बुधवार, 27 मई 2015

पता चला है कि तुम आदमी हो - अलकनंदा साने की कुछ कविताएँ


मैं कुत्ते से, सूअर से
केंचुए से, सांप से
सबसे डरती हूँ
मैं सबसे ज्यादा तुमसे डरती हूँ
पता चला है कि तुम आदमी हो
और भी बहुत कुछ सुना है तुम्हारे बारे में !!!

अलकनंदा साने ये पंक्तियाँ हमे उस समाज का दर्शन कराती हैं जिसमें हम रह रहे हैं और बावजूद तमाम डर के, रह रहे हैं।  
तत्सम पर इस बार अलकनंदा साने की कुछ कविताएँ....
प्रदीप कान्त

अलकनंदा साने
शिक्षा: दो विषयों में स्नातकोत्तर
उपलब्धियाँ  एवं कार्य
हिंदी - मराठी में समान रूप से लेखन एवं इस क्षेत्र में लगभग 45 वर्षों से सक्रिय, हिंदी मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, रिपोतार्ज, आलेख, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से लिए साक्षात्कार प्रकाशित| प्रसिद्द सामाजिक संस्था एकलव्य की भोपाल से प्रकाशित बालपत्रिका चकमक के लिए, नियमित मराठी से हिंदी अनुवाद| मराठी के नामचीन कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद, साक्षात्कार, अक्षर शिल्पी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित| मराठी के अनेक महत्वपूर्ण मंचों से कविता पाठ| स्वयं के दो मराठी एवं एक हिंदी काव्य संकलन प्रकाशित|
भारतीय स्टेट बैंक, इंदौर  के मुखपत्र आकलन का सम्पादन, पुणे के समकालीन प्रकाशन के लिए, एक निश्चित अवधि हेतु सम्पादन का कार्य|
विकलांग सेवा हेतु राज्य स्तरीय सम्मान प्राप्त|

1
पीठ के बल सतर सोना
पिछले दशक की बात है
अब अनजाने में ही करवट देकर
पीठ कर देती है देह को मुक्त
पैर पर पैर चढ़ाकर सोना कहाँ तो
आदत में शुमार था
अब एक पैर दूसरे को
नकार देता है सिरे से
सिर के नीचे रखा अपना ही हाथ
सहारा देता - सा लगता था
अब हटा लेता है वह आहिस्ता से
अपने-आप को
अब यही चलन हो गया है ,
जीना चाहते हैं सब अकेले-अकेले
अपने में मगन
कोई नहीं उठाना चाहता अब किसी का भार
2
मैं चींटी से डरती हूँ, कहीं काट न ले
मैं तिलचट्टे से डरती हूँ, कहीं घर पर कब्ज़ा न कर ले
मैं छिपकली से डरती हूँ कहीं ...
मैं चूहे से डरती हूँ ...
मैं बिल्ली से डरती हूँ ...
मैं कुत्ते से,सूअर से
केंचुए से, सांप से
सबसे डरती हूँ
मैं सबसे ज्यादा तुमसे डरती हूँ
पता चला है कि तुम आदमी हो
और भी बहुत कुछ सुना है तुम्हारे बारे में !!!
3
'अ' अनार का सीख रही थी
तभी दौड़ते-भागते
'ड' आ पहुंचा डर लेकर
और माँ ने पकड़ा दिया
'स' सुरक्षा का
सुगन्धित फूल की तरह खिल रहा स्त्रीत्व
अपने साथ 'ल' लज्जा का लेकर आया                            
और साथ-साथ चलते रहे 'ड' और 'स' भी
'ड' के साथ कई बार जोड़ना चाहा 'नि' को
निडर बनाने के लिए
पर यह न हो सका
'स' के साथ 'अ' जरूर जुड़ गया
वह भी भूल गई मैं
'ल' लज्जा का भी कहीं गुम हो गया
अब मेरे साथ था
'म' मुक्त का
'ब' बेहिचक का
'ग' गरिमा का
'प' प्रणाम का
सब कुछ नया था
बस पुराना था तो अपने भीतर का
भरपूर स्त्रीत्व
उससे भी निवृत्ति पाकर
मैं चलना चाहती थी
व्यक्ति के 'व'  को साथ लेकर
लेकिन जल्दी ही जान गई
कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है
पर अपने स्त्रीत्व को नहीं
याद दिलाता ही रहता है हर वक्त कोई न कोई
बहत्तर साल की उस नन के मुकाबले
अभी भी युवा हूँ मैं
और कितने ही कमज़र्फ़
घूम रहे हैं मेरे आस-पास भी .
4
माँ की कोख से गुजरकर धरती पर आई
माँ ने कहा-ईश्वर रचता है हमें
न उसने ईश्वर को देखा
और न मैंने
पर माँ की आस्था को मैंने
मान लिया ईश्वर
और तब से लगातार देख रही हूँ मैं
आसमान की ओर
स्याह रातों के सन्नाटे में
माँ ने कहा-ऊपर देखो
तुम्हें दिखे ना दिखे
रोशनी तो होती ही है वहाँ
माँ का विश्वास रोशनी पर
और मेरा माँ पर
मैंने मान ली फिर एक बार
माँ की बात
धीरे-धीरे यह आदत में आ गया
ऊपर देखने का सिलसिला
चलता ही चला गया
ईश्वर मुझसे प्रेम करता था
वह चाहता था
मै उसीकी ओर देखूं बार-बार
वह बीच-बीच में
मुझे सम्मोहित करता रहा
जादू की छड़ी घुमाता रहा
घुमावदार रास्तों से बाहर लाता रहा
मै खुश होती रही
सुस्ताती रही
पहले माँ पर और बाद में
ईश्वर पर रीझती रही
उस पर विश्वास किया
निर्भर होती चली गई
फिर एक दिन
माँ को ले गया  ईश्वर
अब दोनों एक साथ हैं
और मै अब भी
देखती रहती हूँ
जमीन से आकाश की ओर...

