मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

शुक्र है राजा मान गया - हस्तीमल हस्ती की ग़ज़लें

बोरी भर मेहनत पीसूँ 
निकले इक मुट्ठी भर सार

आसान लफ्ज़ों में मज़दूर की मज़दूरी पर ये शेर लिख देने वाले हस्तीमल हस्ती का नाम शायरी के लिये किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हस्तीजी ग़ज़लों को जगजीत सिंह जी गाया है। पिछले दिनो मुम्बई में हस्तीजी से मुलाकात का सौभाग्य मिला तो उनके मिज़ाज़ की सादादिली देखने को मिली।

तत्सम पर इस बार हस्तीजी की कुछ ग़ज़लें...

प्रदीप कान्त
1
काम करेगी उसकी धार
बाकी लोहा है बेकार

कैसे बच सकता था मैं
पीछे ठग थे आगे यार

बोरी भर मेहनत पीसूँ 
निकले इक मुट्ठी भर सार

भूखे को पकवान लगें
चटनी, रोटी, प्याज, अचार

जीवन है इक ऐसी डोर
गाठें जिसमें कई हजार

सारे तुगलक चुन-चुन कर
हमने बना ली है सरकार

शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार

2
सच के हक़ में खड़ा हुआ जाए ।
जुर्म भी है तो ये किया जाए ।

हर मुसाफ़िर में ये शऊर कहाँ,
कब रुका जाए कब चला जाए ।

हर क़दम पर है गुमराही,
किस तरफ़ मेरा काफ़िला जाए ।
 

जन्म: 11 मार्च, 1946, आमेट, जिला- राजसमन्द, राजस्थान

दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
क्या कहें किससे कहें [महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरष्कृत], कुछ और तरह से भी [अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरष्कार से सम्मानित]

सम्पर्क: ज्वेलरी एम्पोरियम,
नेहरू रोड़, सांताक्रूज़ (पूर्व)
मुम्बई - 400 095
मोबाइल: 098205 90040
बात करने से बात बनती है,
कुछ कहा जाए कुछ सुना जाए ।

राह मिल जाए हर मुसाफ़िर को,
मेरी गुमराही काम आ जाए ।

इसकी तह में हैं कितनी आवाजें
ख़ामशी को कभी सुना जाए ।

3
मुहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था

सज़ा मुझको ही मिलती थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था

कोई प्यासा नहीं लौटा वहाँ से
जहाँ दिल था भले दरिया नहीं था

हमारे ही कदम छोटे थे वरना
यहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था

किसे कहता तवज्ज़ो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था

रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था

4
बड़ी गर्दिश में तारे थे, तुम्हारे भी हमारे भी ।
अटल फिर भी इरादे थे
, तुम्हारे भी हमारे भी ।

हमारी ग़लतियों ने उसकी आमद रोक दी वरना
,
शजर पर फल तो आते थे
, तुम्हारे भी हमारे भी ।

हमें ये याद रखना है बसेरा है जहाँ सच का
,
उसी नगरी से नाते थे
, तुम्हारे भी हमारे भी ।

सिरे से भूल बैठे हैं उसे हम दोनों
हस्ती' जी,
क़दम जिसने सँभाले थे
, तुम्हारे भी हमारे भी ।

शहादत माँगता था वक़्त तो हमसे भी
हस्तीजी,
मगर लब पर बहाने थे
, तुम्हारे भी हमारे भी ।

5
चिराग हो के न हो दिल जला के रखते हैं
हम आँधियों में भी तेवर बला के रखते हैं

मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखतें हैं

बस एक ख़ुद से ही अपनी नहीं बनी वरना
ज़माने भर से हमेशा बना के रखतें हैं

हमें पसंद नहीं जंग में भी चालाकी
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं

कहीं ख़ूलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा
बड़े करीने से घर को सजा के रखते हैं

6
कौन है धूप सा छाँव सा कौन है
मेरे अन्दर ये बहरूपिया कौन है

बेरूख़ी से कोई जब मिले सोचिये
द्श्त में पेड् को सींचता कौन है

झूठ की शाख़ फल फूल देती नहीं
सोचना चाहिए सोचता कौन है

आँख भीगी मिले नींद में भी मेरी
मुझमें चुपचाप ये भीगता कौन है

अपने बारे में हस्तीकभी सोचना
अक्स किसके हो तुम आईना कौन है

7
उस जगह सरहदें नहीं होतीं 
जिस जगह नफ़रतें नही होतीं 

उसका साया घना नहीं होता 
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होतीं

बस्तियों में रहें कि जंगल में 
किस जगह उलझनें नहीं होतीं

रास्ते उस तरफ़ भी जाते हैं
जिस तरफ़ मंज़िलें नहीं होतीं

मुँह पे कुछ और पीठ पे कुछ और 
हमसे ये हरकतें नहीं होतीं

रविवार, 19 अप्रैल 2015

दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं - कतील शिफ़ाई की ग़ज़लें

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं
- कतील शिफ़ाई
मन कर रहा था कि क़तील शिफ़ाई की कुछ ग़ज़लें तत्सम पर प्रस्तुत की जाएँ। कतील क़तील शिफ़ाई यानि मुहब्बतों, नज़ाकतों का शायर...

