आज हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी यानि सबके प्यारे बापू की जयन्ती है। बापू की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में जो थोड़ा बहुत समझ पाया हूँ वह इस बार तत्सम पर आपके सामने । आपकी प्रतिक्रियाओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहेगा।
न्यूटन का तीसरा नियम है - प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है। विज्ञान के ज़्यादातर नियम आम जीवन में भी लागू होते हैं। इनमें से यह नियम भी एक है। यदि आप किसी को मारने दौड़ोगे तो वह भी लठ्ठ लेकर आपको मारने आऐगा, यह एक सामान्य सी बात है, यानि प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया। किन्तु गाँधी ऐसे शख्स़ थे जिन्होने इस नियम को नकारा। यानि केवल सामने वाला ही क्रिया करता जाऐ, आप विपरीत प्रतिक्रिया मत करिये। अर्थात् हिंसा के जवाब में प्रतिहिंसा नहीं, अहिंसा। होता है ना आश्चर्य, लेकिन तभी तो कहने वालों ने गाँधी को उनके जीवन काल में ही महात्मा बना दिया।
पिछले सालों एक फिल्म आई थी लगे रहो मुन्ना भाई, इसने बापू की गांधीगिरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, लोकप्रिय तो कर दिया था। वैसे तो सही शब्द गाँधीवाद है, गाँधीगिरी नहीं। किन्तु यदि सही ही इस्तेमाल करेंगे तो फिर फिल्म वाले फिल्म वाले कैसे कहलाएंगे? युवा वर्ग इससे खासा प्रभावित होता नज़र आया। भ्रष्ट कर्मचारियों को फूलों के गुच्छे भेंट किये गए।ये ठीक है कि फिल्मों का असर आखिर कितने दिन रहता? धीरे धीरे हम सब भूल गए। किन्तु इसको देखते हुऐ बापू की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करना आवश्यक है। सच बात तो यह है कि बापू भी पहले एक साधारण आदमी ही थे। महात्मा तो उन्हे उनके कर्मों ने साबित किया। और ऐसा भी नहीं है कि अहिंसा की परिकल्पना सबसे पहले बापू ने ही की। यह तो सदियों पुरानी अवधारणा है जो गौतम बुद्ध ने की थी। यही महावीर स्वामी भी मानते थे। अपनी जिद के कारण सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध जीत तो लिया किन्तु उसमें हुई मारकाट और जन हानि को वह बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसका हृदय परिवर्तन हो गया तथा वह अहिंसावादी हो गया। उसने बोद्ध धर्म के प्रचार के द्वारा इसे फैलाया भी। किन्तु अहिंसा के इतने सशक्त उपयोग बापू से पहले शायद ही किसी ने किया हो।
इस बात को समझने के लिये हमें भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास जाना पड़ेगा जहां दो तारिखें बहुत महत्वपूर्ण हैं - २९ मार्च १८५७, जहाँ गरम दर्जे का विरोध होता है और ११ सितम्बर १९०६ जहाँ नरम विरोध की नींव बनती है जब बापू ने पहली बार दक्षिण अफ्रीका में बने खूनी बिल के सामने सर झुकाने से साफ साफ इन्कार कर दिया था। गरम दर्जे का पहला विरोध यानि १८५७ का स्वतन्त्रता संग्राम इसलिये असफल नहीं हुआ था कि उसमें ताकत नहीं थी, वरन् इसलिये असफल हुआ था कि ताकत तो थी पर संघटित नहीं थी। दूसरा, एक सामान्य से सिद्धान्त के तहत लोहे को लोहा काटता है जिसका बापू ने उपयोग नहीं किया। उन्होने तो पत्थर को रस्सी से काटने वाला नियम अपनाया, जैसे पानी खींचते खींचते रस्सी कुँऐ की मुंडेर पर