरतीब बढ़े हुए नाखूनों से ढके उंगलियों के छोर। चमड़ी ऐसी मानो किसी नाली में कीचड़ के बीच महीनों से पड़ा पुराने जूते का चमड़ा हो। नंगे पाँव जैसे ही ज़मीन पर पड़ते तो बिवाईयाँ उधड़ने लगतीं। दर्द की टीस उठती पर भीतर ही भीतर कहीं दब कर रह जाती। उनसे खून रिसता रहता। लोगों की नजरें उन पर कम तो बच्ची की अधनंगी टांगों पर ज्यादा फिसलती रहती। आँखें कुछ टटोलती हुई इससे पहले कि मैली-फटी फ्राक के बीच जाए, वह झटपट कटोरा उनके मुंह के आगे कर देती,  दे दो बाबू, दे दो-भगवान के नाम से दे दो। भला होगा।

वह कुछ पल उनके हाव-भाव परखती। तिलों में तेल न देख कर आगे चल देती। वही सब दुहराते-गिड़गिड़ाते। किसी ने कभी एक-दो रूपए का सिक्का कटोरे में फैंक दिया तो टन्न की आवाज से उसके चेहरे पर धूप की चमक छा जाती। पथराई और उनींदी सी आँखें सहज ही भोर होने लगती। यह सिलसिला सूर्य से सूर्य तक चलता रहता। दिन भर सिक्के समेटने के चाव में उसकी भूख-प्यास उसी तरह गायब रहती जैसे उसकी देह से बचपना।

पुरानी कहावत है कि जो दिखता है वो बिकता है। बेचने के लिये विज्ञापन का उपयोग बाज़ार की एक पुरानी तकनीक है। किंतु चिंता का विषय है विज्ञापन का विकृत होता रूप। इसका सीधा सा उदाहरण है लड़कों की जींस के विज्ञापन में लड़के से चिपकती लड़कियाँ...। विक्रेता को बेचना है तो वो जो चाहे इस्तेमाल करे और क्रेता को उसके सही-ग़लत तरीके से क्या लेना देना? और ये तो अख़बार या कुकुरमुत्तों की तरह उग आए टीवी चैनलों पर देखे जाने वाले उदाहरण है किंतु जब भीख मांगने वाली बच्ची को ही विज्ञापन में इस्तेमाल किया जाए तो...! यह बाज़ार का वह विकृत रूप है जो हमारे घरों के अन्दर तक बड़ी आसानी से पहुँच रहा है। तत्सम में इस बार प्रस्तुत है सुविख्यात कथाकार एस आर हरनोट की कहानी मोबाइल..., जो बाज़ार की इसी स्थिति पर पैनी दृष्टि डालती है।
-          प्रदीप कांत    
उसके हाथ का कटोरा खाली नहीं रहता। उसमें दिन-बार के हिसाब से भगवान जी बैठे रहते। सोमबार को भगवान शिवजी की मैली सी फटी फोटो और उसके आगे धूप की जलती हुई बत्ती। इस रोज शिव सेना के कार्यकर्ता और सोमवार के व्रती लोग खूब सिक्के डाल कर पुण्य कमा लेते। शिव मन्दिर के आगे उसने कई बार बैठने का प्रयास भी किया लेकिन उधर पहले से अड्डा जमाए सीनियर भिखारी उसे भगा देते। उस वक्त अपने छोटे होने का मलाल उसे अवश्य होता।

मंगल को भगवान जी बदल जाते। शिवजी की जगह हनुमान जी ले लेते। कटोरे के ओर-छोर सिंदूर पुता रहता। इस दिन वह घूमती नहीं थी। हनुमान मन्दिर के रास्ते एक जगह डेरा जमा देती। लेकिन पूरे दिन मुश्किल से दस-बारह सिक्के भी नसीब नहीं होते। लेकिन कटोरा प्रसाद से अवश्य भर जाया करता। कभी तो वह भी भाग्य में नहीं होता। मांगते-मांगते दिन भर की थकान से अनायास जब भी उसकी आंख लगती तो हनुमान भक्त शरारती बन्दर कटोरा छीन लेते। आधा उनके पेट में तो आधा नीचे बिखर जाता। उसकी आंख जगती तो वह उन्हें भगाने और डराने की बहुत कोशिश करती पर बन्दरों पर कोई असर नहीं होता। उल्टा जैसे उसी की खिल्ली उड़ा रहे हो। देवदार के पेड़ पर चढ़ते हुए कटोरा फैंक देते। परसाद के बीच रखे सिक्के जगह-जगह बिखर जाते। नालियों में। ढलानों पर उगी हरी घास के बीच। वह मन में रोती-विलखती उन्हें तलाशती रहती। अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ती। उसके बैठने की जगह के आसपास सिंदूर पुता रहता। बाहर से आए पर्यटकों के लिए यह जगह भी श्रद्धेय हो गई थी। कई बार तो बच्ची जब वहां नहीं होती तो दो-चार सिक्के उधर फैंके रहते।