रविवार, 17 मई 2015

डाँ राकेश जोशी की ग़ज़लें


तत्सम पर इस बार डाँ राकेश जोशी की ग़ज़लें…
टिप्पणी के लिये युवा ग़ज़लकार रवि कुमार जैन का शुक्रिया

- प्रदीप कान्त

तुम ज़मी पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद

बीच में फासले हैं हर जानिब
फिर ये दीवार क्यों उठाई है

पेशे से अंग्रेजी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ राकेश जोशी के ये दो शेर ही उनके बारे में बताने के लिए काफ़ी हैं। एक निश्छलता, एक जीवटता और एक छोटे बच्चे की तरह हर ऑब्जरवेशन पर प्रश्न करना आपकी ग़ज़लो को अलग कलेवर देती हैं। कुछ शेर ऐसा महसूस करा सकते हैं की शायर ने एक सवाल पेश किया पर जबाब नहीं दिया। पारंपरिक शायरी में ऐसा कम होता हैं। पर लगता हैं ग़ज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए यह जरुरी भी है।

- रवि कुमार जैन
डाँ राकेश जोशी
Dr._Rakesh_Joshi.jpgजन्म: 9 सितम्बर, 1970
 शिक्षा: अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., एम.फ़िल., डी.फ़िल.  
प्रकाशित कृतियाँ: काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में'
अनूदित कृति:  हिंदी से अंग्रेजी “द क्राउड बेअर्स विटनेस” (The Crowd Bears Witness)

विशेष: कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे| मुंबई में ही थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती  में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया| कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई है। छात्र जीवन के दौरान ही साहित्यिक-पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया|

सम्पर्क: डॉ. राकेश जोशी, असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी), राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड

फ़ोन: 08938010850
ईमेल: joshirpg@gmail.com

1
तुमने मेहनत से जो उगाई है
वो फसल आज भी पराई है

बीच में फासले हैं हर जानिब
फिर ये दीवार क्यों उठाई है

हमने ही दोस्ती नहीं तोड़ी
तुमने भी दुश्मनी निभाई है

ख़्वाब टूटे तो हमने अक्सर ही
गीत लिक्खे हैं, नज़्म गाई है

इससे आगे कठिन है मिल पाना
इससे आगे तो बस जुदाई है

दिन तुम्हारे ही नाम पर क्यों हो
रात हमने भी तो बिताई है

जब भी मौसम उदास होता है
धूप फिर से निकल के आई है

2
हम बेक़रार से हैं, हम बेक़रार क्यों हैं
आँखों में क्यों हैं आँसू, राहों में ख़ार क्यों हैं

ये लोग मुफ्त में क्यों, कुछ हमको बांटते हैं
हम सब खड़े हैं लेकिन, बनकर कतार क्यों हैं

हम ये सवाल अक्सर ख़ुद से ही पूछते हैं
हम ख़ुद के भी नहीं हैं, हम उनके यार क्यों हैं

उसने तो आदमी को बख़्शी थी ज़िंदगानी
इन बस्तियों में लेकिन इतने मज़ार क्यों हैं

कोई हमें बताए, अब भी ज़मीन पर हम
आते हैं आसमां से, पर बार-बार क्यों हैं

3
तुम अँधेरों से भर गए शायद
मुझको लगता है मर गए शायद

दूर तक जो नज़र नहीं आते
छुट्टियों में हैं घर गए शायद

ये जो फसलें नहीं हैं खेतों में
लोग इनको भी चर गए शायद

कागजों पर जो घर बनाते थे
उनके पुरखे भी तर गए शायद

क्यों सुबकते हैं पेड़ और जंगल
इनके पत्ते भी झर गए शायद

तुम ज़मीं पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद

उनके काँधे पे बोझ था जो वो
मेरे काँधे पे धर गए शायद

सिर्फ कुछ पत्तियाँ मिलीं हमको
फूल सारे बिख़र गए शायद

4
वैसे तो आराम बहुत है
जीवन में पर काम बहुत है

दुनिया इक बाज़ार बनी है
हरेक चीज़ का दाम बहुत है

मन में भी है घुटन बहुत-सी
सड़कों पर भी जाम बहुत है

मैंने तुमसे प्यार किया है
मुझ पर ये इल्ज़ाम बहुत है

हारेंगे हम नहीं लड़ाई
इतना ही पैग़ाम बहुत है

सूरज का आभारी हूँ मैं
धूप मेरे भी नाम बहुत है