सोमवार, 25 नवंबर 2013

कलम सिर्फ़ बची है हस्ताक्षर के लिये – कमल जीत चौधरी की कविताएँ

कलम सिर्फ़ बची है ह्स्ताक्षर के लिये, कमल जीत चौधरी का लेखन शुरु होता है 2007-08 में, और इन कविताओं में हमारे समय का यह एक भायावह सच सामने आता है कि कम्प्यूटर तकनीक के इस दौर में कलम का काम यांत्रिक रूप से हस्ताक्षर करना ही रह गया है। ये कविताएँ छोटी छोटी है किंतु इनके भाव गम्भीर और बड़े हैं।

तत्सम में इस बार कमल जीत चौधरी की कुछ कविताएँ....  
                                                                                                                                 -प्रदीप कांत
कमल  जीत  चौधरी 
जन्म: १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा (जे & केमें एक विस्थापित जाट परिवार में 
माँ: सुश्री सुदेश, पिता: मेजर (सेवानिवृतरत्न चन्द
शिक्षा: जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक (स्वर्ण पदक प्राप्तऔर एम फिल 

प्रकाशन: संयुक्त संग्रहों  'स्वर एकादश' (स० राज्यवर्द्धनतथा 'तवी जहाँ से गुजरती है' (स० अशोक कुमार)  में  कुछ कविताएँ, नया ज्ञानोदयसृजन सन्दर्भपरस्परअक्षर पर्व,अभिव्यक्तिदस्तकअभियानहिमाचल मित्रलोक गंगाशब्द सरोकारउत्तरप्रदेशदैनिक जागरणअमर उजालाशीराज़ाअनुनादपहली बारबीइंग पोएटसिताब दियारा आदि में प्रकाशित 

सम्प्रति:  उच्च शिक्षा विभागजे & के में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।

सम्पर्क: काली बड़ीसाम्बाजम्मू व कश्मीर १८४१२१
दूरभाष: ०९४१९२७४४०३ई मेल:  kamal.j.choudhary@gmail.com

खेत 

याद आते हैं 
मुझे वे दिन 
जब धान काटते हुए 
थक जाने पर 
शर्त लगा लेता था अपने आप से 
कि पूरा खेत काटने पर ही उठूँगा 
नहीं तो खो दूंगा 
अपनी कोई प्यारी चीज 
मैंने भयवश दम साधकर 
बचायी कितनी ही चीजें  ... 

डर आज भी है 
कुछ चीजें खो देने का 
मन आज भी है 
कुछ पा लेने का
दम आज भी है 
शर्त खेलने का 
कुछ नहीं है तो वे खेत  ...
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किताबें डायरियां और कलम 

किताबें 
बंद होती जा रही हैं 
बिना खिड़कियाँ - रोशनदान 
वाले कमरों में 

डायरियां 
खुली हुई फड़फड़ा रही हैं
बीच चौराहों में 

कलम 
बची है सिर्फ 
हस्ताक्षर के लिए। 
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राजा जी ! राजा जी !

सबको 
एक आँख से
देखने वाले राजा जी !
राजा जी ! 
एक अन्धा
कलम घिसाऊ लेखक 
आपकी फौज में 
भर्ती होना चाहता है 
आप उसकी परीक्षा ले लें 
वह भाले की नोक पर 
कूद नहीं सकता 
उसे कुंद कर सकता है 
वह पेशे से अध्यापक 
हूनर से काव्यगुरू है 
उसके पास बुलन्द ऊँची आवाज़ 
दलित तथा स्त्री विमर्श है 
सोने की कलम से 
वह समाजवादी कविताएँ लिखता है 
वर्णाश्रम में उसकी 
पूरण आस्था है   ... 

राजा जी ! राजा जी ! 
आपको दिल्ली का बास्ता है    
अर्जी स्वीकार करें 
अपनी निर्धारित पोशाक 
उसके लिए तैयार रखें 
वह बाहर खड़ा है 
दरवाज़ा खोलें - ठक ठक ठक ठक। 
****

सम्पूर्णता 

वो मुझे 
खोलता गया 
परत दर परत प्याज की तरह 
मुझे पूरा जानने की उसकी इच्छा ने 
उसकी आँख को दिए आंसू 
हाथ में थमा दिया शून्य।                 

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