पत्थर को काटने लगती है। ये ठीक है कि इसमें समय लगता है किन्तु शत प्रतिशत एक निश्चित समय बाद पत्थर कटने लगता है। रास्ता लम्बा था किन्तु बापू ने यही किया क्योंकि वे समझ गये थे कि हिंसा के प्रभाव अल्पकालिक होंगे। बापू की महानता इसमें नहीं थी कि उन्होने हिंसा के ख़िलाफ अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया वरन् उनकी महानता इसमें थी कि उन्होने अहिंसा को ही हिंसा के ख़िलाफ सबसे शक्तिशाली हथियार बनाया। सामान्यतया लोगों को मारकाट नहीं पसन्द होती और इस बात को बापू ने सबसे पहले समझा। उन्होने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया तो लोगों ने इसे मारकाट से ज़्यादा सही समझा और वे संघटित हो गये और यही बापू की सबसे बड़ी सफलता थी। संघटन की यही ताकत १८५७ में नहीं मिलती। वहाँ कहीं न कहीं सबके अपने अपने स्वार्थ थे जिसके कारण सबका अपना अपना विरोध शुरू हुआ। शायद यही वजह थी कि इस शुरूआत को गदर का नाम देकर अंग्रेजों ने लगभग ५० सालों तक भारतीय जनता को भरम में रखा जबकि अन्तत: वह स्वतन्त्रता आंदोलन ही था न कि गदर। लेकिन बापू के अहिंसा वाद के आह्वान से जो संघटन पैदा हुआ वह अंग्रेज सरकार को भारी पड़ गया।
बापू के दर्शन में केवल अहिंसा नहीं है, वहाँ सत्य है, सादगी है, स्वदेशी है, प्रकृति की और लौटने की अभिलाषा है और एक और महत्वपूर्ण बात कि जो स्वयं न कर सको औरों को भी न कहो। इस सन्दर्भ में ज़रा बापू की वेशभूषा को भी याद करें। उसके पीछे एक नहीं कई दर्शन थे - पहला कि इस देश के कई गऱीब लोगों के पास कपड़ा नहीं है तो वे अपने तन पर केवल एक धोती पहनते थे। दूसरी, स्वदेशी की धारणा कि यहाँ की कपास मेनचेस्टर चली जाती थी और कपड़े वहाँ से बन कर आते थे। वह नहीं पहनना ताकि स्वदेशी के माध्यम से देशप्रेम की प्रेरणा प्राप्त हो। और तीसरा प्रकृति की और लौटना और स्वस्थ रहना।
शायद बापू के सत्य और अहिंसा के दर्शन को देख कर ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने एक बार कहा था कि आने वाली पीढियां शायद ही यकीन कर पाएं कि हाड मांस का कोई ऐसा पुलता इस धरती पर कभी हुआ था। एक और दिलचस्प बात यह भी है गांधी जयंती के आसपास ही हर बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा होती है। दुनिया के सबसे बड़े सम्मान देने वाली नोबेल समिति को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि दुनिया को सत्य और अहिंसा का बेमिसाल दर्शन देने वाले और इसे अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को वह सम्मानित नहीं कर सकी. नोबेल शांति पुरस्कार के लिए गांधी जी तीन बार नामांकित हुए थे. १९४८ में जब उन्हें यह पुरस्कार मिलना तय था तो उनकी हत्या हो गई और नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता।
