शनिवार, 28 मार्च 2015

हमारे समय को लगातार परखती हुई शहंशाह आलम की कविताएँ


शहंशाह आलम हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके कविताई में हमारा समकाल धड़कता है। तत्सम पर इस बार शहंशाह आलम की कुछ कविताएँ, युवा कवि प्रदीप मिश्र की टिप्पणी के साथ....
प्रदीप कांत  
शहंशाह आलम हमारे समय पर लगातार रचनात्मक दस्तक देते हुए, ऐसे कवि हैं, जिनके सामने हिन्दी कविता ने कई करवट बदले हैं। कई दशकों से हम शहंशाह आलम को पढ़ रहे हैं और उनकी कविताओं से अपने समय के धुंध को समझने में मदद ले रहे हैं। उनकी कविताओं एक बेचैनी है, जो मनुष्य को कद्दावर और समर्थ देखना चाहती है। वे कवि के सरोकारों और जिम्मेदारियों को बखूब समझते हैं और कहते हैं - कवि झूठ नहीं बोलता अँगूठा कविता की इस पंक्ति को पर्व में प्रेम है। प्रेम की विश्वसनीयता में यह स्थापना कि कवि झूठ नहीं बोलता है, पाठक के अंदर कविता एक मजबूती का संचार करती है। अगली कविता अन्न में हमारे समय की राजनीतिक चेतना को खंगालते हुए कवि कहता है - हम तो गवाह भर हैं स्वयं के लूटे जाने के क्या यह हमारे समय का कठोर सच नहीं है, सचमुच हम सब गवाह भर हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लोक की सहभागिता को समेटकर गवाह में बदल दिया गया है। शहँशाह आलम की कविताओं में प्रेम बहुत सारे रंगों में बिखरता है, उसकी सारी छवियों को वे दर्ज करते हैं। अपना सबकुछ प्रेम में ही तलाशते हैं जैसे - हम मिलते ऐसे जैसे /कुम्हार से चाक/बढ़ई से रंदा  या फिर - प्रेम के शंख को /अंधे कुएँ में फेंक आने से । अंत मैं उनकी एक पंक्ति जिसे चंद्रकांत देवताले के मुँह से बार-बार सुना हूँ कि - मैं जो एक कवि हूं वनवासी काश कवि के इस स्वप्न की तरह, हम सब वनवासी रहते, प्रकृति के गोद में रमते-जमते खालिस मनुष्य की तरह बचे हुए।
                        
प्रदीप मिश्र
094253 14126
जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार।

शिक्षा : एम. . (हिन्दी)
प्रकाशन : गर दादी की कोई ख़बर आए, अभी शेष है पृथ्वी-राग, अच्छे दिनों में ऊंटनियों का कोरसवितान चार कविता-संग्रह प्रकाशितचर्चित। 'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। 'इस समय की पटकथा' कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। 'बारिश मेरी खिड़की है' बारिश विषयक कविताओं का चयन-संपादन शीघ्र प्रकाश्य। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएं संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह) पर पंजाब विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य।
हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। बातचीत, लेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित।

पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार के अलावे दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।

संप्रति, बिहार विधान परिषद के प्रकाशन विभाग में सहायक हिन्दी प्रकाशन।
संपर्क : नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारी शरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल :  09835417537

1
अँगूठा

उसने अँगूठा दिखाया नज़ाकत से अत्यंत
घर की खिड़की में खड़े होकर

इस बारिश में उसका अँगूठा दिखाना
बहुत मायने रखता है मेरे लिए

उसने अँगूठा प्रेम को दिखाया था मेरे
या मेरी कठिनाइयों को चिढ़ाया था प्रखर
यह अबूझ है पूरी तरह बुरी तरह

धीमी आवाज़ में तितलियाँ भी बोलती हैं कुछ
उसके प्रेम के इस अंदाज़ पर
उसके प्रेम की इस मातृभाषा पर

उसका प्रेम शंख की तरह गूँजता है
जैसे सच गूँजता है एकाग्र
चाक पर आकार ले-लेकर

मैं ठेठ देहाती कहाँ-कहाँ भटकूँ
प्रेम के इस अरण्य में
किस कछुए की पीठ पर सवार होऊँ
किस अन्तरिक्ष किस आकाश में जीऊँ
किस उपग्रह की किस ऊपरी कक्षा में बैठूँ

जबकि प्रेम का बाघ दौड़ता है देह के पूरे जल में
पूरी तरह डूबता सारे पट खोलता
निष्फल को फल में बदलता

लो, प्रेम के बाघ को मैंने भी साधा
लो, मेरा सब कुछ तेरा ही हुआ
इसलिए कि कवि झूठ नहीं बोलता।
2
अन्न

रचे जाने की प्रक्रिया में जहाँ जल है
वहीं अन्न है रचा जा रहा इस संचयन में

मुझे मालूम नहीं इस रचे जाने की आवाज़
चित्र: प्रदीप कान्त 
किस-किस तक पहुँच रही है बिना आहट

इसलिए कि बेआवाज़ जो कुछ भी रचा जा रहा है
सत्ता के गलियारे में मेरे-तुम्हारे लिए
वह कम-अज़-कम अन्न तो नहीं ही है जल है