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे


तो तत्सम पर इस बार क़तील शिफ़ाई…, बावजूद इसके कि  आपने उन्हें कई बार सुना, पढ़ा होगा..

. प्रदीप कान्त


1
खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें
 हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें

सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर
यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें

हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
ब-नाम-ए-अज़मत-ए-किरदार आओ सच बोलें

सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है
पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें

तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें

बजा के ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं
कहाँ के हम भी वफ़ा-दार आओ सच बोलें

जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश
अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें

छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के
नज़र है आईना-बरदार आओ सच बोलें

'क़तीलजिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया
किधर गए वो गुनह-गार आओ सच बोलें 

2
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है

यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है

देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है

सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है

बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है

आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है

तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है 

3
वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ  करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा  करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा  करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा  करे

सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला  करे

ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा  करे 

4
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं 
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं 

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद 
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं 

मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ 
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं 

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ 
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं 

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं 

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब 
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं 

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है "क़तील" 
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं 


 (कविता कोश से साभार) 


मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

मैं चश्मदीद गवाह थी अपने समय की हत्या की - किरण अग्रवाल की कविताएँ


मुझे एक वसीयत लिखनी थी आने वाली पीढ़ी के नाम
और छुपा देना था उसे कविता की सतरों के भीतर
मुझे बनानी थी हत्यारों की तस्वीर
और लिख देने थे उनके नाम और पते।

कविता में हत्यारों की तस्वीर बनाने की बात करने वाली ये कविता है कविता की सुपरिचित हस्ताक्षर किरण अग्रवाल की। सिर्फ़ एक अनुरोध पर उन्होने तत्सम के लिये ये कविताएँ उपल्बध करवा दी हैं और अब ये आपके हवाले...
- प्रदीप कान्त 
किरण अग्रवाल
जन्मः 23 अक्टूबर, 1956 को पूसा (बिहार)
शिक्षाः एम ए (अंग्रेजी) वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान
प्रकाशनः गोल-गोल घूमतीएक नाव (कविता संग्रह), रूकावट के लिये खेद है (कविता संग्रह), धूप मेरे भीतर (कविता संग्रह), Turf Beneath the Feet (संजीव के उपन्यासपांव तले की दूबका अंग्रेजी अनुवाद: सह अनुवादक राजीव अग्रवाल), जो इन पन्नों में नहीं है (कहानी संग्रह)|
इसके अतिरिक्त साक्षात्कार, कथाक्रम, कथादेष, हंस, वसुघा, वागर्थ, अन्यथा, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, समयांतर, युद्धरत आम आदमी, पाखी, कादम्बिनी, दैनिक जागरण, जनसत्ता आदि विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कहानी, समीक्षा, संस्मरण/यात्रा संस्मरण, लेख, अनुवाद आदि का प्रकाशन।  कुछ अंग्रेजी की कविताएँ भी प्रकाशित।
कुछ रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू, बंगला, निमाड़ी व पंजाबी में अनुवाद
     
आकाशवाणी के विविध केन्द्रों से कहानी, कविता और वार्ताओं का प्रसारण. दूरदर्शन देहरादून से आज की कविता पर साक्षात्कार व कविताएँ प्रसारित।

विदेश यात्राएँ:  सूडान, मिश्र, यमन, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, स्विटजरलैण्ड    

पुरस्कार:बिगुलअखिल भारतीय सैनिक कहानी प्रतियोगिता, सामयिकीअखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता औरविपाशाअखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में पुरस्कार
     
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन
सम्पर्कः 1/212, फूलबाग, जी बी पंत विश्वविद्यालय, पंतनगर-263145 (उत्तराखंड)
ई-मेल: kiran.agwl@gmail.com, मो.: 9997380924

नेट पर...

