रविवार, 17 मई 2015

डाँ राकेश जोशी की ग़ज़लें


तत्सम पर इस बार डाँ राकेश जोशी की ग़ज़लें…
टिप्पणी के लिये युवा ग़ज़लकार रवि कुमार जैन का शुक्रिया

- प्रदीप कान्त

तुम ज़मी पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद

बीच में फासले हैं हर जानिब
फिर ये दीवार क्यों उठाई है

पेशे से अंग्रेजी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ राकेश जोशी के ये दो शेर ही उनके बारे में बताने के लिए काफ़ी हैं। एक निश्छलता, एक जीवटता और एक छोटे बच्चे की तरह हर ऑब्जरवेशन पर प्रश्न करना आपकी ग़ज़लो को अलग कलेवर देती हैं। कुछ शेर ऐसा महसूस करा सकते हैं की शायर ने एक सवाल पेश किया पर जबाब नहीं दिया। पारंपरिक शायरी में ऐसा कम होता हैं। पर लगता हैं ग़ज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए यह जरुरी भी है।

- रवि कुमार जैन
डाँ राकेश जोशी
Dr._Rakesh_Joshi.jpgजन्म: 9 सितम्बर, 1970
 शिक्षा: अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., एम.फ़िल., डी.फ़िल.  
प्रकाशित कृतियाँ: काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में'
अनूदित कृति:  हिंदी से अंग्रेजी “द क्राउड बेअर्स विटनेस” (The Crowd Bears Witness)

विशेष: कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे| मुंबई में ही थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती  में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया| कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई है। छात्र जीवन के दौरान ही साहित्यिक-पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया|

सम्पर्क: डॉ. राकेश जोशी, असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी), राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड

फ़ोन: 08938010850
ईमेल: joshirpg@gmail.com

1
तुमने मेहनत से जो उगाई है
वो फसल आज भी पराई है

बीच में फासले हैं हर जानिब
फिर ये दीवार क्यों उठाई है

हमने ही दोस्ती नहीं तोड़ी
तुमने भी दुश्मनी निभाई है

ख़्वाब टूटे तो हमने अक्सर ही
गीत लिक्खे हैं, नज़्म गाई है

इससे आगे कठिन है मिल पाना
इससे आगे तो बस जुदाई है

दिन तुम्हारे ही नाम पर क्यों हो
रात हमने भी तो बिताई है

जब भी मौसम उदास होता है
धूप फिर से निकल के आई है

2
हम बेक़रार से हैं, हम बेक़रार क्यों हैं
आँखों में क्यों हैं आँसू, राहों में ख़ार क्यों हैं

ये लोग मुफ्त में क्यों, कुछ हमको बांटते हैं
हम सब खड़े हैं लेकिन, बनकर कतार क्यों हैं

हम ये सवाल अक्सर ख़ुद से ही पूछते हैं
हम ख़ुद के भी नहीं हैं, हम उनके यार क्यों हैं

उसने तो आदमी को बख़्शी थी ज़िंदगानी
इन बस्तियों में लेकिन इतने मज़ार क्यों हैं

कोई हमें बताए, अब भी ज़मीन पर हम
आते हैं आसमां से, पर बार-बार क्यों हैं

3
तुम अँधेरों से भर गए शायद
मुझको लगता है मर गए शायद

दूर तक जो नज़र नहीं आते
छुट्टियों में हैं घर गए शायद

ये जो फसलें नहीं हैं खेतों में
लोग इनको भी चर गए शायद

कागजों पर जो घर बनाते थे
उनके पुरखे भी तर गए शायद

क्यों सुबकते हैं पेड़ और जंगल
इनके पत्ते भी झर गए शायद

तुम ज़मीं पर ही चल रहे हो अब
कट तुम्हारे भी पर गए शायद

उनके काँधे पे बोझ था जो वो
मेरे काँधे पे धर गए शायद

सिर्फ कुछ पत्तियाँ मिलीं हमको
फूल सारे बिख़र गए शायद

4
वैसे तो आराम बहुत है
जीवन में पर काम बहुत है

दुनिया इक बाज़ार बनी है
हरेक चीज़ का दाम बहुत है

मन में भी है घुटन बहुत-सी
सड़कों पर भी जाम बहुत है

मैंने तुमसे प्यार किया है
मुझ पर ये इल्ज़ाम बहुत है

हारेंगे हम नहीं लड़ाई
इतना ही पैग़ाम बहुत है

सूरज का आभारी हूँ मैं
धूप मेरे भी नाम बहुत है

4 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

sundar

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर गजले पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

समकालीन हिंदी ग़ज़लें ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
समकालीन हिंदी ग़ज़लें ने कहा…

अरुण चन्द्र रॉय जी, कविता रावत जी,
आपकी टिप्पणी के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी