हमें पता ही नहीं चलता कि नीचता
कैसे धीरे-धीरे पुण्य में बदल गई है
और एक दुखी बलात्कृत जलती हुई स्त्री को देखना
एक ऐतिहासिक अवसर में शामिल हो गया है
हम अपराधियों को सम्मान देते हैं
उन्हें चुनते हैं अपना नुमाइंदा
शोषक को करते हैं झुक कर नमस्कार
यह कोरी व्यथा नहीं हैं कि जिस का असर केवल एक आदमी पर हो, यह हमारी व्यवस्था का नाकारापन है जिसमे हमारा समाज भी शामिल है, बेशर्मी से कहिये या मजबूरी से| यह एक कवि की शौकिया अभिव्यक्ति नहीं, वरन उसकी मजबूरी है, उसकी बेचैनी उस से लिखवाती है| सुपरिचित कवि अनिल करमेले की यह कविताएँ हाल ही में पहल में प्रकाशित हुई हैं| इन कविताओं में हमारे समकाल और समाज की विद्रूपताएँ सशक्त तरीके से व्यक्त होती हैं| इन कविताओं में कई पंक्तियाँ बहुत बेचैन करती हैं-
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी
000
तत्सम पर इस बार अनिल करमेले की यही कविताएँ ... 000
एक क्षण याद करते हैं मरने वाले को
उसी वक़्त में याद आते हैं अपने ज़रूरी काम
जलती चिता हो जाती है दिमाग़ से गायब
और सबको शामिल होना ही पड़ता है
जीवन के उसी खेल में
श्मशान में ही बजने लगते हैं मोबाइल
000
000
प्रदीप कान्त
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चिट्ठियाँ
चिट्ठियाँ
नई शताब्दी में हमारे साथ नहीं आईं
हमने चिट्ठियों के बिना ही घिसटते हुए
पार कर लिए इक्कीसवीं सदी के इतने साल
चिट्ठियाँ थीं तो
थोड़े लिखे को बहुत समझकर
पार करते थे हम बीच नदी की तेज़ धार
मुश्किल दिनों में और उदासी और दु:खों में
वे आतीं और गले से लगा कर सँभालतीं
वे हमारे आँसू सोख लेतीं
उनके भीगे शब्दों के बीच झिलमिल चमकता कोई चेहरा
जैसे कोई हाथ सहलाता प्यार से बालों को
कोई हाथ रखता कंधे पर
कोई गले से लगाता यह कह कर
कि ऐसे हौसला नहीं खोते
ऐसी भी कई चिट्ठियाँ रहीं जिनमें लिखा
मेरी प्रिय और सिर्फ तुम्हारा
लेकिन वे चिट्ठियाँ अक्सर अपने ठीक मुकाम तक नहीं पहुँच पाईं
अलबत्ता उनको खूब रस लेकर डूब कर पढ़ा उन्होंने
जिन्हें ऐसी चिट्ठियाँ पढऩे की तमीज़ भी नहीं थी
15 जुलाई 2013 को तार की मृत्यु
हो गई
इसकी सूचना किसी ने चिट्ठी से नहीं दी
चिट्ठियों को मरे हुए तो बरसों बीत गए
000
अच्छे दिनों की उम्मीद
अल्हड़ और मस्ती भरे दिन
दर्ज़ हैं इस डायरी में
इसी में पढऩे का टाइमटेबल
छोटे होटलों, धर्मशालाओं और रिश्तेदारों के पते
प्रेम के दिनों के मुलायम वाक्य
और दुखी दिनों के उदास पैराग्राफ
बरसों इसी डायरी में जगह बनाते रहे
इसी में दर्ज़ हुई लाल स्याही से कई तारीखें
वे निश्चित थीं महत्वपूर्ण साक्षात्कारों के लिए
मगर एक अदद नौकरी तक नहीं पहुँचा पाईं
नब्बे फीसदी लोगों की तरह
मैं भी गलत जगह पर पहुँचा
प्रेम कविताएँ लिखी गईं इसी डायरी में
मगर कभी भी मुकम्मल नहीं हुईं
इसी में शामिल हुए कुछ नए रिश्ते
और असमय मृत्यु को प्राप्त हुए
शायद उन्हें किसी और बेहतर की दरकार थी
इसी में दर्ज़ हुआ
बनियों, दूधवालों और दवाइयों का हिसाब
