इस अंतहीन दौड़ में
आदमी दौड़ता तो है पर ट्रेडमिल की तरह ही कहीं पहुँचता नहीं!
जीवन को आहिस्ता-आहिस्ता मशीन में बदलती इस दौड़ में आदमी कब शामिल
हो जाता है जान ही नहीं पाता!
तत्सम पर इस बार अंजू शर्मा की
कहानी - मन से मन की दूरी...
प्रदीप कान्त
जिस दिन से वह कार्ड आया है
दुनिया बदल गई है विनय की! नहीं मतलब दुनिया तो अब भी वही है
नाइन टू सिक्स के चक्रव्यूह में अभिमन्यु सा फंसा विनय बस दौड़ता ही रहता है!
घर से दफ़्तर, दफ़्तर में केबिन से बॉस के केबिन
में, मीटिंग्स में बनी नई नई नीतियों-रणनीतियों, तय किये जाते नए-नए टारगेट्स, उन्हें पाने के लिए
हुई फिर और फिर-फिर मीटिंग दर मीटिंग बस भाग ही तो रहा है विनय! इस अंतहीन दौड़ में आदमी दौड़ता तो है पर ट्रेडमिल की तरह ही कहीं पहुँचता
नहीं! जीवन को आहिस्ता-आहिस्ता मशीन में बदलती इस दौड़
में आदमी कब शामिल हो जाता है जान ही नहीं पाता!
उस दिन ऑफिस से लौटा तो वह
शादी का कार्ड टेबल पर पड़ा था! न बच्चों
की कोई रूचि थी इन दूर की रिश्तेदारियों में और न ही अपर्णा ने कोई नोटिस लिया!
रूचि लेते भी कैसे बरसों पहले ही, केवल अपने
सर्कल में सिमटकर रह गया विनय का जीवन! माँ-पिताजी के
जाने के बाद वह सूक्ष्म तंतु जो विनय को परिवार से बांधे हुए था, वही टूट गया तो रिश्तेदारियां कब तक इकतरफा निभाए जाने का इंतजार करतीं!
उसके ब्याह के बाद मौसी के फोन आते रहे! अपर्णा ने कई बार कहा कि
चलो, अलवर घूम आयें पर विनय ने हर बार अनसुना कर दिया!
धीरे-धीरे ये सम्पर्क सूत्र भी औपचारिकता भर को रहकर लगभग टूट गया!
लेकिन इस कार्ड ने जैसे सेंध
लगा दी है उसकी इस कसी हुई दिनचर्या में! कहीं कोई तार ढीला पड़ा नहीं कि लगा जैसे जलतरंग लहरा उठा! दिल के किसी
कोने में एक मीठी सी याद ने अंगड़ाई ली तो इस उम्र में भी विनय के मन में एक पहचानी
सी हिलोर उठने लगी! रीढ़ में अनचीन्ही सी सिहरन हुई तो
जैसे झनझना उठा तनबदन! यादों की ट्रेन उस रात फिर रुकी
नहीं, अब भी चल रही है पर अब
उसकी दिशा विपरीत है!
स्मृतियों ने जैसे दो चमकती हुई
आँखें पा ली हों! ये आँखें लगी स्मृतियाँ अब लौट रही थीं उन पीछे छूट गये गलियारों
में! और मन, वह तो उन
गलियों के धुंधलके में दिये की लौ की मानिंद लहरा रहा था! घिर गया है विनय राजस्थान की लू भरी आंधियों सी यादों में जो अब ठहर रही
हैं, कुछ स्थिर हुआ तो सब स्पष्ट नजर आने लगा! बाहर तेज बारिश हो रही थी और उस भीगती बरसती रात में बिस्तर पर करवटें बदलते हुए, नोस्टाल्जिया की उस झील
में डूबते उतराते विनय कब गाँव पहुँच गया जान ही नहीं पाया!