कौन नहीं जानता कि दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला के प्रेरणा स्रोत भी बापू ही थें। यहाँ तक कि अफ्रीका का तो संविधान भी गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित ही बनाया गया है। गाँधीवाद के कतिपय समर्थक तो ये आज भी मानते हैं कि आज के तमाम् सवालों का हल भी गाँधीवाद में मिलता है। अब अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा को ही लें। स्कूली छात्राओं के एक प्रश्न के जवाब में कि वे किस महान हस्ती के साथ भोजन करना पसन्द करते तो उन्होने गाँधी का ही नाम लिया। बराक ओबामा के अनुसार उनके आदर्श हैं महात्मा गाँधी, नेल्सन मंडेला एवं अब्राहम लिंकन। इसी से आप बापू के नैतिक मूल्यों की वर्तमान प्रासंगिकता के बारे में सोच सकते हैं। वैसे भी बापू ने जिन नैतिक मूल्यों पर ज़ोर दिया है वे बुद्ध, महावीर और ईसा के नैतिक मूल्यों से अलग नहीं हैं। जैसे इसा भी सूली पर चढ़ते हुए भी कह रहे थे कि हे ईश्वर इन्हे क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहें हैं? और जब बुद्ध और ईसा की प्रासंगिकता पर कोई सवाल नहीं उठता तो फिर गाँधी पर ही प्रासंगिकता का सवाल क्यों? हमें तो उनकी प्रासंगिकता को समझते हुऐ उस तमाम बाज़ारवाद का विरोध करना चाहिये जो बापू का उपयोग करके वस्तु बेचने कि बात करता है। इसका उदाहरण है आज ही नई दुनिया की एक खबर - गाँधी की सादगी और ११ लाख का पेन, इसके अनुसार एक विदेशी कम्पनी गाँधीजी के नाम पर ११ लाख ३९ हज़ार के २४१ सोने के पेन बाज़ार में उतारे हैं जिसे गाँधीजी की २४१ मील लम्बी दांडी यात्रा से जोड़ा गया है। सोचने की बात है जो आदमी तमाम उम्र सादगी से जीता रहा उसका उपयोग निर्मम बाजारवाद कर रहा है और हम ख़ामोश हैं। ऐसे में क्या हमें दुश्यन्त कुमार नहीं याद आने चाहिये -
-प्रदीप कान्त
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न्यूटन का तीसरा नियम है - प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है। विज्ञान के ज़्यादातर नियम आम जीवन में भी लागू होते हैं। इनमें से यह नियम भी एक है। यदि आप किसी को मारने दौड़ोगे तो वह भी लठ्ठ लेकर आपको मारने आऐगा, यह एक सामान्य सी बात है, यानि प्रत्येक क्रिया की विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया। किन्तु गाँधी ऐसे शख्स़ थे जिन्होने इस नियम को नकारा। यानि केवल सामने वाला ही क्रिया करता जाऐ, आप विपरीत प्रतिक्रिया मत करिये। अर्थात् हिंसा के जवाब में प्रतिहिंसा नहीं, अहिंसा। होता है ना आश्चर्य, लेकिन तभी तो कहने वालों ने गाँधी को उनके जीवन काल में ही महात्मा बना दिया।
पिछले सालों एक फिल्म आई थी लगे रहो मुन्ना भाई, इसने बापू की गांधीगिरी को कुछ दिनों के लिए ही सही, लोकप्रिय तो कर दिया था। वैसे तो सही शब्द गाँधीवाद है, गाँधीगिरी नहीं। किन्तु यदि सही ही इस्तेमाल करेंगे तो फिर फिल्म वाले फिल्म वाले कैसे कहलाएंगे? युवा वर्ग इससे खासा प्रभावित होता नज़र आया। भ्रष्ट कर्मचारियों को फूलों के गुच्छे भेंट किये गए।ये ठीक है कि फिल्मों का असर आखिर कितने दिन रहता? धीरे धीरे हम सब भूल गए। किन्तु इसको देखते हुऐ बापू की प्रासंगिकता पर पुनर्विचार करना आवश्यक है। सच बात तो यह है कि बापू भी पहले एक साधारण आदमी ही थे। महात्मा तो उन्हे उनके कर्मों ने साबित किया। और ऐसा भी नहीं है कि अहिंसा की परिकल्पना सबसे पहले बापू ने ही की। यह तो सदियों पुरानी अवधारणा है जो गौतम बुद्ध ने की थी। यही महावीर स्वामी भी मानते थे। अपनी जिद के कारण सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध जीत तो लिया किन्तु उसमें हुई मारकाट और जन हानि को वह बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसका हृदय परिवर्तन हो गया तथा वह अहिंसावादी हो गया। उसने बोद्ध धर्म के प्रचार के द्वारा इसे फैलाया भी। किन्तु अहिंसा के इतने सशक्त उपयोग बापू से पहले शायद ही किसी ने किया हो।
