बुधवार, 5 जून 2019

दास कबीरा सी रही शायर की तकदीर – हस्ती जी के दोहे



ग़लती तो मेरी ही है कि समय नहीं निकाल पा रहा हूँ और तत्सम अनियतकालीन पत्रिका जैसा हो गया है| चलिए क्षमा माँग कर मुक्ति प्राप्त करता हूँ और तत्सम पर इस बार सुप्रसिद्ध शायर हस्तीमल हस्ती के दोहे पढ़वाता हूँ| बेहद हँसमुख, विनम्र और सादगी पसंद हस्ती जी का नाम किसी परिचय का मोह्ताज़ नहीं है| उनकी गज़लें तत्सम पर आप पहले ही पढ़ चुके हैं| 

- प्रदीप कान्त

तन बुनता है चदरिया, मन बुनता है पीर
दास कबीरा सी रही, शायर की तकदीर

हमने तो हर काल में, देखा यही विधान
राजा की रंगरेलियाँ, परजा का भुगतान

जोगन हो या नर्तकी, राजा हो या शेख
सबके हाथों में मिली, आँसू वाली रेख

तन से जब जब भी हुए, जीते सारे युद्ध
लेकिन मन के युद्ध में, हारा है हर बुद्ध

पल भर भी झेले नहीं, काँटों के आघात
फिर भी ख़ुशबू चाहिए, कितने भोले हाथ

कोई बनता आम सा, कोई जैसे नीम
बच्चों के इस फर्क का, कारण है तालीम

किसका कैसा कंठ है, किसकी कैसी प्यास
पानी को सबका पता, मालिक हो या दास

कहाँ मुड़े निकले कहाँ, कहाँ करे ठहराव
पानी को भी नहीं पता, ख़ुद अपना स्वभाव

हँसते हँसते निभा गया, पानी सभी स्वरूप
अश्क, पसीना ओस या, मिला नदी का रूप

मीलों लम्बी ज़िन्दगी, बरसों दौड़े दौड़
बाकी सब विस्मृत हुआ, याद रहे कुछ मोड़

समय डाकिया बाँटता, सुख दुःख की नित डाक
कुछ के आँगन गुलमोहर, कुछ के आँगन आक

राजा हो या रंक हो, बनिया हो कि फ़कीर
नाव सभी को एक सा पहुँचाती है तीर

फीकी है हर चाँदनी, फीका हर बंधेज
जो रंगता है रूह को, वो असली रंगरेज

भूख बजाती झाँझरे, प्यास बजाती चंग
यूँ ही मेरे गाँव में, होता है सत्संग

बातें तेरी पेच सी, वादों में है घात
महानगर तुझसे भला, मेरा वो देहात

कितना महंगा हो गया इस युग का इन्साफ
धीरे धीरे हो गया, सारा घर ही साफ