नंदा मौसी,
माँ की ममेरी बहन, बहन कम सहेली ज्यादा! और
मौसा जी भी पिताजी के घर-कुनबे और गाँव के रिश्ते से भाई थे तो इस डबल रिश्ते ने
उनके जीवन में जो जगह ली उसने विनय के जीवन को दो माँओं के स्नेह और मिठास से भर
दिया था जो नंदा मौसी आजीवन लुटाती रहीं हैं! कालान्तर
में उनके अलवर बस जाने से भी नेह की ये डोर कच्ची न पड़ सकी! आखिर अलवर दूर ही
कितना था फिर उनका गाँव आना जाना लगा ही रहता था!
“दूरियां मन के बीच ना होणी चइए रे वीनू!
इतनी तो कभी ना कि उन्हें उलांघ न पावैं! छुट्टियों में आ जइयो मेरे
पास!” उसकी शिकायत पर उसके आंसुओं से तरबतर चेहरे को
चूमते हुए कहा था मौसी ने और अपनी साड़ी के पल्लू से उसका चेहरा पोंछते हुए उसे खुद
से सटा लिया था!
फिर एक दिन माँ चली गईं! महज दो
दिन के ताप ने उससे माँ को कैसे छीन लिया विनय कभी नहीं समझ पाया! माँ के बिना
जीना जैसे सीखता उनका वीनू! एकांत के ऐसे बवंडर में घिरा कि जी घबराने लगा उसका!
बस गाँव के उस घर से मन उचट गया था विनय का! अलवर में रहने जाने में
कितना बहाना शामिल था और कितनी जरूरत विनय कभी इस हिसाब-किताब में नहीं पड़ा!
यूँ जाने को तो सुबह एक ट्रेन
जाती थी अलवर, जिसे अद्धा बोलते थे क्योंकि वह आधे घंटे
में अलवर पहुँचा देती थी! बाकी लड़कों की तरह वह डेली
अपडाउन भी कर सकता था पर उसे लगने लगा था यहाँ रहा तो अवसाद की इस परत के नीचे एक
दिन उसका दम घुट जाएगा! जानते तो पिताजी भी थे तभी तो उन्होंने ख़ामोशी से उसके
फैसले पर मुहर लगा दी! पिताजी को भी यूँ घुलते हुए नहीं देख सकता था विनय!
उसने अलवर में ही एक कमरा ले लिया था!
नंदा मौसी कितना नाराज़ हुई थीं
पर विनय जिस एकांत की तलाश में गाँव से यहाँ आया था उसे सीने से लगाये रहने की आदत
हो गई थी उसे! अपने दर्द को एक बार जीभर जीने के लिए एकांत बेहद जरूरी था! जिस
दर्द को दबाये हुआ था विनय गांव में, यहाँ
तनिक एकांत पाते ही वह मेंढ तोड़कर बह निकला!
“जाणू हूँ मैं, रोजीना
आने-जाने में तेरा टेम खराब होता है पर इतवार को तो आ सके है तू कि तेरा दीदा अब
अलवर में लगे है!” खीजकर कई बार बोले पिताजी पर माँ के
बिना वह घर जैसे सायं-सायं करता!
जब तक गाँव में रहा,
शाम को छत पर पढ़ते हुए मोरों को दाना डालता विनय अक्सर माँ को याद
कर भावुक हो जाता! माँ की लगाई ‘तुलसां
जी’ जैसे उसके मन को प्रतिबिम्बित करती हुई अपनी हरियाली को
खोने लगी थी! बारने में लगी मेहँदी की बाड़ अलबत्ता
खरपतवार-सी चारों ओर बढ़ रही थी बिल्कुल वैसे ही जैसे विनय के मन का खालीपन दिनोदिन
बढ़ रहा था!
वह उस एक रात में ही कितना बड़ा
और परिपक्व हो गया था जिस रात ने उसे इस भरे संसार में अकेले होने का दंश दे दिया!