बुध और वीरवार को बच्ची का कटोरा खाली होता। उस दिन पता नहीं क्यों कोई भगवान उसमें नहीं होते। वह जगह-जगह भटकती रहती। जैसे ही कोई विदेशी पर्यटक दिखता, दौड़ती उनके पास पहुंचती। मुंह से कुछ नहीं कहती। जानती होगी कि 'दे दो

अब बच्ची के हाथ में कोई कटोरा नहीं होता। न कोई भगवान होते। न ही मैली फ्राक से उसका बदन ढका रहता। वह बिल्कुल नंगी होती। उसके नंगे बदन पर कम्पनी के नाम और मोबाइल फोन के स्टिक्कर चिपके रहते। वह दिन भर कम्पनी के बताए रास्तों पर चलती रहती। शाम होती तो कम्पनी अपने विज्ञापन उसके बदन से उतार देते और वही पुरानी फ्राक पहनाकर उसे घर भेज देते।
न बाबू' से यहां काम चलते वाला नहीं। अंग्रेजी तो वह नहीं जानती। जिस अंग्रेज का पीछा पकड़ती उससे लेकर ही कुछ हटती। दिन भर यदि चार-छ: अंग्रेज भी मिल गए तो और दिनों की बनिस्पत कटोरे में अधिक धन इकट्ठा हो जाता। शाम ढलते ही वह खिलखिलाती अपनी छोंपड़ी की ओर भागती। छोंपड़ी सड़क के नीचे एक पैराफिट के बीच बनी थी। उतरते-उतरते उसका वास्ता कभी बकरी, कभी कुत्ते और कभी बच्चों से पड़ जाता। पर वह अपने में मस्त उन्हें प्यारती-दूलारती चलती जाती -- इन क्षणों में उसका बचपना जैसे लौट आया करता। उसके अम्मा-बापू भी इस कमाई से बहुत खुश हो जाते। उस दिन उसे खूब खाना भी मिल जाता।

शुक्रवार को संतोषी माता की तस्वीर कटोरे की मालिक हो जाती। कंवारी लड़कियों का पीछा बच्ची तब तक नहीं छोड़ती जब तक एक-आध रूपए न ले ले। शनिवार को कटोरा शनिदेव जी का हो जाता। सरसों के तेल से भरे कटोरे में एक पुराने टीन के जंग लगे टुकड़े का भगवान डोलता रहता। बच्ची को इस दिन बहुत भाग-दौड़ करनी पड़ती। असली पंडों से बचती-बचाती वह कई बार गिर भी पड़ती।

इतवार को बच्ची नहीं दिखती थी। शायद अवकाश पर रहती होगी।

आज जब वह काम पर निकली तो सड़क में पहुंचते ही उसका सामना एक चुनाव पार्टी से हो गया था। उसे यह पता नहीं था कि चुनाव का मौसम आ गया है। और दिनों की बनिस्पत हर जगह चहल-पहल हो गई थी। पार्टी ने उसे घेर लिया और कटोरे में पहले से विराजमान भगवान जी की जगह उन्होंने देवी नुमा मुकुट पहने किसी महिला की तस्वीर सजा दी। पल भर में उसका कटोरा सिक्कों से भर गया। नए भगवान से बच्ची खूब प्रसन्न हो गई। उससे पहले कभी भी उसने उस तस्वीर को नहीं देखा था।