और दो एक बार सुसाइड नोट के ड्राफ्ट भी लिखे गए इसी में
बुरे-बुरे दिनों में इसी में लिखी गईं कविताएँ
अच्छे दिनों की उम्मीद में
000
उसके आगमन पर
उसने रात के तीसरे पहर
जैसे ही भीतर की कोमल मुलायम और खामोश दुनिया से
बाहर की शोर भरी दुनिया में
डरते-डरते अपने कदम रखे
देखा वहाँ एक गहरी ख़ामोशी थी
और उसके रोने की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं था
भीतर की दुनिया से यह ख़ामोशी
इस मायने में अलहदा थी
कि यहाँ कुछ निरीह कुछ आक्रामक चुप्पियाँ
और हल्की फुसफुसाहटें
बोझिल हवा में तैर रही थीं
वह नीम अँधेरे से जीवन के उजाले की दुनिया में आई
मगर माँ की आँखों में अँधेरा भर गया था
उसने भीतर जिन हाथों से
महसूस की थीं मखमली थपकियाँ
उन्ही हाथों में अब नागफनी उग आई थी
वह जानती थी
पूरा कुनबा कुलदीपक के इन्तज़ार में खड़ा है
वह सुन रही है माँ की कातर कराह
और देख रही है कोने में खड़े उस आदमी को
जिसे देखकर लगता है
वह अंतिम लड़ाई भी हार चुका है
इस आदमी ने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा
कभी किसी जायज़ विरोध में नहीं हुआ खड़ा
कभी अपमान के ख़िलाफ़ होंठ नहीं खोले
कभी किसी के सामने तनकर खड़ा नहीं हो पाया
यह उस आदमी के लिए घोर पीड़ा का समय है
आख़िर यह कुल की इज्ज़त का सवाल है
और उससे भी आगे उसके पौरुष का सवाल है
जो सदियों से उनके कर्मों की बजाय
स्त्रियों के कंधों पर टिका रहा
उसे नहीं चाहिए बेटी
वह चाहता है
अपनी ही तरह का एक और आदमी
000
पुराना खेल
यहाँ आकर ख़त्म हो जाती हैं सारी इच्छाएँ
सारे लोभ और लालच हो जाते हैं तिरोहित
कुछ भी भूला हुआ लेना देना बाकी नहीं रहता
सारे हिसाब बराबर
हो जाता है बंद बहीखाता
कल तक जो लिए सारे फैसले आखिरी
की हुई सारी ग़लतियाँ आखिरी
कल तक जो प्यार किया जो घृणा की
जो भला बुरा किया वह सब अंतिम
अब बस अग्नि जल वायु पृथ्वी और आकाश बचा
कई ज़रूरी काम छोड़कर साथ आए चेहरों के माथों पर
हथौड़े की तरह गिरता है मृत्यु का सत्य
वे अपने अंदर की रंगीन दुनिया में
बेरौनक-बेरंग उदास टहलते हैं
कुछ पूछने पर बुझी-सी आवाज़ में जवाब देते हुए
जैसे यमराज के बुलावे पर अभी इसी वक़्त चल देंगे
सब कुछ छोड़कर खाली हाथ चुपचाप
एक क्षण याद करते हैं मरने वाले को
उसी वक़्त में याद आते हैं अपने ज़रूरी काम
जलती चिता हो जाती है दिमाग़ से गायब
और सबको शामिल होना ही पड़ता है
जीवन के उसी खेल में
श्मशान में ही बजने लगते हैं मोबाइल
000
कविता की शक्ल
कभी किसी कवि को पढ़ते हुए
कवि की चुप्पी से संगत करने लगते हैं शब्द
कभी भीड़ में चलते हुए किसी चेहरे को देख कर
याद आ जाता है कोई दूसरा चेहरा
हर तरफ ढूँढते हैं उसी चेहरे को जो दिखता नहीं
और फिर उदासी से निकलती है कोई कविता
कभी किसी चमकते दिन में
दुनिया के तामझाम से छुट्टी लेकर
जाते हैं तमाम वीरानियों के पास
रास्ते में बिछे पीले फूल कनेर आँखों में समा जाते हैं
और ढल जाते हैं कविता में
एक कविता वहीं से निकलती है
जब ख़त्म हो जाती हैं सारी उम्मीदें
