शुक्रवार, 13 मार्च 2015

इस दुनिया को रहने लायक कर मौला - आनन्द कुमार द्विवेदी की ग़ज़लें


ताकत की सत्ता का नियम बना जबसे
उस दिन को मनहूस मुकर्रर कर मौला

ताकत की सत्ता से सारी दुनिया परेशान है। आनन्द कुमार द्विवेदी का ग़ज़लकार भी परेशान है और ऐसा शेर लिख देता है। अब ग़ज़ल महबूबा की ज़ुल्फें नहीं सुलझाती, मुफलिसों, मज़लूमों के हक़ की बात करती है। यहाँ तक कि एक सच्चे स्त्री विमर्श की भी-

आधी आबादी दुश्मन है आधी की
थोड़ा इन मर्दों को काबू कर मौला

तत्सम पर इस बार आनन्द कुमार द्विवेदी...

प्रदीप कान्त  
1
काँप रहे हैं बच्चे थर थर थर मौला
इस दुनिया को रहने लायक कर मौला

जो ताक़त के पलड़े में कुछ हलके हैं
उनको भी करने दे गुज़र-बसर मौला

पहले मज़हब में बाँटा इंसानों को
देख बैठकर अब खूनी मंज़र मौला

आधी आबादी दुश्मन है आधी की
थोड़ा इन मर्दों को काबू कर मौला


 ना तुझसे डरते न तेरी दुनिया से
तू खुद ही अपने बंदों से डर मौला

ताकत की सत्ता का नियम बना जबसे
उस दिन को मनहूस मुकर्रर कर मौला

ऐसा ही इंसान रचा था क्या तूने?
ऊपर मीठा, अंदर भरा ज़हर मौला

आनंद कुमार द्विवेदी

जन्म: 22 नवम्बर 1968, ग्राम कसरावाँ, जिला: रायबरेली, (उत्तर प्रदेश में)

लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक 

२०१३ में ग़ज़ल संग्रह ';फ़ुर्सत में आज'; बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओ और ई-पत्रिकाओं में यदाकदा प्रकाशित।

सम्प्रति: दिल्ली में एक निजी फर्म में मैनेजर
संपर्क : anandkdwivedi@gmail.com

जब जीवन ठगविद्या हो 'आनंद' नहीं
मुझको फिर छोटे बच्चे सा कर मौला

2
दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
वरना तमाम उम्र तो मैं भी सफ़र का था

जब भी मिला कोई न कोई चोट दे गया
बंदा वो यकीनन बड़े पक्के जिगर का था


हमने भी आज तक उसे भरने नहीं दिया
रिश्ता हमारा आपका बस ज़ख्म भर का था

तेरे उसूलतेरे  फैसले,   तेरा  निजाम
मैं किससे उज्र करता, कौन मेरे घर का था

जन्नत में भी कहाँ सुकून मिल सका मुझे
ओहदे पे वहाँ भी, कोई...तेरे असर का था

मंजिल पे पहुँचने की तुझे लाख दुआएं
'आनंद' बस पड़ाव तेरी रहगुज़र का था

3
मुश्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियाँ
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियाँ

'पापा' को कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर,
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़कियाँ


फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियाँ

'उनमें'...किसी मशीन में, इतना ही फर्क है
सूने  में  बड़े  जोर  सेरोती  हैं  लड़कियाँ

टुकड़ों में बांटकर कभीखुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियाँ

फूलों का हार होकभी बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियाँ

'आनंद' अगर अपने तजुर्बे  कि  कहे तो
फौलाद हैंफौलाद ही होती हैं लड़कियाँ

4
इतना तो जाना है हमने सबकी कथा-कहानी से
सबके जीवन में आते हैं कुछ पल राजा-रानी से

जुदा नहीं कर पाती जिनको दुनिया भर की दुश्वारी
अहम जुदा कर देता उनको चुटकी में आसानी से

धरती-अम्बर जैसी दूरी हो पर प्रेम न कम होता
कम होता है प्रेम हमेशा बंधन से मनमानी से

उम्मीदों से सींचा पौधा नाउम्मीदी सह न सका
ऐसे रिश्ते बन जाते हैं अक्सर पावक-पानी से

या तो अपने में ही डूबो या फिर उसके हो जाओ
थोड़ा थोड़ा सबमें रहना, होता है बेइमानी से

मीठा-मीठा गप्प यहाँ है कड़वा-कड़वा थू थू है
परमारथ कह स्वारथ बेचें, सोच-कर्म से वानी से

रहने दो 'आनंद' अकेला, चलने दो तनहा इसको
इसकी आँखें गीली हैं तो,  खुद इसकी नादानी से

चित्र: प्रदीप कान्त 

1 टिप्पणी:

आनंद ने कहा…

शुक्रिया प्रदीप जी, सकारात्मक आलोचना की प्रतीक्षा में हूँ !