लेकिन दूसरे दिन उसका सामना एक दूसरी पार्टी से हो गया। उन्होंने बच्ची को खूब गालियां दीं। उसका कटोरा नीचे फैंक दिया। कटोरे में विराजमान तस्वीर को अपने पैरों तले रौंद दिया। जो कुछ सिक्के उसमें थे उन्हें भी गिरा दिया। लेकिन एक नेता ने अपने साथियों को तत्तकाल समझा बुझा कर शान्त कर दिया। वह बच्ची के पास गया और उसे प्यार से दुलारा। खूब स्नेह जताया। फिर अपने झोले से एक भगवे रंग में रंगा कटोरा निकाला और उसके हाथ में पकड़ा दिया। फिर एक फोटो उसमें रख दी। कहा कि यह भगवान राम की है। बच्ची एकटक देखती रही। उसके लिए भगवान राम नए रूप में थे। रथ पर बैठे, पगड़ी बांधे, हाथ में धनुष पकड़े हुए हल्की छोटी मूछों वाले भगवान। उनके गले में लाल-हरे रंग का पट्टा था। जैसे ही फोटो कटोरे में सजी, सिक्कों की बरसात होने लगी। कई बार कटोरा भर जाता तो वह घर भाग कर उसे मां को दे आती और फिर निकल जाती। स्टिक्करनुमा धनुरधारी भगवान उसे दूसरे भगवानों से ज्यादा पावरफुल लगे थे।

दूसरे दिन वह इसी भगवान को कटोरे में सजा कर जब अपने काम पर निकली तो उसका सामना पहले वाली पार्टी से हो गया। कार्यकर्ता उसके कटोरे में धनुषधारी भगवान को देख कर आग बबूले हो गए। एक-दो कार्यकर्ताद जैसे ही उसकी तरफ बढ़े, दूसरी पार्टी अचानक धमक गई। फिर क्या था सभी एक दूसरे पर टूट पड़े। बच्ची जान बचा कर भाग निकली। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उस दिन हर जगह शहर में दंगे हुए थे। बच्ची के मां-बाप ने उसे कई दिनों बाहर नहीं भेजा। लेकिन न कमाने का मलाल उन दोनों के चेहरों पर बना रहा।

चुनाव का मौसम शान्त हुआ तो एक दिन जैसे ही बच्ची अपने काम पर निकली तो एक नई पार्टी से उसका सामना हो गया। उस पार्टी ने उसे प्यार से अपने पास बिठाया। घर का अता-पता पूछा और उसे वापिस घर ले आए। उसके मां-बाप घर पर ही थे। उन्होंने बच्ची का सौदा अपने मोबाईल के विज्ञापन के लिए तय कर दिया। मां-बाप को एक बार ही इतने पैसे मिल गए जितने बच्ची ने आज तक की मेहनत से भी न कमाए थे। इस पर हर महीने पांच हजार और। उन्हें क्या चाहिए था।

अब बच्ची के हाथ में कोई कटोरा नहीं होता। न कोई भगवान होते। न ही मैली फ्राक से उसका बदन ढका रहता। वह बिल्कुल नंगी होती। उसके नंगे बदन पर कम्पनी के नाम और मोबाइल फोन के स्टिक्कर चिपके रहते। वह दिन भर कम्पनी के बताए रास्तों पर चलती रहती। शाम होती तो कम्पनी अपने विज्ञापन उसके बदन से उतार देते और वही पुरानी फ्राक पहनाकर उसे घर भेज देते।

उस मोबाइल कम्पनी ने पहाड़ों के दूर-दराज इलाकों तक पहुंचने की जद्दोजहद में अब भोले-भाले लोगों और उनके बच्चों का पुरजोर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। लेकिन लोगों के पास यह सोचने का समय ही नहीं था कि यह घुसपैठ, बाजार को उनकी बहु-बेटियों के कमरों तक ले जा रही है।


शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

अंतत: पहली किताब आ ही गई है


जिसका मुझे इंतज़ार था वह कार्य अंतत: हो ही गया है।
बोधि प्रकाशन, जयपुर से आने वाली यह किताब आखिर को इन्दौर में मेरे पास आ ही गई है - मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह, जिसका मुझे ही नहीं, बहुत से दोस्तों को भी बेसब्री से इंतज़ार था। इसी संग्रह से एक ग़ज़ल  


किसी न किसी बहाने की बातें
ले    देकर जमाने  की बातें

उसी मोड़ पर गिरे थे हम भी
जहाँ थी सम्भल जाने की बातें


रात अपनी ग़ुज़ार दें ख़्वाबों में 
सुबह फिर वही कमाने की बातें

समझें न  समझें हमारी मर्ज़ी
बड़े   हो कहो सिखाने की बातें

मैं फ़रिश्ता नहीं न होंगी मुझसे
रोकर कभी भी हँसाने की बातें

                            -          प्रदीप कांत