अभी तो अनंत-अनंत युगों तक
हमारे हिस्से के अन्न की उन्हें ही दरकार है
जो मेरी-तेरी सरकार है

हम तो गवाह भर हैं स्वयं के लूटे जाने के
स्वयं के पीटे जाने के
स्वयं के घसीटे जाने के

स्वयं के गूँगे बना दिए जाने के साक्षी भी हमीं हैं

यही वजह है मैं और तुम अन्न-अन्न बोलना चाहते हैं
जबकि उनका फ़रमान झट देके जाता है
अभी कुछ मत बोलो
अभी कुछ मत सोचो
अभी कुछ मत मांगो|

3
कभी चाँद के सिरहाने


कभी चाँद के सिरहाने
कभी पतंग की छाया में
झील को निहारते

दरिया के किनारे
बारिश के बीच
ढलान पर पीठ से पीठ टिकाए

हम मिलते ऐसे जैसे
कुम्हार से चाक
बढ़ई से रंदा

हम मिलते एकाग्र
एक-दूजे को सुनते-गुनते
एक-दूजे को चुनते-बुनते

आख़िरकार ज़माने ने
इस मुहब्बत को
गुनाह का नाम दिया
और हमारा मिलना-जुलना
एक-दूसरे से जैसे गुम गया

अब आसमान में एक कक्षा थी
जो टूटी हुई थी बुरी तरह

समुंदर में एक कश्ती थी
जो निर्जीव-सी पड़ी थी

शिखर पर एक पेड़ था
जो ठूँठ हुआ जा रहा था

एक घर था परिदृश्य में
जिसमें भय था शिकस्त थी

एक लोक था पृथ्वी पर
जिसमें हमारे अल्फ़ाज़
किसी खंडहर की मानिंद थे

अब तुम्हीं बताओ कबीर
अब तुम्हीं बताओ ग़ालिब
जब कहीं कुछ नहीं था
तब भी तो प्रेम था
एकदम मस्त हाथी-सा
अपने समूचे वजूद के साथ

परंतु वे बाज़ आते कहाँ हैं
परंतु वे मानते कहाँ हैं
प्रेम की हत्या से

प्रेम के शंख को
अंधे कुएँ में फेंक आने से।

4
कोलकाता

जब भी पहुंचा कोलकाता
पूर्व के दिवसों को संचित करता
इस संचय में
मुझे आहट सुनाई दी
कुछ अनूठे-अद्भुत की
कुछ नए इतिहास
कुछ नए मिथक की

मैंने जो देखा
मैंने जो सुना
मैंने जो गुना

इस देखे सुने गुने में
यहां के अपने परिजन थे
यहां के अपने मित्र थे
यहां का अपना मुहावरा था
यहां का महाकाश था
यहां का बीता-अनबीता था

इस बीते-अनबीते में
अपना वर्तमान खंगालता
अपने समय को चाक पर धरता
अपनी धार को नई धार देता
चलता मैं

मैं जो एक कवि हूं वनवासी
मैं जो एक मनुष्य हूं साधारण
मैं जो एक आदमी हूं परिचित
इस अपरिचित-अबूझे समय में

मैं अब जो कोलकाता का हुआ
यहां आकर जनम-जनम का।

5
दाँव

आज उस ठूँठ पेड़ पर बैठी चिड़िया पर
लगाया गया था दाँव शिकारियों द्वारा प्रत्याशित-अप्रत्याशित एकदम व्यग्र

दुर्दिन में ऐसा होते देखा था बारंबार
बर्बर दिनों में ऐसा होते देखा था लगातार

परन्तु अब तो दिन भी अच्छे थे
हमारी रातें भी अच्छी थीं
उनके भाषणों में
उनकी भाषाओं में

अब सूखा था
अब भूखा था

अब अकाल था
अब भयकाल था

अब जो भी था
हर्ष था
सहर्ष था

फिर यह कैसा और कौन-सा दाँव
खेला जा रहा था शिकारियों द्वारा
इस अथाह जलराशि-से आकाश के नीचे

जबकि सायकिल का पंक्चर बनाते फ़हीम चाचा
आज भी पंक्चर बना रहे थे

जबकि चंपा के बाबूजी आज भी चाय बेच रहे थे

कुम्हार कुम्हार ही थे
बढ़ई बढ़ई
कबाड़ी कबाड़ी ही थे
सब्ज़ी वाला सब्ज़ी वाला ही था

फिर उनके भाषणों
उनकी भाषाओं में
हम सबके दिन अच्छे कैसे हो रहे थे

अब समझा अब जाना
अच्छे दिनों के इस दाँव में
इस जाल में
हमें ही फँसाया जा रहा था
हमें ही भरमाया जा रहा था
पूरी चालाकी-चतुराई से।

6
जो मेरी खिड़की पर बरस रही

मैं मुरीद हुआ इस बारिश का
जो मेरी खिड़की पर बरस रही है
झमाझम मीठे संगीत की तरह निरंतर
चंद्रोदय की इस बेला को
नई प्रकाश-आभा में समेटती हुई
मेरी प्रेम-इच्छाओं को अनायास बढ़ाती हुई।