जैसे माँ के साथ उसका सारा बचपना, उसका सारा
खिलंदडपन भी विदा हो गया था! कहाँ तो माँ कह-कहकर थक
जाती थी कि ‘वीनू, सुधर जा...” पर विनय था कितना अव्यवस्थित, कितना लापरवाह,
कितना मनमौजी कि सुधरता ही नहीं था! कभी कोई चीज गुम हो जाती तो कभी
कोई! कैसे न होती! माँ के कहे अनुसार कभी कोई चीज
ढंग-सिर रखता तो मिलती न समय पर!
गाँव के उस घर में पहली मंजिल
पर एक छोटा सा भंडारघर था, एक बैठक और एक मेहमानों का कमरा जो हमेशा
बंद ही रहता था! बैठक सदा पिताजी के दोस्तों या मिलने
जुलनेवालों से आबाद रहती और भंडारघर पर ताला लगा रहता! बुआओं के ब्याह में कोठियार
यहीं बनता था!
ऊपर की मंजिल पर एक बड़ा सा कमरा
था जो उसका और माँ का साझा हुआ करता था! इसी कमरे में एक दीवार पर बने आलों में माँ के बासन धरे रहते और दीवार में
बनी अलमारी में बाकी डिब्बे आदि जमे थे! एक कोने में
मिट्टी तेल से जलने वाला माँ का “इस्टोप” भी रखा था पर माँ को चूल्हे पर रसोई करना पसंद था जो सामने के खुले चौक के
एक साइड में बना था! माँ खाना बनातीं और विनय वहीँ पटरा डालकर बैठ जाता!
इसी के बराबर में एक अन्य कमरा
था जो पहले पिताजी प्रयोग करते थे पर जब से विनय समझदार हुआ पिताजी जैसे बैठक में
ही शिफ्ट हो गये थे! इस दूसरे कमरे में धीरे-धीरे विनय
समाता चला गया! दसवीं में आया तो पिताजी ने उसी कमरे
में बाकायदा एक टेबल कुर्सी और लैंप की व्यवस्था जमा दी थी! कितनी खुश हुईं माँ उस
दिन! उनके शांत चेहरे पर थिरकती संतोष की रेखाएं आज भी नहीं भूला विनय!
माँ को न रहे कितने दिन बीत गये
थे पर विनय माँ के न रहने की आदत नहीं डाल पा रहा था!
घर भी तो शिद्दत से माँ को याद करता था! विनय कभी भूलकर अचार की तलब में खाली मर्तबान में हाथ डाल देता तो कभी
बाहर से प्यासा घर में घुसता तो मटके के परिंडे पर से लोटा गायब मिलता! कमीज के
टूटे बटन, उधड़ी सीवनें, धूल खाती
अलमारी और रसोई से आये दिन गायब रहता कोई न कोई सामान माँ कितनी तरह से अपनी याद
दिलाती, विनय उदासी से उबर ही नहीं पाता!
विनय के कमरे के आगे ही एक चौड़ा
सा खुला छज्जा था जिस पर जाने के लिए एक खिड़कीनुमा द्वार बना था!
इसके दोनों सिरों पर ओट थी! वहीं एक
कोने में बैठकर, ओट की टेक लगाकर वह पढ़ाई करता और बराबर में
बैठे पिताजी अख़बार पढ़ते हुए भी गली के अवागमन का जायजा लेते थे! इसी छज्जे के अंतिम सिरे पर, ओट में माँ राख से बासन
मांजती थी जिन दिनों पानी कम आता!
पड़ोस का बूली अपनी ऊँटगाड़ी लेकर
निकलता तो खुले छज्जे से बेसाख्ता पुकारता, ‘ताsssssई’! फिर अपनी पुकार पर खुद ही संजीदा हो आगे
बढ़ जाता! उसका मिट्टी का ऊँट लहराता हुआ हाथ हवा में रह जाता!
“ताई, अठे कोणी बावले!”
