बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ के गीत

न्म:: ०९ सितम्बर १९७०

शिक्षा: बी कॉम

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योगेन्द्र वर्मा व्योमनवगीत के एक युवा ह्स्ताक्षर हैं। इनके नवगीतों में माँ, बच्चा, बहू, मुनिया सभी आसानी से चले आते हैं। इन नवगीतों में भले आपको शिल्प का कुछ खास नयापन न दिखे किंतु इनकी सरल भाषा ही इनकी खासियत है जिसके कारण ये पाठक को कहीं गहरे तक कचोटने की क्षमता रखते हैं। माँ की उपेक्षा के लिये धूल चढ़ी सरकारी फाइल जैसी है अब माँ जैसा प्रयोग या उपेक्षित होते रिश्तों के लिये मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया जैसा वाक्यांश कवि की इस क्षमता का सीधा सा उदाहरण है। अब तक योगेन्द्र का एक काव्य संग्रह इस कोलाहल में प्रकाशित हो चुका है। तत्सम में इस बार योगेन्द्र के कुछ गीत...

1

कैसी है अब माँ


किसको चिन्ता किस हालत में
कैसी है अब माँ


सूनी आँखों में पलती हैं

धुंधली आशाएँ

हावी होती गईं फ़र्ज़ पर

नित्य व्यस्तताएँ


जैसे खालीपन काग़ज़ का
वैसी है अब माँ


नाप-नापकर अंगुल-अंगुल

जिनको बड़ा किया

डूब गए वे सुविधाओं में

सब कुछ छोड़ दिया


ओढ़े-पहने बस सन्नाटा
ऐसी है अब माँ


फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर

बस पीड़ा भोगी

हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो

हुई अनुपयोगी


धूल चढ़ी सरकारी फाइल
जैसी है अब माँ


2

छोटा बच्चा पूछ रहा है कल के बारे में


छोटा बच्चा पूछ रहा है

कल के बारे में


साज़िश रचकर भाग्य समय ने
कुछ ऐसे बाँटा
कृष्ण-पक्ष है, आँधी भी है
पथ पर सन्नाटा


कौन किसे अब राह दिखाए

इस अँधियारे में


अन्र्तर्ध्यान हुए थाली से
रोटी दाल सभी
कहीं खो गए हैं जीवन के
सुर-लय-ताल सभी


लगता ढूँढ रहे आशाएँ

ज्यों इकतारे में


नई उमंगें नये सृजन भी
कुछ तो बोलेंगे
शनै-शनै आशंकाओं की
पर्तें खोलेंगे


एक नई दुनिया है शायद
मिट्टी गारे में


3

मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया


मुनिया ने पीहर में आना-
जाना छोड़ दिया


ना पहले जैसा अपनापन

ना ही प्यार दिखा

फ़र्ज़ कहीं ना दिखा; दिखा तो

बस अधिकार दिखा


चिट्ठी ने भी माँ का हाल
बताना छोड़ दिया


वृद्ध पिता का बरगद-सा जब

साया नहीं रहा

मिट्ठू ने भी राम-राम तक

मन से नहीं कहा


ममता ने भी भावों को
दुलराना छोड़ दिया


बीते कल को सोच-सोचकर

नयन हुए गीले

कच्चे धागे के बंधन भी

पड़े आज ढीले


चावल ने रोली का साथ
निभाना छोड़ दिया


4

धीरे-धीरे सूख रही है तुलसी आँगन में


सामग्री वाला पन्ना देखें [c]">पन्ना

धीरे-धीरे सूख रही है
तुलसी आँगन में


पछुवा चली शहर से, पहुँची

गाँवों में घर-घर

एक अजब सन्नाटा पसरा

फिर चौपालों पर


मिट्टी से जुड़कर बतियाना
रहा न जन-जन में


स्वांग, रासलीला, नौटंकी,

नट के वो करतब

एक-एक कर हुए गाँव से

आज सभी गायब


कहाँ जा रहे हैं हम, ननुआ
सोच रहा मन में


नये आधुनिक परिवर्तन ने

ऐसा भ्रमित किया

जीन्स टॉप में नई बहू ने

सबको चकित किया


छुटकी भी घूमा करती नित
नूतन फ़ैशन में


5

नई बहू घर में आई है बन्दनवार लगे


नई बहू घर में आई है
बन्दनवार लगे


चीज़ों से जुड़ना बतियाना

पीछे छूट गया

पहली बारिश की बूँदों-सा

सब कुछ नया-नया


कुछ महका-सा कुछ बहका-सा
यह संसार लगे


संकेतों की भाषा नूतन

अर्थ गढ़े पल-पल

मूक-बधिर अँखियाँ भी करतीं

कभी-कभी बेकल


गंध नहाई हवा सुबह की
भी अंगार लगे


परीलोक की किसी कथा-सा

आने वाला कल

ऊबड़-खाबड़ धरा कहीं पर

और कहीं समतल


कोमल मन में आशंकाओं
के अंबार लगे

6 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…

saadi saadi aur sahaj si anubhutiyan hain, achchhe geet hain.

राजेश उत्‍साही ने कहा…

इन गीतों का पढ़ना अच्‍छा लगा।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बेजोड़ और मार्मिक रचनाएँ...प्रशंशा के लिए उपयुक्त शब्द कहाँ से लाऊं?

बलराम अग्रवाल ने कहा…

बहुत अच्छे गीत हैं। नचिकेता और डॉ॰ कुँअर बेचैन की याद दिला दी।

भगीरथ ने कहा…

बहुत अच्छे और मार्मिक गीत हैं

भगीरथ ने कहा…

बहुत अच्छे और मार्मिक गीत हैं