इस बात को समझने के लिये हमें भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास जाना पड़ेगा जहां दो तारिखें बहुत महत्वपूर्ण हैं - २९ मार्च १८५७, जहाँ गरम दर्जे का विरोध होता है और ११ सितम्बर १९०६ जहाँ नरम विरोध की नींव बनती है जब बापू ने पहली बार दक्षिण अफ्रीका में बने खूनी बिल के सामने सर झुकाने से साफ साफ इन्कार कर दिया था। गरम दर्जे का पहला विरोध यानि १८५७ का स्वतन्त्रता संग्राम इसलिये असफल नहीं हुआ था कि उसमें ताकत नहीं थी, वरन् इसलिये असफल हुआ था कि ताकत तो थी पर संघटित नहीं थी। दूसरा, एक सामान्य से सिद्धान्त के तहत लोहे को लोहा काटता है जिसका बापू ने उपयोग नहीं किया। उन्होने तो पत्थर को रस्सी से काटने वाला नियम अपनाया, जैसे पानी खींचते खींचते रस्सी कुँऐ की मुंडेर पर पत्थर को काटने लगती है। ये ठीक है कि इसमें समय लगता है किन्तु शत प्रतिशत एक निश्चित समय बाद पत्थर कटने लगता है। रास्ता लम्बा था किन्तु बापू ने यही किया क्योंकि वे समझ गये थे कि हिंसा के प्रभाव अल्पकालिक होंगे। बापू की महानता इसमें नहीं थी कि उन्होने हिंसा के ख़िलाफ अहिंसा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया वरन् उनकी महानता इसमें थी कि उन्होने अहिंसा को ही हिंसा के ख़िलाफ सबसे शक्तिशाली हथियार बनाया। सामान्यतया लोगों को मारकाट नहीं पसन्द होती और इस बात को बापू ने सबसे पहले समझा। उन्होने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया तो लोगों ने इसे मारकाट से ज़्यादा सही समझा और वे संघटित हो गये और यही बापू की सबसे बड़ी सफलता थी। संघटन की यही ताकत १८५७ में नहीं मिलती। वहाँ कहीं न कहीं सबके अपने अपने स्वार्थ थे जिसके कारण सबका अपना अपना विरोध शुरू हुआ। शायद यही वजह थी कि इस शुरूआत को गदर का नाम देकर अंग्रेजों ने लगभग ५० सालों तक भारतीय जनता को भरम में रखा जबकि अन्तत: वह स्वतन्त्रता आंदोलन ही था न कि गदर। लेकिन बापू के अहिंसा वाद के आह्वान से जो संघटन पैदा हुआ वह अंग्रेज सरकार को भारी पड़ गया।
बापू के दर्शन में केवल अहिंसा नहीं है, वहाँ सत्य है, सादगी है, स्वदेशी है, प्रकृति की और लौटने की अभिलाषा है और एक और महत्वपूर्ण बात कि जो स्वयं न कर सको औरों को भी न कहो। इस सन्दर्भ में ज़रा बापू की वेशभूषा को भी याद करें। उसके पीछे एक नहीं कई दर्शन थे - पहला कि इस देश के कई गऱीब लोगों के पास कपड़ा नहीं है तो वे अपने तन पर केवल एक धोती पहनते थे। दूसरी, स्वदेशी की धारणा कि यहाँ की कपास मेनचेस्टर चली जाती थी और कपड़े वहाँ से बन कर आते थे। वह नहीं पहनना ताकि स्वदेशी के माध्यम से देशप्रेम की प्रेरणा प्राप्त हो। और तीसरा प्रकृति की और लौटना और स्वस्थ रहना।