न कुछ पिताजी बोलते न विनय बस उन दोनों के मन में यही गूंजता जब उस
खुले छज्जे पर बैठे वे दोनों खाली आँखों से दूर जाती बूली की ऊँटगाड़ी को तब तक
निहारते जब तक वह गली के मुहाने से मुड़कर आँख से ओझल न हो जाती! पिताजी का अख़बार और विनय की किताब दोनों अनमने हो उठते!
माँ से ऊँट-हाथी-गुड़िया सजवाने
अकेला बूली ही नहीं आता था और भी बच्चे थे गाँव के जो ताई-ताई बोलते उनके पीछे लगे
रहते! माँ के गोटा-पट्टी और शीशे से सजाये
ऊँट-हाथी मानो मुँह से बोलते और गुड़िया तो इतनी सुंदर बनाती माँ कि पड़ोस की
लड़कियाँ नाच उठतीं! माँ की अनुपस्थिति में भी उनकी
उपस्थिति का अहसास घर पर छाया रहता! घर का कोना-कोना माँ की सुघड़ता और कलाप्रेम का
साक्षी था! कितनी गुणी और सुघड़ थीं माँ! माँ के काढ़े मेजपोश, क्रोशिये से बने थालपोश, तरह-तरह की कलाकृतियों से
सजा था ये घर! पढ़ते समय धानी-चना चुगलते हुए माँ के
लुगदी से बनाये और बेलबूटों से सजे सुंदर से बर्तन को सहलाते हुए एकाएक भावुक हो
उठता विनय लगता जैसे माँ को स्पर्श कर रहा हो!
उनका असमय चले जाना विनय को
तबाह कर रहा था! जानता था विनय माँ की याद एक ऐसा
कांटा है जो गड़ा रहेगा उसके सीने में! उसे उखाड़कर
फेंकने की बजाये वक़्त-बेवक्त उसे सहलाकर दर्द को ताज़ा कर देने का यह कैसा सुख था
कि विनय से छूटता ही नहीं था! अलबत्ता गाँव जरूर छूट गया!
कॉलेज का वो पहला ही साल था!
अलवर आये काफी दिन बीत चले थे! फर्स्ट ईयर के एग्जाम के बाद अकेलापन सताने लगा,
उस पर मौसी के तकाजे तो सन्डे को मौसी के यहाँ चला गया! उसे देखकर
हैरत में पड़ गया था! कहीं बाहर मिलती तो शायद ही पहचान
पाता! कद अच्छा खासा निकल आया था! रंग कितना निखर गया था और नाक नक्शा कुछ इस तरह उभर आया था कि सीधे विनय
के सीने में हलचल करता उतर गया! उससे डेढ़-दो बरस बड़ी,
बचपन की नाक पोंछती वो फ्रॉक वाली बातूनी श्रुति की छवि इस स्मार्ट
और मॉडर्न श्रुति के सामने आते ही नेपथ्य में चली गई थी! उसकी जगह इस नयी
लावण्यमयी मितभाषी श्रुति ने ले ली थी जिसने अब शरमाना भी सीख लिया था!
विनय को एकाएक याद आने लगा,
गाँव की डंडा-बगीची को जो रास्ता खारे कुंए की बगल से गुज़रकर जाता,
वहाँ हर शाम तायलों की हवेली के सामने मंजुला जीजी के साथ खड़ी
श्रुति उसे मिलती! वे सब मिलकर बगीची जाते! श्रुति को
झड़बेरी बहुत पसंद थी और जीजी को आम! सर्दी-गर्मियों की छुट्टियों की वो शामें इसी
सब में बीत जाती बाकी कभी सरकंडों के तो कभी इमली की चिया के पासे बनाकर
चक्कन-अष्टा भी खेलते वे लोग! हारने पर कितना शोर
मचाती थी श्रुति! उसकी साइकिल की सीट पर जाने कितनी
बार बैठकर उसने रामसा पीर से मीठी कुईं तक चक्कर खाये होंगे! फिर कुछ साल वह नहीं
आई तो विनय की बाल स्मृतियों की एल्बम से उसके चित्र कुछ धूमिल से होते चले गये!
‘ये वीनू है न आंटी?” वीनू को औचक आया देख उसी ने पूछा था!
बताया तो था मौसी ने कि बचपन
में पास के गाँव से उनके घर रहने आने वाली उनकी सहेली की बेटी श्रुति अब हॉस्टल
चली गई थी! होस्टल की आबो-हवा खूब रास आई थी श्रुति को! खिलकर आया था उसका पूरा व्यक्तित्व कि उसके चुम्बकीय आकर्षण को नज़रंदाज़
नहीं कर पाया विनय! नजर ही नहीं हटती थी विनय की! उसके मन की दरारों पर इस इकतरफ़ा,
पहले प्रेम ने जैसे कोई शीतल लेप लगा दिया हो! बदल रहा था विनय!
बीए फाइनल की परीक्षा देकर वह
यहाँ अलवर घूमने आई थी और उन दिनों विनय को जैसे कोई अदृश्य डोर बार-बार खींचते
हुए मौसी के घर ले जाती! मौसी उसे देखकर सुखद आश्चर्य से भर
जातीं! फिर एक दिन मौसाजी ने दीपांकर भाई के साथ जाकर
उसका हिसाब किया और कमरा खाली करवा उसे घर ले आये! हैरत
में था विनय कि शुरुआती नानुकर के बाद कैसे वह चुपचाप मौसाजी के साथ चला आया!
नहीं जानता विनय कि उसके लिए वह
प्रेम था या महज आकर्षण या विनय की ही नजर का धोखा कि वह भी उसकी उपस्थिति से
कुमुदिनी की तरह खिल जाती प्रतीत होती! वे
लोग मिलकर सीढ़ियों पर बनी उस खास जगह पर जो तपती लू से भरी गर्मियों में भी ठंडी
रहती, बैठकर घंटों ताश खेलते या फिर कैरमबोर्ड की बाज़ी जमती!
उसे देखते हुए विनय लाख सावधानी बरतता पर उसकी चोरी अक्सर पकड़ी जाती! श्रुति के
चेहरे पर सदा बनी रहने वाली स्मित मुस्कान की लकीरें कुछ और गहरी हो जातीं और विनय
झेंपकर नज़र झुका लेता और मुँह में धानी चने चिगलने लगता! दीपांकर भाई, मंजुला जीजी, छुटकी, वह और
श्रुति, शाम को जब कभी वे सब कंपनी बाग़ घूमने जाते श्रुति और
मंजुला जीजी साथ-साथ घूमती और वह बस उन्हें अपलक निहारा करता!
वह जान ही नहीं पा रहा था कि ये
क्या है जो उसके मन के हर घाव पर मरहम सा लगाकर उसे एक अनदेखी सी शीतलता से भिगो
रहा है! उसके रेगिस्तान से सूखते जीवन में
प्रेम कुछ ऐसे बरस रहा था कि पता ही नहीं चला मन की बंजर जमीन में प्रेम का बिरवा
कब साँस लेने लगा! उसने सुना था मृत्यु जीवन से
शक्तिशाली है पर प्रेम मृत्यु से भी अधिक ताकत रखता है!
उस एक महीने में वह कभी किसी को
नहीं कह पाया कि श्रुति ने उसकी बेरंग, उदास
दुनिया को कितने इन्द्रधनुषी रंगों से भर दिया था! श्रुति
को भी नहीं! तब भी नहीं मौसी के कहने पर उसके साथ चूड़सिद्ध के मेले में गया था!
मन्नत का धागा बांधते हुए श्रुति ने उसकी ओर जिस दृष्टि से देखा उस मौन में उसे
प्रेम के अतिरिक्त कोई आवाज़ सुनाई न दी! वहाँ कल-कल बहते पानी में अटखेलियाँ करती
श्रुति ने डगमगाते हुए अनायास ही कसकर पकड़ लिया था विनय का हाथ! उस पकड़ में कोई सहजता रही होती तो विनय उसे नजरंदाज़ कर देता लेकिन स्पर्श
की स्नेहिलता और श्रुति की खिलखिलाहट दोनों ने जैसे सम्मोहित कर दिया विनय को!
उसका मन किया था कि समय यूँ इसी पड़ाव पर थम जाये सदा के लिए! पर लौटना भी जरूरी था और वे लौटे भी!
फिर एक शाम गोपाल टाकिज में
पिक्चर देखने गए थे सब! वे पाँचों! सब कितना सुहावना था!
लौटते ही उसने मौसी को श्रुति की मम्मी से बातें करते सुना! श्रुति को अपने घर की बहू बनाने का मौसी का सपना अब पूरा होने जा रहा था!
और वह, वह तो जड़वत हो गया था जैसे! मौसी के इस
सपने से वह पूरी तरह अनभिज्ञ था पर श्रुति? पता नहीं वह
कितना जानती थी! श्रुति के भावहीन चेहरे पर ऐसा कुछ नहीं था कि विनय भी कुछ साहस
जुटा पाता! शायद कर्तव्यबोध प्रेम पर भारी पड़ गया!
इस दुनियादारी के पलड़े में प्रेम ही सदा क्यों हल्का बैठता है,
नहीं समझ पाया वह! पर यदि श्रुति के
चेहरे पर कुछ होता भी तो क्या कर सकता था उन परिस्थितियों में विनय! दीपांकर भाई और श्रुति को एक साथ रखकर देखता तो मन हाहाकार कर उठता!
उस रात भूख न लगने का बहाना
बनाकर वह छत पर जाकर लेट गया था! उस रात पूरी तरह भीगी आँखों से धुंधले तारे ताकते
हुए वह सीढ़ियों पर दो पगथलियों की आहट सुनता रहा जो उस तक पहुँचे बिना,
अधबीच से ही लौटती रहीं!
अगले ही दिन बहाने से वह गाँव
लौट आया था! चूड़सिद्ध के मेले से छिपाकर लाया लाल
लाख के जड़ाऊ कंगनों का जोड़ा, जिसे वह कभी श्रुति को नहीं दे
पाया वहीं माँ के उस आले में रख दिया था विनय ने, जिसे माँ
मंदिर कहती थी!
दीपांकर भाई की शादी के समय वह
दिल्ली चला आया था! तब गिरिराज चाचा यहीं थे! उसके बाद की पढ़ाई दिल्ली में उनके
साथ रहकर ही हुई! ट्रेनिंग पूना में और नौकरी मुंबई,
बैंगलोर, अहमदाबाद होते हुए फिर दिल्ली में!
फिर कभी नहीं लौटा वह अलवर! मंजुला जीजी की शादी के वक्त वह
ट्रेनिंग के लिए पूना में था! कुछ मजबूरी थी और कुछ
उसके लगभग इकतरफ़ा होने को धकेल दिए गये प्रेम का वह हश्र, उसका
जख्म अभी हरा था! मौसी का प्रेम उसे खींचता था पर
बारहा सोचने के बाद भी वह जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया! रिश्तेदारियों की सारी
औचारिकतायें पिताजी ही निभाते रहे! उसने जी कड़ा कर
लिया, उसे लगा शायद इसी में सबकी बेहतरी है!
उसकी शादी गाँव में नहीं दिल्ली
में हुई! मौसी और मंजुला जीजी तब हफ्ते भर
दिल्ली रही थीं! गाँव जाने से हमेशा बचता रहा विनय!
तभी गया जब पिताजी बीमार पड़े! उसकी जिद के आगे सदा हारते रहे और इस
बार भी विनय की ही चली! चलाचली की बेला में उन्हें
विनय के साथ दिल्ली आना ही पड़ा! कब तक अकेले पड़े रहते वहाँ!