और जीवन खड़ा होता है अंतिम पायदान पर
000
प्रेम के दो बरस
वे ही दो बरस एक तरह जीते हुए
पच्चीस बरस बीत गए
मगर उन छोटे से दो बरसों की
धूप छाया और बारिश संग-साथ चलती रही
मैं जहाँ कहीं रहा
उन छोटे से दो बरसों में
तुमने अंजुली से जो जल पिलाया था
अभी भी छलक उठता है आँखों से
जब कोई मेरी तरह पड़ जाता है प्रेम में
उन छोटे से दो बरसों में
कुछ भी अनोखा नहीं हुआ था
जो इन दिनों आम हो गया है
नहीं दिया गया हमें जहर
हमें पेड़ पर लटका कर नहीं मारा गया
हम किसी न्याय की शरण में नहीं गए
अपने जीवन की रक्षा के लिए
उन छोटे से दो बरसों में
ऐसा भी नहीं कि हमने
प्रेम के गीत गाए हों साथ-साथ
या खायी हों साथ-साथ जीने-मरने की कसमें
पर सच कहूँ तो उन छोटे से दो बरसों ने
मेरे अंधेरे में कई दीप जलाए
मेरी चोटें सहलायीं और खड़ा किया मुझे
सिखाया मनुष्य होने का सलीका
अब जबकि इन पच्चीस बरसों में
बहुत बदल चुकी है दुनिया
और थोड़ा-बहुत मैं भी
इतना कि कभी कहीं मिल जाओ तुम अचानक
किस्सों-कहानियों की तरह
तो दौड़कर नहीं मिल पाऊँगा मैं तुम्हारे गले
और शायद तुम भी
000
राहत
अचानक एक दिन पता चलता है
बची हुई मनुष्यता
अंधे कुएँ में जा गिरी है
आँखों की शर्म दलाली में बदल गई है
मुस्कान एक धारदार छुरे में
और विचारों की पवित्रता
धर्म के धंधे में अवसर तलाश रही है
स्त्री की देह की ख्वाहिश
पवित्र महत्वाकांक्षा में शामिल हो गई है
हम एक सुबह फूलों को देखकर
प्रसन्नता से भर उठते हैं
और ठीक उसी समय पाते हैं कि
नि:शब्द थरथराते आलिंगन
सौदेबाज़ी में बदल गए हैं
हमें पता ही नहीं चलता कि नीचता
कैसे धीरे-धीरे पुण्य में बदल गई है
और एक दुखी बलात्कृत जलती हुई स्त्री को देखना
एक ऐतिहासिक अवसर में शामिल हो गया है
हम अपराधियों को सम्मान देते हैं
उन्हें चुनते हैं अपना नुमाइंदा
शोषक को करते हैं झुक कर नमस्कार
राष्ट्राध्यक्षों और मसखरों के शर्मनाक बयानों पर हँसते हैं
ऊँचे चरित्रों को ऊँचाई से गिरता देखते हैं
और अपनी गिरावट पर राहत महसूस करते हैं
000
बैंडिट क्वीन के देह दृश्य में
यह ढलती हुई सदी की एक चमकीली सुबह थी
बैंडिट क्वीन को पानी लेने कुएँ पर जाना था
आसपास घृणा और बेचैनी से लथपथ
फैला था एक क्रूर सन्नाटा
लंबी काली रातों की लगातार दबोच के बाद
इस सुबह की मरियल सी रोशनी में
उस स्त्री को दिख रही थी
अपने भाई के जीवित बच जाने की उम्मीद
जो कुल हज़ार रूपये के एवज़ में
अपनी आत्मा को लहूलुहान करती
वह बैंडिट क्वीन की छाया
जा रही थी निर्वसन कुएँ पर पानी लाने
वहाँ नहीं था कोई चीर बढ़ाने वाला
मिथकों की तरह बेबस किंपुरूष भी नहीं थे
दृश्य में न दृश्य से बाहर
यह शताब्दी की अनोखी घटना थी
उस स्त्री को सब पहले से पता था
घूम रहे थे कैमरे
दृश्य से बाहर खड़ी वास्तविक नायिका नि:शब्द और अवाक थी
शायद वह सोचती हो कि उसे ही होना था इस दृश्य में
कला की ज़रूरत उस नायिका को थी
लेकिन एक स्त्री की मजबूरी ने
कला की ज़रूरत इस तरह भी पूरी कर दी
