सोमवार, 15 अप्रैल 2013

नईम को देखे बहुत दिन हो गए



  
नईम ने अपनी कलम से नवगीतों की एक अलग और सहज सी भाषा और कबीराना मुहावरा गढ़ा। हालांकि नईम अपने काष्ठ शिल्प के लिये भी जाने जाते रहे किंतु नवगीत कहो तो नईम याद आते हैं और नईम कहो तो नवगीत....। 

बाद की पीढ़ी के नवगीतकारों में जिन लोगों ने यह काम किया है उनमें एक नाम यश मालवीय का है। अप्रेल में ही (1 अप्रेल 1935) नईम का जन्म होता है और दुर्भाग्यवश निधन भी अप्रेल में ही (9 अप्रल 2009)। तत्सम में इस बार नईम को नईमाना अन्दाज़ में ही याद करता यश मालवीय का एक नवगीत....

-          प्रदीप कांत
हिन्दी गीत यात्रा की कड़ी में नईम एक ऐसा नाम है, जिनको संदर्भ में लेते ही हिन्दी गीत की परम्परा बहुत ही समृद्ध हो जाती है। आठ पहर का दाझड़ा....लिख सकूं को प्यार लिखना चाहता हूँ......चिट्ठी-पत्री ख़तो-किताबत के मौसम.... और इस तरह की न जाने कितनी पंक्तियाँ नईम के फकीराना अंदाज में हासिल होतीं हैं। इस हासिल में एक तरह का जीवन विवेक है, जो मनुष्य और मानवीय मूल्यों को संरक्षित करता है। समकालीन हिन्दी कविता के मुहावरों तथा कथ्यों को गीत में प्राप्त करना कठिन है। जबकि नईम के गीतों में इन दोनों की उपस्थिती इतनी प्रवणता के साथ है कि गीत और कविता की सीमाओं का सृजनात्मक अतिक्रमण महसूस ही नहीं होता। यहाँ पर नवगीत आंदोलन और उसकी स्थापनाओं का सही पहचान इनके रचना संसार में उपस्थित है। इस तरह से भविष्य को गीतकारों के लिए नईम जहाँ एक सृजनशील कैनवास उपलब्ध करते हैं वहीं आलोचकों को नई दृष्टि भी देते हैं। नईम हमारे हृदय में एक बीज की तरह से पड़े थे और अब बरगद की तरह से उपस्थित हैं। अपने समय की त्रासद धूप में जब हम लस्त-पस्त हो जाते हैं तो इस बरगद की छाँव में उनके गीतों की पंक्तियों के ठिये पर बैठकर सुस्ताते हैं। फिर निकल पड़ते हैं जीवन की पगडण्डियों पर। जीवन की पगडण्डियों पर चलने का शऊर नईम के रचना संसार में सहज सुलभ है। वे हमारे बीच हमेशा बने रहेंगे। 
- प्रदीप मिश्र
दिव्यांश 72ए सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, इन्दौर - 452009, म.प्र
मो- 919425314126

नईम को देखे बहुत दिन हो गए

नईम को देखे बहुत दिन हो गए

वो जुलाहे सा कहीं कुछ बुन रहा होगा 
लकड़ियों का बोलना भी सुन रहा होगा 
ख़त पुराने 
मानकर पढ़ता नए

ज़रा सा कवि ज़रा बढ़ई ज़रा धोबी 
उसे जाना और जाना गीत को भी 
साध थी कोई 
सधी साधू भए 

बदल जाना मालवा का सालता होगा 
दर्द का पंछी जतन से पालता होगा 
घोंसलों में 
रख रहा होगा बए
स्वर वही गन्धर्व वाला कांपता होगा 
टेगरी को चकित नयनों नापता होगा 
याद आते हैं 
बहुत से वाक़िए

ज़िन्दगी ओढ़ी बिछाई और गाया 
जी अगर उचटा इलाहाबाद आया 
हो गए कहकहे 
जो थे मर्सिए।

- नईम

(चित्र: गुगल सर्च से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...