उनके स्वर्गवास के बाद मौसी,
मौसाजी दिल्ली आये थे और ये उनकी आखिरी मुलाकात थी! उस रात मौसी के
गले लगकर कितना रोया था विनय! लगा जैसे बरसों का गुबार बह निकलने का ही रास्ता
ढूँढ़ रहा था! इस रात ने विनय को पत्थर में बदलने से बचा लिया था! गाँव के घर की
चाबी उसने गिरिराज चाचा को सौंप दी थी जो रिटायरमेंट के बाद गांव में जा बसे थे!
उस घर से माँ की सब स्मृतियों के साथ निकला विनय पिताजी के जाने के बाद कभी गाँव
नहीं लौटा! माँ की स्मृतियों से विहीन वह घर अब उसका
कहाँ रहा!
इन पिछले सत्रह वर्षों में
कितना कुछ बदल गया! दुनिया क्या से क्या हो गई!
उसका ज़ख्म भी अब शायद भर गया है! बारह बरस की छुटकी अब शादी के
योग्य हो गई है, सोचकर मुस्कुरा दिया विनय! इधर अपर्णा संग विवाह से अपने जीवन के साश्वत खालीपन को भर दिया उसने!
उसके अधूरे जीवन को पूर्णत्व और प्रेम से संवार दिया था अपर्णा ने!
वक़्त के पास हर जख्म का मरहम
है! मन की टूटन कहीं पीछे छूट गई है!
सदा से एकाकी विनय अब भरे-पूरे परिवार का सुख उठाते हुए पूर्णता के
अहसास से भरा रहता है! इस व्यस्त दिनचर्या में चुपके से जगह बनाती स्मृतियाँ अब
कचोटती नहीं, सहलाते हुए एक विचित्र से सुकून से भर देती
हैं! पता नहीं उम्र का असर है या परिपक्वता का या उन सत्रह वर्षो के समयकाल का कि
श्रुति को लेकर आज भी मन में एक हिलोर तो उठती है पर मन की कसक पर अब काबू पा चुका
है विनय! आज उसके मन में अधूरेपन की कसक नहीं पहले प्यार की मधुर स्मृतियाँ बची
रही हैं! बस एक बार उसे फिर से देख पाने का मन है!
अपनी इस आकांक्षा की पवित्रता पर विनय को अब तनिक भी अंदेशा नहीं! उसने अपने मन को एक बार फिर टटोला! हाँ,
अब वह पूरी तरह तैयार है उसके सामने जाने के लिए! उसने सोचा और मुस्कुराया!
“दूरियां मन के बीच ना होणी चइए रे वीनू!
इतनी तो कभी ना कि उन्हें उलांघ न पावैं!” मौसी के कहे शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे! उसने उन दूरियों को उलांघने
भर का साहस जुटा लिया था!
“अपर्णा,
सो इट इज डिसाइडेड.... हम छुटकी की शादी में अलवर जरूर जायेंगे!”
उसने कार्ड हवा में लहराते हुए पूरे उत्साह से, किसी रहस्योद्घाटन की तरह घोषणा की! टीवी पर
क्रिकेट का मैच देखते अपर्णा और बच्चों ने उसे कुछ अचरज, कुछ
अविश्वास से निहारा, फिर एक दूसरे को देखा और चुपचाप टीवी
देखने लगे!
प्रकाशन : पिछले कई वर्षों से सभी प्रतीक्षित पत्र-पत्रिकाओं और
ब्लोग्स में वर्षों से कविताओं, कहानियों, लेखों, रिपोर्टों का प्रकाशन!
पुस्तकें:
2014 में कविता-संग्रह *"कल्पनाओं से परे का समय"* बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित!
2018 में दूसरा कविता-संग्रह *‘चालीस साला औरतें’* अधिकरण प्रकाशन से प्रकाशित!
