सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

उठ-उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए... - निदा फ़ाज़ली

आज निदा फाज़ली नहीं रहे, श्रद्धा सुमन के साथ उनका एक आलेख http://www.bbc.com/hindi/entertainment/story/2007/09/printable/070908_column_nida.shtml (BBCHindi) से साभार

प्रदीप कान्त

मैं पहले बम्बई में खार-डाँडा में रहता था, वन बेड रूम हॉल का फ़्लैट था.
समय के साथ किताबें बढ़ने लगीं तो घर छोटा पड़ने लगा, हर जगह किताबें ही किताबें, आने-जाने वाले मेहमानों के उठने-बैठने में तक्लीफ़ होने लगी तो सोचा, थोड़ा बड़ा मकान ले लूँ जिसमें पुस्तकों की तादाद के लिए भी स्थान हो और आने-जाने वाले भी परेशान न हों. बम्बई में घरों को बनाने वाली एक सरकारी संस्था है. उसे महाडा कहते हैं. वह घर बनाती है, और घर बनाकर अख़बारों में विज्ञापन छपवाती है.

सरकार से घर लेने में थोड़ी सी आसानी होती है. बेचने-खरीदने के एजेंट्स नहीं होते. रजिस्ट्रेशन का झंझट नहीं होता. वह रक़म भर दो और एक ही कागज़ लेकर मकान अपना कर लो. मैं ने भी अर्जी डाली...अर्जी डालने पर एक फार्म मिला, जिसे भरकर, क़ीमत के चेक के साथ कार्यालय में जमा करना था. इस फार्म को भरने लगा तो इसमें लिखी एक शर्त को देखकर मैं ठिठक गया. शर्त थी मकान उसी को मिलेगा, जिसके नाम पहले से कोई मकान न हो. मेरे नाम खार-डाँडा का मकान था. जब तक पहला मकान बिक नहीं जाता दूसरा हाथ नहीं आएगा...क़ानून, क़ानून है उसका पालन करना ज़रूरी था. मगर इस क़ानून-पालन में काफ़ी समय लग गया.

इंसान और भगवान
इस उलझन को सुलझाने लगा तो इंसान और भगवान का अंतर साफ़ नज़र आने लगा. इंसान एक घर होते हुए दूसरा घर नहीं ले सकता...मगर भगवान हर देश में, हर नगर में एक साथ कई-कई घरों का मालिक बन सकता है. इंसान एक ही नाम के सहारे पूरे जीवन बिता देता है, मगर वह एक ही वजूद के कई नाम के साथ भी किसी क़ानून की गिरफ्त में नहीं आता.

अंग्रेज़ी भाषी देशों में उसे गॉड कहते हैं, अरबी भाषी क्षेत्रों में उसे अल्लाह पुकारते हैं, फारसी बोलने वाले उसे ख़ुदा के नाम से जानते हैं हिंदी भाषी उसे ईश्वर के शब्द से पहचानते हैं. इन चंद नामों के अलावा भी छोटी-बड़ी संस्कृतियों और इलाकों में उसे और भी कई अलंकारों से याद किया जाता है.

इंसान को एक घर बेचकर ही दूसरा घर लेना पड़ता है मगर भगवान एक साथ कई-कई घरों का मालिक होता है. निदा फ़ाज़ली की तरह उसे कई किताबें पढ़ने की मजबूरी नहीं होती. वह जहाँ जिस घर में होता है सिर्फ़ एक ही किताब उसके साथ होती है-चर्च में बाइबिल, मस्जिद में कुरान, गुरूद्वारे में गुरूग्रंथ साहब, राममंदिर में रामायण-इसी लिए उसके मिलने-जुलने वालों को बैठने-उठने में जगह की कमी का एहसास नहीं होता...हर कमान उसका, आलीशान होता है, लीडरों के निवास स्थानों से भी बड़ा...इन बहुत से घरों में एक ही लंबाई-चौड़ाई को देखर बम्बई में एक छोटी सी खोली में रहने वाले बच्चे के आश्चर्य को मैंने एक दोहा में यूँ अभिव्यक्त किया था.

बच्चा बोला देख कर, मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान

दोहा लिखने के बाद मुझे लगा, बच्चा वाकई नादान था. उसकी नादानी ने मुझे भी अनजान बना दिया था. मैं बच्चों की आखों में हैरत देखकर भूल गया था कि ईश्वर के पास आने वालों की संख्या ज़्यादा होती है. किसी को धंधे में कामयाबी चाहिए. किसी को घर में हँसता-खेलता बच्चा चाहिए, किसी फ़िल्म निर्माता को फ़िल्म की सफलता चाहिए. सबको कुछ न कुछ चाहिए. इसलिए सबके लिए बड़े घर की आवश्यकता होती है.

