सोमवार, 23 अगस्त 2010

हरिशंकर परसाई के व्यंग्य

हरिशंकर परसाई

जन्म: 22 अगस्त 1924 को जमानी, होशंगाबाद¸ (मध्य प्रदेश) में

निधन: 10 अगस्त 1995

प्रमुख कृतियाँ: हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल, तिरछी रेखाएँ



व्यंग्य को विधा का दरजा दिलवाने का श्रेय व परसाई जी को ही जाता है। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करतीं¸ बल्कि हमें उन वास्तविकताओं के सामने खड़ा करती है¸ जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाईयाँ, सामाजिक पाखंडों और रूढ़िवाद को विवेक और विज्ञानसम्मत दृष्टि से नकार देने की ताकत उनके व्यंग्यों मे मिल जाती है। तत्सम में इस बार परसाई जी के तीन व्यंग्य जो कहने को बहुत पुराने हैं किंतु निरंतर खोखली होती जा रही हमारी व्यवस्था में आज भी प्रासंगिक हैं।

- प्रदीप कांत

खेती

सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।

दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गयीं। प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गयी। खाद्य विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और अर्थ विभाग को भेज दिया।

अर्थ विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि विभाग भेज दिया गया। कृषि विभाग में उसमें बीज और खाद डाल दिये गये और उसे बिजली विभाग को भेज दिया। बिजली विभाग ने उसमें बिजली लगायी और उसे सिंचाई विभाग को भेज दिया गया।

अब यह फाइल गृह विभाग को भेज दी गयी। गृह विभाग विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी। हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता।

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूड कार्पोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दिया गया कि इसकी फसल काट ली जाए। इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पककर फूड कार्पोरेशन के पास पहुँच गयी।

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा- "हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।"

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया- "अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।"

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया- "इस साल तो संभव नहीं हो सका, पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।" और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर और दे दिया गया।


यस सर

एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गयी। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा- आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया- कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा- मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूं। मकान आपका एलाटहो जाएगा।

मुख्यमंत्री ने चीफ सेक्रेटरी से कह दिया कि अमुक लेखक को मकान एलाटकरा दो।

चीफ सेक्रेटरी ने कहा- यस सर।

चीफ सेक्रेटरी ने कमिश्नर से कह दिया। कमिश्नर ने कहा- यस सर।

कमिश्नर ने कलेक्टर से कहा- अमुक लेखक को मकान एलाटकर दो। कलेक्टर ने कहा- यस सर।

कलेक्टर ने रेंट कंट्रोलर से कह दिया। उसने कहा- यस सर।

रेंट कंट्रोलर ने रेंट इंस्पेक्टर से कह दिया। उसने भी कहा- यस सर

सब बाजाब्ता हुआ। पूरा प्रशासन मकान देने के काम में लग गया। साल डेढ़ साल बाद फिर मुख्यमंत्री से लेखक की भेंट हो गई। मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था। मकान एलाटहोना था।

उन्होंने पूछा- कहिए, अब तो अच्छा मकान मिल गया होगा?

लेखक ने कहा- नहीं मिला।

मुख्यमंत्री ने कहा- अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था।

लेखक ने कहा- जी हां, ऊपर से नीचे तक यस सरहो गया।


संस्कृति

भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था । एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया । वह आदमी बड़ा रंगीन था।

पहले आदमी ने पूछा, "क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते ?

रंगीन आदमी बोला, "ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते । तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ । देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर । हृदय की अधिक महत्ता है ।"

पहला आदमी बोला, "लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है । अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं हो जायेगी !"

रंगीन आदमी हँसा, फिर बोला, "देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी !"

यह कहकर वह उस भूखे के सामने बाँसुरी बजाने लगा । दूसरे ने पूछा, "यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा ?"

रंगीन आदमी बोला, "मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ । तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी ।"

वह फिर बाँसूरी बजाने लगा ।

और तब वह भूखा उठा और बाँसूरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी ।

(गद्य कोश से साभार, छाया: प्रदीप कान्त)


5 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आभार परसाई जी के व्यंग्य पढ़वाने का.

विजय गौड़ ने कहा…

सुंदर चयन है। परसाई जी होते तो दूसरे व्यंग्य- यस सर के संबंध में सुझाव देता कि उसका अंत कुछ ऎसे होना चाहिए-
मुख्यमंत्री ने कहा- अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था।
लेखक ने कहा- जी हां, ऊपर से नीचे तक हर कोई दूसरे ही दिन आगे कहता रहा।
और इस तरह से शीर्षक भी बदल जाता और फ़िर अगला दिन भी हो सकता है।

प्रदीप कांत ने कहा…

इस बार बलराम अग्रवाल जी की निम्न लिखित टिप्पणी मेल से मिली है -

प्रिय भाई
रक्षा-बंधन के पावन-पर्व पर हार्दिक बधाई। टिप्पणी पोस्ट नहीं हो पाई इसलिए मेल द्वारा भेज रहा हूँ।
यद्यपि पूर्व-पठित रचनाएँ हैं तथापि परसाईजी को उनके जन्मदिवस पर याद करने हेतु आप बधाई के पात्र हैं। नि:संदेह परसाईजी हिन्दी व्यंग्य के प्रस्थापक एवं अमिट हस्ताक्षर हैं। आपके छायाचित्रों ने तत्सम को बहुत आकर्षक बनाया हुआ है।

Arun Aditya ने कहा…

इसीलिए तो परसाई जी परसाई जी हैं।

sandhyagupta ने कहा…

पारसी जी की इन रचनाओं की याद ताज़ा कराने के लिए आभार.