रविवार, 13 मार्च 2011

कैलाश गौतम के गीत

जन्म 08-01-1944

निधन: 09-12-2006

प्रकाशन: सीली माचिस की तीलियाँ (कविता संग्रह), जोड़ा ताल (कविता संग्रह), तीन चौथाई आंश (भोजपुरी कविता संग्रह), सिर पर आग (गीत संग्रह), कविता लौट पड़ी

जनवादी सोच और ग्राम्य संस्कृति के वाहक स्व कैलाश गौतम के गीत जनगीतों की श्रेणी में रखे जाते हैं। चाहे किसी भी विषय वस्तु पर हों, सीधी, सहज भाषा के ये गीत बिना किसी अवरोध आम आदमी के मन में उतरते हैं। तत्सम में इस बार स्व कैलाश गौतम के तीन गीत ....

प्रदीप कांत

1

गाँव गया था
गाँव से भागा
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का श्रंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

गाँव गया था
गाँव से भागा।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।

00000

2

घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया

शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया।


त्यौहारों का गला दबाया

बदसूरत महँगाई ने

आँख मिचोली हँसी ठिठोली

छीना है तन्हाई ने

फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया।


शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके

गाँव अभागे दौड़ पड़े

रंगों की परिभाषा पढ़ने

कच्चे धागे दौड़ पड़े

चूसा खून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया।


नींद हमारी खोयी-खोयी

गीत हमारे रूठे हैं

रिश्ते नाते बर्तन जैसे

घर में टूटे-फूटे हैं

आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया।।

00000

3

सिर पर आग

पीठ पर पर्वत

पाँव में जूते काठ के

क्या कहने इस ठाठ के।।


यह तस्वीर

नयी है भाई

आज़ादी के बाद की

जितनी कीमत

खेत की कल थी

उतनी कीमत

खाद की

सब

धोबी के कुत्ते निकले

घर के हुए न घाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


बिना रीढ़ के

लोग हैं शामिल

झूठी जै-जैकार में

गूँगों की

फरियाद खड़ी है

बहरों के दरबार में

खड़े-खड़े

हम रात काटते

खटमल

मालिक खाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


मुखिया

महतो और चौधरी

सब मौसमी दलाल हैं

आज

गाँव के यही महाजन

यही आज खुशहाल हैं

रोज़

भात का रोना रोते

टुकड़े साले टाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।

8 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…

sundar geet hai, padhwane ke liye aabhar.

kshama ने कहा…

गाँव गया था
गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा।
Wah! Kya badhiya tana hai!

प्रदीप मिश्र ने कहा…

कैलाश गौतम भले ही मंचासीन कवियों के नायक थे, लेकिन उनकी कविताई किसी भी गम्भीर कवि के लिए चुनौती है। वे कविता के वाचिक परम्परा और पाठ परम्परा दोनों में समर्थ उपस्थिती दर्ज करते हैं। उनको पढ़ना और ज्यादा मनुष्य होने जौसा है। बधाई

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

kailash gautamji ko unki kviton ke madhym se yaad krne ke liye bhai prdeep ji aapko bdhai

भगीरथ ने कहा…

प्रदीप मिश्र की टिप्पणी से सहमत

rajesh singh kshatri ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!

शिवा ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति .. सुंदर रचना
कभी समय मिले तो http://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .फोलोवर बनकर उत्सावर्धन करें .. धन्यवाद .

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan ने कहा…

कैलाश गौतम जी जम-मन की बात करने वाले सुप्रसिद्ध कवि हैं. गाँव पर केन्द्रित यह गीत अद्वतीय है. आपने उनको प्रस्तुत कर बहुत अच्छा कार्य किया है.