लांग शॉट की बारीक कैद में घूमती स्त्री
अंतत: धर ली गई दृश्य के केन्द्र में
और इस तरह हो गई अपनी देह से बाहर
जो दृश्य से बाहर थे
उन्हें रहना था हमेशा सफलता के केन्द में
दृश्य के बीच में रही उस स्त्री का अब कहीं पता नहीं
000
देवताओं को सोने दो
जब बहुत ज़रूरत थी मनुष्यों को देवताओं की
वे निद्रा में थे अपनी आरामगाहों में
कथित नुमाइंदे निर्लज्ज तरीके से लगे हुए थे
अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए
वे वोटिंग मशीनों तक गायों को खींच लाए थे
वे बता रहे थे
हमारे सोने की चिडिय़ा रह चुके देश में
अब बहुत अच्छा समय आ गया है
अब कोई दलित नहीं, कोई ग़रीब नहीं बचा
स्त्रियाँ अभी भी शर्मसार थीं
बच्चे अभी भी फुटपाथों पर, प्लेटफार्म पर,
होटलों में काम करते थे
भ्रूण परीक्षणों में लगे हुए थे धंधेबाज
बेरोज़गारों को गायों को बचाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी
अल्पसंख्यक मारे जा रहे थे
गरीबों और मजलूमों की होली जलाकर
अमीर दिवाली मना रहे थे
देवता सो रहे थे चैन की नींद
देवता सोते ही रहेंगे चैन की नींद
उनके नाम पर किए जा रहे तांडव से
हमें ही बचानी होगी यह दुनिया
हमें बढ़ाना होगा आपसी प्रेम
भूखे पेटों को रोटियाँ देवता नहीं खिला पाएँगे
वे उठेंगे तो उनकी ज़रूरतें
हम कहाँ पूरी कर पाएँगे
उन्हें सोने दो मित्रो
वे कहीं भी रहें
इस पृथ्वी पर उनकी ज़रूरत नहीं रही
000
उपस्थित
जाने से कोई चला नहीं जाता
तुम्हें पता ही नहीं चलता
और वह तुम्हारे साथ रहता है
कभी खुशियां में तुम
अचानक आयी उसकी याद में चुप हो जाते हो
उदासियों में तो वह कई दृश्यों में उपस्थित लगता है
रेल के डिब्बे में, दवाई की दुकान पर, सिनेमा हॉल में
किसी सड़क, किसी मोड, किसी सिग्नल पर
किसी पार्क के पास से गुजऱते हुए
पेन लाइटर पुस्तक फूल पक्षी पेड़ या बारिश को देख कर
किसी चेहरे पीठ हथेली या मुस्कान को देख कर
कभी सन्नाटे में डूबी दोपहर, ठंडे सूर्यास्त
या अचानक टूटी नींद के बाद
वह याद आता है
वह तुम्हारी सभी इंद्रियों में रहता है
तुम्हारी रग-रग में बहता है
और तुम्हें घूँट-घूँट पीता है
किसी दु:ख में एक दिन तुम पाते हो
कि वह धीरज बँधाता हुआ
हड्डियों में पर्याप्त कैल्शियम की तरह
तुम्हारे भीतर मौजूद है
000
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जन्म : 2 मार्च,1965
शिक्षा : वाणिज्य एवं हिन्दी साहित्य में एम.ए.
प्रकाशन :
सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं- पहल, हंस,
ज्ञानोदय, वागार्थ, वसुधा,
कथादेश, जनसत्ता, शुक्रवार,
पब्लिक एजेंडा, आउटलुक, दैनिक
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समीक्षाएँ प्रकाशित.
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पुरस्कार :
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अन्य : प्रगतिशील लेखक संघ से संबद्ध
संप्रति : सीएजी के अंतर्गत वरिष्ठ लेखा परीक्षा अधिकारी.
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