शनिवार, 28 नवंबर 2009

कोहरे के पार देखने की कोशिश...

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अमेय कान्त










जन्म: १० मार्च १९८३

शिक्षा: एम ई (इलेक्ट्रानिक्स )

प्रकाशन: ज्ञानोदय, साक्षात्कार, परिकथा, कथाचक्र आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित.

किताबें पढना, संगीत आदि में रूचि

सम्प्रति: इंजीनियरिंग कॉलेज में व्याख्याता

सम्पर्क: एल आई जी, मुखर्जी नगर

देवास-455001, (म प्र)

फोनः 07272 228097

मेल­: amey.kant@gmail.com

आज, जब युवा पीढ़ी का केवल एक ध्येय है - किसी तरह भी पैसा कमाने की मशीन बन जाना। सामाजिक सरोकारों से शायद ही कुछ लेना देना हो। स्कूल भी मैनेजर, डॉक्टर, इंजीनियर आदि बनाने की फैकट्री बन गये हैं, नागरिक बनने के संस्कार बिरला ही कोई स्कूल दे रहा हो। ऐसे में यदि युवतम पीढ़ी से कोई कवि मिल जाए तो…, अमेय कान्त युवतम पीढ़ी की ऐसे कवि हैं जिनकी कविताएँ युवा पीढ़ी में बची सामाजिक सरोकारों की चिन्ता के बारे में आश्वस्त करती हैं। अमेय की कविताओं में जहाँ बचपन की स्मृतियाँ हैं वहीं वर्तमान और भविष्य की चिन्ताएँ भी। उनके कविता संसार में संवेदनाओं की गहनता भी दिखाई देती है तो विचारों की गम्भीरता भी। अतीत को सहेजती और कोहरे के पार देखने की कोशिश करती उनकी कविताएँ मन को सीधे सीधे कचोटती हैं।


- प्रदीप कान्त


पन्नों के बीच

पुरानी डायरी खोलता हूँ
और ढेर सारे पीले पत्ते उड़ निकलते हैं
एक गंध आती है हल्की सी
शायद तब पन्नों में दबी रह गयी थी
एक पूरा संसार ज़िन्दा है वहाँ
पन्नों के बीच
कैद से आज़ाद होकर
हवा के साथ फड़फड़ाकर
फैल जाता है सामने
कुछ रिश्ते फिर हरे हो जाते हैं

ठण्ड, गर्मी, बारिश;
सब छुपा दिए थे मैंने
पन्नों के बीच कहीं कहीं पर
फिर नहा लेता हूँ गुनगुनी धूप से
और मिल आता हूँ उस बच्चे से
जो अभी भी खेल रहा है
अपने दोस्तों के साथ
हरे मैदान में
नंगे पाँव
000


पुराने दोस्त से

अगर रख सको
तो बचा कर रखना
अपने भीतर
एक प्लास्टिक की गेंद,
कुछेक अँटियाँ, भँवरी और पतंग
ज़रूरी नही है
पर कोशिश ज़रूर करना
कि रख सको बचाकर
थोड़ासा आसमान ,
जिसमें हम उड़ाया करते थे,
काग़ज़ के हवाई जहाज़
थोड़ी सी मिट्टी,
जिसमें घर बनाया करते थे हम
बारिश के बाद
मैं जानता हूँ इन दिनों, बहुत मुश्किल हो चला है
ऐंसी चीज़ें बचाकर रखना
फिर भी चाहता हूँ कि अगली बार जब तुम मिलो,
तो दौड़ूँ तुम्हारे साथ
तालाब की पाल तक
और ढूँढ निकालूँ
वो रंग बिरंगे काँच के टुकड़े
जो हमने छुपाए थे
उस पेड़ के नीचे
मिट्टी में कहीं
000


मैं, तुम और रामप्रसाद

इस अंधी यात्रा में
तुम हो,
मैं भी हूँ,
और उधर पीछे कहीं रामप्रसाद भी है
हम नही जानते, कहाँ जा रहे हैं,
पर खुश हो रहे हैं
तुम बाज़ार में खड़े होते हो,
दुकानदारों के बीच घिरे
इधर मैं भी शोरगुल के बीच।
रामप्रसाद भी है उधर कहीं,
घिरा हुआ, विस्मित!
हमें खरीदना ही है कुछ न कुछ,
और खुश भी होना है
हम हो भी रहे हैं
रामप्रसाद भी
एक दिन हम दोनों खो देंगे अपनी जमा पूँजी
अपनी साख, अपनी पहचान,
अपना नाम भी
मैं, मैं नहीं रहूँगा
तुम, तुम नहीं
रामप्रसाद भी नहीं रहेगा, रामप्रसाद
पता नहीं क्या बुलाएँ हम उसे!
वह हमें भी जाने क्या बुलाए!
पर यह सब होगा
और हम सब देखते रहेंगे
क्या करें, इस कोहरे के पार
न मैं देख पा रहा हूँ,
न तुम,
और न रामप्रसाद
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5 टिप्‍पणियां:

अजेय ने कहा…

बचा कर रखी जाने वाली कविताएं हैं.
आज कौन लिख रहा है दिल से निकलने वाली ये कविताएं.....
सुन्दर!

बलराम अग्रवाल ने कहा…

दिल को छू लेने वाली रचनाएँ। बधाई।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

दिल को छू रही हैं सब कविताएँ .........

SUMIT JAIN ने कहा…

this is wonderful.............

shama ने कहा…

Sundar rachna sansaar hai...kewal ek binati hai...ek saath itnee naa den!
Ise anytha na len...sujhaw matr hai!