पिता सांताक्लॉज थे
उन्हें भी देना चाहिये कोई उपहार
किसी को सूझा ही नहीं कभी
अब वे नहीं, उनका
झोला भी बन चुका इतिहास
समय की किसी गर्त में दब जीवाश्म बन
चुका हो शायद?
पिता को इस तरह से याद करती यह कविता है आरती तिवारी
की, जिन्होंने पिछले कुछ समय से कविता में अपनी एक पहचान अर्जित की है| आरती की
कविता में यदि पिता है तो लड़कियाँ भी (कंजक)| और समकालीन समाज का तथाकथित डर भी (हमारे
डर)| कुल मिलाकर इन कविताओं की समकालीनता इन्हें पढ़वाती है|
तत्सम पर इस बार आरती तिवारी की कविताएँ...
प्रदीप कान्त
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पिता
सांताक्लॉज थे
होश
सम्हालना किसे कहते हैं
जानने
से पहले ही सम्हलवा दिए थे होश नियति ने
बचपन
को जीने से पहले
प्रौढ़
हुए पिता
कोमल
त्वचा कब सख़्त हुई,
जान ही नहीं पाए
कंचे, गुल्ली
डंडे पतंगबाजी के खेल
कैसे
रोटी कपड़ा मकान हुए
जाने
कब,बन बैठे वो सिरहाना
जिस
पे सिर टिका हर कोई
उतारने
लगा अपनी थकान
दादी
की आँखों में उतर आता था सावन,
अपने
बेटे के बचपन
और
भरी जवानी में उजड़ी अपनी दुनिया की कहानी कहते
समय
के पार जाकर,
कब लगा उनके हाथ अलादीन का चिराग़
भूख
प्यास और नींद से परे
वे
सबकी ज़रूरत थे
उनका
हंसना,शहर को पूर देता था
उजाले
के रेशमी एहसास से थे वे
वे
सबके थे,
आर
के टेलर के तोते से लेकर
मोती
चाचा के पिंकू खरगोश तक
उनके
हाथों में खेले बच्चे
नाप
रहे भूगोल पृथ्वी का
कितने
ही पले उनकी छत तले
उनकी
मुट्ठी भर कमाई में
कानों
कान ख़बर न हुई,
कब
किसका सहारा बने
वे
बाँटते रहे उम्र भर,मुस्कानें,आशीष और उपहार
उनके
कंधे पर टँगा रहता एक झोला
बायें
कंधे पर निशान
उनके
झोले से अपार प्रेम की निशानी ही तो थी
वे
किसी को निराश न करते
सबको
बाँटते ही रहे कोई न कोई उपहार
पिता
सांताक्लॉज थे
उन्हें
भी देना चाहिये कोई उपहार
किसी
को सूझा ही नहीं कभी
अब
वे नहीं,
उनका झोला भी बन चुका इतिहास
समय
की किसी गर्त में दब जीवाश्म बन चुका हो शायद?
000
वक्र
रेखा/तिर्यक रेखा
समानान्तर
रेखाओं के एक छोर से
दूसरे
छोर की दूरी तय करते वक़्त
बिलकुल
सही लग रही थी
हाँ
उन्हें मिलाने वाली सी ही
एक
सेतु की तरह
सरल
रेखाओं ने नहीं जताई कोई प्रतिस्पर्धी इच्छा
कि
तिरछी अटपटी चाल से भी
कभी
चलकर दिखाएँ
मनवायें
लोहा वक्रता का
ज़रूरत
ही नहीं थी
वक्र
होने अथवा दिखने की भी
समनान्तर
चलते भी
जुड़ा
ही हुआ था बहुत कुछ
अनबन
और विचारधारा के टकराव के बावज़ूद
हवा
पानी मिट्टी और आकाश सी सहज रही आईं
पारदर्शी
तरल सरल रेखाएँ
मुग्ध
करती रहीं अन्तस को
बिना
शर्मसार किये तिर्यक रेखा को
000
1
कंजक
बड़े
घरों की बेटियाँ
रेशमी
परिधानों की छटा बिखेर
जा
चुकी हैं मुंह जूठा करके
और
कुछ
और
बच्चियां सिर्फ चख के
चली
गईं
कुम्हलाए, बुझे
चेहरो पर
उत्सव
की गुलाल लिए
सेठों
के बच्चों की उतरन
मटमैले
रंगों के
सीवन
उधड़े कपड़ों में
जो
डोलती हैं दिन भर
इधर
से उधर
ये
मज़दूरों की छोरियाँ
लप
लप खाये जा रही हैं खीर
और
ऐसे कि कोई देख न ले
इनकी
बन आई है इन दिनों
सप्तमी, अष्टमी, नवमी
जीमेंगी
भरपूर
करेंगी
तृप्त पुण्यात्मा सेठानी को
ज्वारों
में खिलती है
एक
हरी किलकारी
इनमें
भी वही है
हाँ
वही तो
शक्तिरूपा
ब्रम्ह्चारिणी
2
कंजक
वे
जो पेट में मसले जाने से
चकमा
देकर बच गईं
गर्भ
में डटी रहीं
पूरी
पक जाने तक
किलकारियाँ
जो
की
गईं नज़रअंदाज
बढ़
गईं बेहया के पौधे सी
दुर्दुराई
जाकर भी
ए, हट,
चल, भग, निकल कहकर
धकियाई
गईं और
लौटीं
बार बार चुनौती सी
आ
गए हैं फिर से
उनके
मौसम
पूजी
जायेंगी आलता कुमकुम
रोली
अक्षत से
लगाएंगी
भोग खीर पूरी के फिर से
000
रंग
मुझे
अच्छा लगा था उसका पक्का रंग
और
उसमें से झाँकती उसकी
धवल
हंसी
उसकी
कत्थई आँखें
और
उनकी सुनहली चमक
उसके
माथे के बीचों-बीच
एक
छोटे वृत्त में पसरा लाल रंग
खूब
फब रहा था
उसके
श्याम वर्ण पे
उसकी
आसमानी धोती पे
बिखरी
नीली छींट देख
मुझे
जंगल में नाचता मोर
याद
आया
उसके
फूटते कैशौर्य से
टपका
पड़ रहा था
सिंदूरी
रंग खिल खिल हंसते
मगर
गुलाबी रंग से
अनजान
जान पड़ती थी
आम
के झाड़ पे
ऊंची
टहनी पे बैठी वो
सब्ज़
पत्तों से बातें करती दिखी जब
मुझे
याद आ गईं
माँ
की गोरी कलाई में खनखनाती
हरे
काँच की चूड़ियाँ
और
आम के मौड़ (मञ्जरी)
ऊँगलियों
के पोरों से
उसे
सहलाते देख
मुझे
विश्वास हो गया
आ
चुका है बसन्त
000
अँधियारा
निरापद
नहीं है
अपने
होने में पूरा है
जैसे
साँस में प्राण
और
जीवन में एक ज़रूरी पड़ाव
आवाहन
करता है सूरज का
और
उसी की प्रतीक्षा में
डटा
रहता है,अपना साम्राज्य फैलाये
तान
देता है एक चादर नींद की
कि
उसके साये में,दुबके रहते हैं
कितने
ही ग़म,आँसू और निराशाएं
दिन
की मथानी में बिलोया दुःख
छाछ
बनके नीचे पड़ा हो जैसे
और
उस पर तैरते हैं मक्खन से सपने
एक
जैविक क्रिया है अँधियारा
कैसे
पायेंगे ?
इसके बिना
जीवन
की खिचड़ी को स्वादिष्ट बनाने को
मक्खन
का सत्व
000
हमारे
डर
घर
से निकलते ही
भीड़
में खो जाने के डर
अच्छे
कपड़ों में
घूरे
जाने के डर
सादे
कपड़ों में
आम
नज़र आने के डर
अव्वल
आने पर
साथियों
की ईर्ष्या के डर
औसत
रहने पर
पिछड़
जाने के डर
प्रेम
की अभिव्यक्ति पर
ठुकराये
जाने के डर
उपभोक्तावाद
के भी अपने डर हैं
ब्रांडेड
माल से ठगे जाने के डर
सस्ते
में घटिया उत्पाद के डर
दस्तावेजों
के नकली पाये जाने के डर
हमारे
छरहरे डर
अब
भीमकाय हो चले हैं
डर
करने लगे है
दबाव
का विस्फ़ोट
बाढ़
और सूखे से
बाज़ार
बैठ जाने का डर
मन्दी
में,बेरोज़गार हो जाने के डर
ज़रूरत
है,एक मसीहा की
बदल
डाले जो दुनिया
बना
दे जन्नत
ऊगा
के खुशियों की फसल
मिल
जाये कोई जादुई चिराग
और
पल भर में,हो जाएँ
सारे
रास्ते आसान
मिट
जाएँ हमारे डर
हम
नही करते कोशिशें
बदलने
की खुद को
और
स्वयं को छलकर
डरते रहते है
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आरती तिवारी
जन्म-08 जनवरी
शिक्षा- बी एस सी एम ए बीएड
प्रकाशन- अक्सर', निकट, कादम्बिनी, अक्षरपर्व, कृतिओर,
जनपथ, कथादेश, जनसत्ता,
यथावत, बया, इंद्रप्रस्थ
भारती, दुनिया इन दिनों, कविता विहान,
आकंठ, आजकल, गंभीर
समाचार, साक्षात्कार, साहित्य सरस्वती,
विश्वगाथा, पंजाब टुडे, समकालीन
कविता खण्ड प्रथम, विभोम स्वर, पुरवाई,
शब्द संयोजन, रविवार, सबलोग,
किस्सा कोताह, विपाशा, बाखली,
माटी, दो आबा, कथाक्रम,
नवयुग, नई दुनिया, दैनिक
भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण,
जनसंदेश, सुबह सवेरे आदि महत्वपूर्ण पत्र
पत्रिकाओं में कविताएँ कहानी आलेख संस्मरण यात्रा वृत्तान्त एवं अनुदित कविताएँ
निरन्तर प्रकाशित
प्रसारण- आकाशवाणी इंदौर से एकल काव्य पाठ कहानी पाठ
एवं काव्य गोष्ठियां वार्ताएं प्रसारित
संपर्क-36 मंगलम विहार किटियानी
मन्दसौर 458001, मध्यप्रदेश
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
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