शायद बापू के सत्य और अहिंसा के दर्शन को देख कर ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने एक बार कहा था कि आने वाली पीढियां शायद ही यकीन कर पाएं कि हाड मांस का कोई ऐसा पुलता इस धरती पर कभी हुआ था। एक और दिलचस्प बात यह भी है गांधी जयंती के आसपास ही हर बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा होती है। दुनिया के सबसे बड़े सम्मान देने वाली नोबेल समिति को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि दुनिया को सत्य और अहिंसा का बेमिसाल दर्शन देने वाले और इसे अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति को वह सम्मानित नहीं कर सकी. नोबेल शांति पुरस्कार के लिए गांधी जी तीन बार नामांकित हुए थे. १९४८ में जब उन्हें यह पुरस्कार मिलना तय था तो उनकी हत्या हो गई और नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता।
कौन नहीं जानता कि दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला के प्रेरणा स्रोत भी बापू ही थें। यहाँ तक कि अफ्रीका का तो संविधान भी गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित ही बनाया गया है। गाँधीवाद के कतिपय समर्थक तो ये आज भी मानते हैं कि आज के तमाम् सवालों का हल भी गाँधीवाद में मिलता है। अब अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा को ही लें। स्कूली छात्राओं के एक प्रश्न के जवाब में कि वे किस महान हस्ती के साथ भोजन करना पसन्द करते तो उन्होने गाँधी का ही नाम लिया। बराक ओबामा के अनुसार उनके आदर्श हैं महात्मा गाँधी, नेल्सन मंडेला एवं अब्राहम लिंकन। इसी से आप बापू के नैतिक मूल्यों की वर्तमान प्रासंगिकता के बारे में सोच सकते हैं। वैसे भी बापू ने जिन नैतिक मूल्यों पर ज़ोर दिया है वे बुद्ध, महावीर और ईसा के नैतिक मूल्यों से अलग नहीं हैं। जैसे इसा भी सूली पर चढ़ते हुए भी कह रहे थे कि हे ईश्वर इन्हे क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहें हैं? और जब बुद्ध और ईसा की प्रासंगिकता पर कोई सवाल नहीं उठता तो फिर गाँधी पर ही प्रासंगिकता का सवाल क्यों? हमें तो उनकी प्रासंगिकता को समझते हुऐ उस तमाम बाज़ारवाद का विरोध करना चाहिये जो बापू का उपयोग करके वस्तु बेचने कि बात करता है। इसका उदाहरण है आज ही नई दुनिया की एक खबर - गाँधी की सादगी और ११ लाख का पेन, इसके अनुसार एक विदेशी कम्पनी गाँधीजी के नाम पर ११ लाख ३९ हज़ार के २४१ सोने के पेन बाज़ार में उतारे हैं जिसे गाँधीजी की २४१ मील लम्बी दांडी यात्रा से जोड़ा गया है। सोचने की बात है जो आदमी तमाम उम्र सादगी से जीता रहा उसका उपयोग निर्मम बाजारवाद कर रहा है और हम ख़ामोश हैं। ऐसे में क्या हमें दुश्यन्त कुमार नहीं याद आने चाहिये -
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलना चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
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इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
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13 टिप्पणियां:
bhai gandhi par meri raay aapse mel nahii khaati
http://naidakhal.blogspot.com/2009/10/blog-post.html
aapne bilkul theek kha hai.gandhiji ne jis trh apne svym ke par saty ke enuthe pryog kiye hai aur geeta ke updesho ko atmsat kiya hai .unki prasngikta par sval uthne hi nahi chhiye .par yha to ramji ko bhi nahi choda .