बहुत से ऐसे काम जिन्हें वह ख़ुद करता है, और जिसका जिम्मेदार भी वह ख़ुद है. उनके लिए भी वह ख़ुदा का ही दरवाज़ा खटखटाता है. और वक़्त बेवक़्त उसे सताता है. चोर भी चोरी करने से पहले उसी को आवाज़ लगाता है.

डेनियल डिफो के मतानुसार, "जहाँ भी ख़ुदा अपना घर बनाता है उसी का पैदा किया हुआ शैतान भी वहीं करीब ही अपना छप्पर उठाता है." शैतान के पुजारियों की गिनती ईश्वर के उपासकों से हमेशा अधिक होती है. उसकी अपनी जगह जब छोटी पड़ती है, तो वह ख़ुदा के आँगनों में घुस आता है. ख़ुदा शांति प्रिय होता है. शैतान की इस हटधर्मी से टकराने के बजाए वह ख़ामोशी से अपना स्थान छोड़ कर किसी और जगह चल जाता है. सवाल उठता है, ख़ुदा के हाथ में तो सब कुछ है वह शैतान को ख़त्म क्यों नहीं कर देता? जवाब है ऐसा करने में उसके संसार की रंगीनी भी समाप्त हो जाएगी. रामायण से रावण को निकाल देने से, और आदम-हव्वा की कथा से शैतान को अलग कर देने से, इन पावन ग्रंथों की पूर्णता में अपूर्णता झाँकने लगेगी, डॉक्टर इक़बाल ने अपनी एक कविता में इस ओर इशारा भी किया है- इस में शैतान इंसान से कहता है,

गर कभी खिलवत (तन्हाई) मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
किस्स-ए-आदम को रंगीं कर गया किसका लहू

बाइबिल और कुरान में आदम को जन्नत से निकाले जाने की वजह शैतान को ही करार दिया गया है. पिछले कई सालों से, शैतान, जिसके नाम भाषा और ठिये उतने ही हैं जितने ख़ुदा के हैं. कुछ ज़्यादा ही फैलने लगा है. कहीं-कहीं तो उसके आतंक से, स्वयं ख़ुदा भी, जो बच्चों की मुस्कुराहट सा सुंदर है, माओं के चेहरों की जगमगहट सा आकर्षक है, गीता, कुरान, बाइबिल आदि की सजावट सा हसीन है, ग़मगीन और असुरक्षित जान पड़ता है. दो साल पहले दिल्ली के डीसीएम के मुशायरे में मैंने एक शेर पढ़ा था जो इसी ग़मग़ीनी की तरफ इसारा करता है,

उठ-उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया

कट्टरपंथियों ने इस शेर पर विवाद खड़ा कर दिया था. लेकिन इस हक़ीकत से इंकार करना मुश्किल है कि वह अयोध्या हो, पंजाब में गोल्डन टेम्पल हो या आज के पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में लाल मस्जिद हो, ख़ुदा, राम या वाहगुरू कहीं भी महफूज नज़र नहीं आता.वह स्वयं अब अपनी हिफाज़त से दुखी दिखाई देता है.

लेकिन ख़ुदा सबकी ज़रूरत है. वह मुहब्बत की तरह खूबसूरत है. शैतान से भगवान को बचाने के लिए सूफी-संतों ने एक रास्ता सुझाया था और उन्होंने ख़ुदा को ईंट-पत्थरों के मकानों से निकालकर अपने दिलों में बसाया था. महात्मा बुद्ध के कई सौ साल बाद एक भिक्षु एक बर्फीली रात को जंगल में था, उसे दूर थोड़ी सी रौशनी दिखाई दी, उसने वहाँ जाकर दस्तक दी, आश्रम का द्वार खुला, भिक्षु को अंदर लिया गया और आश्रम का सेवक उसके लिए भोजन तैयार करने चला गया. जब भोजन लेकर वह वापस आया तो उसे यह देख कर गुस्सा आया, बुद्ध की काठ की मूर्ति जल रही है और भिक्षु उस पर हाथ ताप रहा है, सेवक ने क्रोध से कहा यह क्या अधर्म है, भिक्षु ने उत्तर में कहा, "मेरे अंदर जीवित महात्मा को सर्दी लग रही थी, इसलिए लकड़ी की प्रतिमा को आग बना दिया."

इंसान में भगवान का सम्मान ही संत की पहचान है. और जब ख़ुदा दिल में मिल जाता है तो दिल्ली के सूफी निजामुद्दीन का कौल याद आता है,

एक मुद्दत तक मैंने काबा (मक्का का पावन स्थल) का तवाफ़ (चक्कर) किया मगर अब काबा मेरा तवाफ़ करता है.

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