शनिवार, 26 मई 2012

आशीष दशोत्तर की ग़ज़लें



आशीष दशोत्तर
 जन्म
05 अक्टूबर 1972

शिक्षा
भौतिक शास्त्र व हिन्दी में स्नात्तकोत्तर, एमएलबी, बीएड, बीजेएमसी, स्नातकोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता पर विशेष अध्ययन।

सम्प्रति
आठ साल तक पत्रकारिता के उपरान्त अब शासकीय सेवा में।

संपर्क
39, नागर वास, रतलाम (म.प्र.) 457001

मो: 098270 84966
E-mail: ashish.dashottar@yahoo.com
प्रकाशन
मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा काव्य संग्रह खुशियाँ कैद नहीं होती का प्रकाशन।

एक ग़ज़ल संग्रह लकीरें

नवसाक्षर लेखन के तहत पांच कहानी पुस्तकें प्रकाशित आठ वृत्तचित्रों में संवाद लेखन एवं पाश्र्व स्वर।

पुरस्कार
साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा युवा लेखन के तहत पुरस्कार।
साहित्य अमृत द्वारा युवा व्यंग्य लेखन पुरस्कार।
म.प्र. शासन द्वारा आयोजित अस्पृश्यता निवारणार्थ गीत लेखन स्पर्धा में पुरस्कृत।
साहित्य गौरव पुरस्कार।
किताबघर प्रकाशन के आर्य स्मृति सम्मान के तहत कहानी, संकलन हेतु चयनित एवं प्रकाशित।

लकीरें शीष दशोत्तर का ताजा ग़ज़ल संग्रह है जो बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।  तत्सम में इस बार आशीष दशोत्तर की कुछ ग़ज़लें 

-प्रदीप कांत

1
याद करती है तुझे माँ की बलैय्या आजा
ज़िन्दगी हैं यहाँ इक भूलभुलैय्या आजा

ये चमक झूठ की तुझको नहीं बढ़ने देगी
छोड़ अभियान, अहम और रूपैय्या आजा

सर झुकाने को मुनासिब है यही संगे-दर
यहीं होंगे तेरे अरमान सवैय्या आजा

अपने अहसास की पतवार मुझे तू दे दे
इन दिनों डोल रही है मेरी नैय्या आजा

लोग फिर दामने-अबला के पड़े हैं पीछे
चाहे जिस रूप में आए तू कन्हैय्या आजा

दिल में ग़म इतने हैं जितने कि फलक पे तारे
भर गई अश्क से आशीष तलैय्या आजा

2
सिमटा है सारा मुल्क ही कोठी या कार में
आशीष तो खड़ा हुआ कब से कतार में

बाज़ार दे रहा यहाँ ऑफर नए-नए
ख्वाबों की मंजिलें यहाँ मिलती उधार में

मिलते रहे हैं रोज ही यूँ तो हज़ार लोग
मिलता नहीं है आदमी लेकिन हजार में

पल भर में मंजिलें यहाँ हसरत की चढ़ गए
संभले कहाँ है आदमी अक्सर उतार में।

जिसने ज़मी के वास्ते अपना लहू दिया
गुमनाम कर दिया गया जश्ने बहार में।

छू कर हवा गुज़र गई परछाई आपकी
खुशबू तमाम घुल गई कैसी बयार में

छू कर हवा गुज़र गई परछाई आपकी
खुशबू तमाम घुल गई कैसी बयार में।

जज़्बात को निगल लिया मैसेज ने यहाँ
आती कहाँ है ख्वाहिशें चिठ्ठी या तार में

आशीष क्या क्या अजीब हैं मेरे नगर के लोग
अम्नो-अमा को ढूंढते ख़ंजर की धार में

3
लफ्ज़ आए होठ तक हम बोलने से रह गए
इक अहम रिश्ते को हम यूँ जोड़ने से रह गए

अब शिकारी आ गया बाज़ार के ऑफर लिए
फिर परिन्दे अपने पर को खोलने से रह गए

हर कहीं देखी निगाहें आँसुओं से तरबतर
खुद के आँसू इसलिए हम पोंछने से रह गए

बारिशें तो थीं मग़र बस्ते का भारी बोझ था
किश्तयाँ काग़ज की बच्चे छोड़ने से रह गए

बेरहम दुनिया के जुल्मों की हदें ना पूछिए
शाख पर वे फल बचे जो तोड़ने से रह गए

 

आज फिर देखी किताबे ज़िन्दगी आशीश तो
पृष्ठ कुछ ऐसे मिले जो मोड़ने से रह गए

छायाचित्र: प्रदीप कांत

1 टिप्पणी:

kshama ने कहा…

Kya khoob rachnayen hain! Aprateem!