2018 में कहानी संग्रह *‘एक नींद हज़ार सपने’* सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित
2019 में एक डिजिटल लघु-उपन्यास *‘मन कस्तूरी रे’* मातृभारती डॉट कॉम पर प्रकाशित
दूसरा कहानी संग्रह *सुबह ऐसे
आती है* भावना प्रकाशन से 2020 में प्रकाशित
उपन्यास *शांतिपुरा - टेल ऑफ लव
एंड ड्रीम्स* डायमंड बुक्स से 2020 में
प्रकाशित
प्रेम कहानियों का संग्रह *रात
के हमसफ़र* शोपिज़ेन पर प्रकाशित
2017 में मातृभारती पर प्रकाशित हिंदी
के पहले इ-उपन्यास *‘आइना सच नहीं बोलता*’ में सहलेखक!
अनुवाद
पंजाबी, उर्दू, गुजराती, मराठी,
राजस्थानी, भोजपुरी, नेपाली,
उडिया आदि भाषाओँ में कविताओं का अनुवाद!
परिकथा में 2015 में प्रकाशित कहानी 'आज शाम है बहुत उदास' पंजाबी और उर्दू में
अनूदित हुई! जनसत्ता में 2016 प्रकाशित
कहानी 'पत्ता टूटा डाल से' के पंजाबी
अनुवाद की अनुमति ली गई। पहली कहानी 'गली नंबर दो' का Norwich Writers Centre में अनुवाद लेखकों के लिए
अंग्रेजी में अनूदित अंश का शोकेस बुकलेट के तौर पर प्रस्तुतिकरण। संवेदन में 2016 में प्रकाशित कहानी ‘छत वाला कमरा और इश्क़ वाला लव’ का प्रतिलिपि के
"ट्रांसलेशन चैलेन्ज प्रोजेक्ट” के
अंतर्गत गुजराती और तमिल भाषाओँ में अनुवाद के लिए चयन!
अन्य गतिविधियाँ
:
आलोचना में प्रकाशित कविता ‘दोराहा’ की सुप्रसिद्ध रंगकर्मी लेखिका
उमा झुनझुनवाला के निर्देशन में अभिनयात्मक प्रस्तुति!
कविता चालीसा साला औरतें बहुत
चर्चित हुई और राष्ट्रीय स्तर पर कई कार्यक्रमों के माध्यम से इस पर लगातार बातचीत
हुई!
कविता 'बेटी के लिए' चीन के 'क्वांगचो हिंदी विश्वविद्यालय, क्वांगचो, चीन' में स्नातक स्तर के पाठकों के लिए
पाठ्यक्रम में पढाई जा रही है!
प्रतिलिपि की कई कथा प्रतियोगिताओं
में बतौर निर्णायक जुड़ाव!
देश के कई महत्वपूर्ण मंचों से
कविता और कहानी पाठ
पुरस्कार
*'इला त्रिवेणी सम्मान 2012' से सम्मानित।
*'राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013'
से सम्मानित
*स्त्री शक्ति सम्मान 2014 से सम्मानित
*कविता संग्रह 'कल्पनाओं
से परे का समय' के लिए 2015 में 'राजेन्द्र बोहरा कविता पुरस्कार 2014' द्वारा
जयपुर में सम्मानित
*साहित्य श्री पुरस्कार 2018 द्वारा मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित
कहानी *मुख़्तसर सी बात है*
साहित्य समर्था के विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित
पुरस्कृत
कहानियां :
कहानी 'समयरेखा' स्टोरीमिरर से पुरस्कृत।
कहानी 'बन्द खिड़की खुल गई' प्रतिलिपि द्वारा
आलोचक द्वारा चुनी गई कहानियों में शामिल।
कहानी “रात के हमसफ़र’ जयपुर में पहले कलमकार
सम्मान 2018 के सांत्वना पुरस्कार के लिए चुनी गई!
पता : 41-A, आनंद नगर, इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन
के सामने, दिल्ली-110035
फ़ोन : 9873851668
ईमेल : anjuvsharma2011@gmail.com
1 टिप्पणी:
अच्छी कहानी। हार्दिक बधाई अंजू
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