ha bajar ka virodh hona hi chahiye .
abhar
अशोक भाई,
आपकी बेबाक टिप्पणी अच्छी लगी. और यही सही भी है, हर विषय पर एक सी वैचारिक सहमति होना ज़रूरी भी नहीं. युवा दखल पर आपकी पोस्ट भी देखी. सन्दर्भों सहित एक बेहतरीन अध्ययन और सवाल हैं. मैने इस पोस्ट का लिंक तत्सम के पाठकों को भी भेजा है. किन्तु इसी पोस्ट को पढ़ने के तुरन्त बाद कथादेश का सितम्बर अंक मिला. और संयोग से इसमें हमारे समय के मह्त्वपूर्ण कथाकार प्रकाश कान्त का एक आलेख है - हिन्द स्वराज - एक पुस्तक के सौ साल! शायद आपको अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर वहाँ मिले. पुनश्च्, बेबाक टिप्पणी पर आभार.
शोभना चौरे जी का भी आभार.
pradeep bhai yah ek lambi bahas ka mudda hai.phir bhi apane achchhi pahal ki hai.lekin bahut sari baton se asahmati to banati hi hai.
samay bahut badal gaya hai.
prakash ji ka lekh bhi apaki kai baton ko sire katata hai.
kriya ki prtikriya ko is tarah se vishleshit nahin kiya ja sakata hai. yah bat ham logon ke viprit hi istemal ki ja sakati hai.1857 ki kranti par hamare pas bahut lambi bahasen hai.jinase hame gujarana hoga.
सत्य का प्रयोक्ता कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता।
Aapka lekh vicharotezak hai.
shukria.
aapka TATSAM bahut TATHYAWADI hai aur iska sabut Gandhiji ke art.se milta hai.
आपने सही प्रश्न उठाया है कि गांधी की प्रासंगिकता पर इतने सवाल क्यों? कईं बार जब अनौपचारिक वार्ताओं में दोस्त-यारों के साथ गांधीजी पर चर्चा होती है तो कईं साथी उनके भारतीय स्वतंञता में योगदान पर प्रश्न खड़ा करते हैं. यहां तक की वे सामान्य जनमानस में 'मजबुरी का नाम महात्मा गांधी' तक की संवेदनाविहीन संज्ञाएं तक दी जाती हैं. कईं बार तो गांधी के सिद्धांतों पर वे लोग बहस करते हैं, जिन्होंने गांधी को कभी पढ़ा ही नहीं. बस मुर्गे की एक टांग की जिद पर कायम करते हैं. बहरहाल लेख अच्छा है. बधाई
-प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
गांधीदर्शन मानवीय गरिमा केलिये समर्पित है अत हमेशा प्रासंगिक रहेंगे
आप उनसे असहमत हो सकते है किअहिंसा मानव मुक्ति का मार्ग नही है
कि जीवन में धर्म की कोई अहमियत नही है लेकिन उनसे प्रेरणा लेनेवाले
भी मिलते रहेंगे।
बेहतरीन लेख,साधुवाद
माफी चाहूँगा, आज आपकी रचना पर कोई कमेन्ट नहीं, सिर्फ एक निवेदन करने आया हूँ. आशा है, हालात को समझेंगे. ब्लागिंग को बचाने के लिए कृपया इस मुहिम में सहयोग दें.
क्या ब्लागिंग को बचाने के लिए कानून का सहारा लेना होगा?
गांधीजी महान थे इसमें कोई शक नहीं पर उनके विचारों के माईने सब सही नहीं समझ पाए !!
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलना चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये
अच्छी लगी आपकी गाँधी जी के प्रति ये सद्भावना .......!!
Pradee ji
It is good that you have you written on Gandhi ji . Now Gandhi ji is no more subject fore argument
Gandhi ji can be understand only through the life. those who are not agree with you do not be worry for them . A writter shuld allwage go ahead as per his owne experinces.
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