नेट पर एक पूरी दुनिया है
हर क्षण रूप बदलती हुई
गति और रोमांच से भरपूर
जाति, धर्म और वर्ण से परे
जिसके भीतर कोई भी प्रविष्ट हो सकता है
निःषंक-निर्भीक-निर्निवाद

नेट पर एक पूरी दुनिया है
और इस दुनिया के एक हिस्से में
बंद है मेरा प्रोफाइल
जिसे खोल सकता है
की बोर्ड पर किसी की अंगुलियों का हल्का सा दबाव मात्र
संसार के किसी भी कोने से
किसी भी समय

नेट पर एक पूरी दुनिया है
इस दुनिया के एक हिस्से में बंद है मेरा प्रोफाइल
इस प्रोफाइल में दर्ज है मेरा नाम
मेरा पता, मेरी उम्र, मेरी योग्यता
मेरी पसन्द-नापसन्द, यात्राएँ, उपलब्धियाँ
मेरे अनुभव, मेरी जरूरतें, मेरा कॉन्टेक्ट नम्बर और ई-मेल आई डी
सब कुछ मौजूद है वहाँ मेरे बारे में
लेकिन मैं कहाँ हूँ वहाँ सोचती हूँ मैं
000

अपने से मिलने

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
और उसे लगा मैं उससे मिलने आयी हूँ

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
और उसने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया

मैं अपने से मिलने गई थी उसके पास
लेकिन वहाँ तो नो इंटरी का बोर्ड लगा था

फिलहाल लौट आयी हूँ मैं वापस
लेकिन जल्दी ही पुनः जाऊँगी उसके पास
                                                               अपने से मिलने
000

कविता के इलाके में

कविता के इलाके में
पुलिस से भाग कर नहीं घुसी थी मैं
वहाँ मेरा मुख्य कार्यालय था
जहाँ बैठकर
जिन्दगी के कुछ महत्वपूर्ण फैसले करने थे मुझे
यह सच है तब मैं हाँफ रही थी
मेरी आँखौं में दहशत थी
पर कोई खून नहीं किया था मैंने
लेकिन मैं चश्मदीद गवाह थी अपने समय की हत्या की
जिसे जिन्दा जला दिया गया था धर्म के नाम पर
मैं पहचानती थी हत्यारों को
और हत्यारे भी पहचान गये थे मुझे
वे जो ढलान पर दौड़ते हुए मेरे पीछे आये थे
वह पुलिस नहीं थी
पुलिस की वर्दी में वही लोग थे वे
जो मुझे पागलों की तरह ढूँढ़ रहे थे
जो मिटा देना चाहते थे हत्याओं के निशान
किसी तरह उन्हें डॉज़ दे
घुस ली थी मैं कविता के इलाके में
और अब एक जलती हुई शहतीर के नीचे खड़ी हाँफ रही थी
जो कभी भी मेरे सिर पर गिर सकती थी
दंगाई मुझे ढूँढ़ते हुए यहाँ तक आ पहुँचे थे
मुझे उनसे पहले ही अपने मुख्य कार्यालय पहुँचना था
और निर्णय लेना था कि किसके पक्ष में थी मैं
मुझे एक वसीयत लिखनी थी आने वाली पीढ़ी के नाम
और छुपा देना था उसे कविता की सतरों के भीतर
मुझे बनानी थी हत्यारों की तस्वीर
और लिख देने थे उनके नाम और पते।
000
हाथ

आज पहली बार अपने हाथों की उभरती नसों पर निगाह पड़ी मेरी
और मैं भयभीत हो गई
ये वे हाथ थे जिन्हें देखकर रश्क होता था मेरी सहपाठिनों को

ये वे हाथ थे जिनपर टिक जाती थीं पुरूषों की निगाहें
ये वे हाथ थे जिन्हें एक बार मेरे जर्मन डॉक्टर ने यकबयक
(जिसके पास मैं चेकअप के लिये जाती थी अक्सर)
अपने हाथों में लेकर कहा था..
Ihr Händesind sehr schön *
और मेरे दिल की धड़कन सहसा बंद हो गई थी
और डॉक्टर घबड़ाकर मेरी नब्ज ढूँढ़ने लगा था

आज पहली बार अपने उन हाथों की उभरती नसों पर निगाह पड़ी मेरी
चित्र: प्रदीप कान्त
और अपने निरर्थक भय पर हंसी आयी
इन हाथों के पास अब सहारा था कलम का
जिसका इस्तेमाल कर सकते थे वे बखूबी खुरपी की तरह
और बंदूक की तरह भी
वे लिख सकते थे इससे प्रेम पत्र
और कर सकते थे हस्ताक्षर शान्ति प्रस्तावों पर
वे एक पूरी दुनिया को बदलने का माद्दा रखते थे




*तुम्हारे हाथ बहुत खूबसूरत हैं