कैफ़ी आज़मी का नाम हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किया जाता है. उत्तरप्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव में सन १९१९ में जन्मे कैफ़ी साहब का मूल नाम अख्तर हुसैन रिज़वी था. कैफी आजमी के पिता उन्हें एक मौलाना के रूप में देखना चाहते थे लेकिन कैफी आजमी को उससे कोई सरोकार नहीं था और वह मजदूर वर्ग के लिए कुछ करना चाहते थे। 1942 मे कैफी आजमी उर्दू और फारसी की उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ और इलाहाबाद भेजे गए। लेकिन कैफी ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की सदस्यता स्वीकार कर पार्टी कार्यकर्ता के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया और फिर अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए। समाजवादी विचारधारा के पक्के समर्थक कैफ़ी साहब की रचनाओं में मज़लूमों का दर्द पूरी शिद्दत से उभर कर सामने आता है।
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली के अनुसार - दूसरे कम्युनिस्टों की तरह उन्हें नास्तिक कहना मुनासिब नहीं, उनका साम्यवाद भी उनके घर की आस्था का ही एक फैला हुआ रूप था। वह जब से कॉमरेड बने हमेशा इसी रास्ते पर चले और देहांत के वक़्त भी उनके कुर्ते की जेब में सीपीआई का कार्ड था।
(Source: शोषित वर्ग के शायर थे कैफ़ी आज़मीhttp://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/08/060815_nida_column3.shtml)
तत्सम में इस बार कैफी आजमी की गज़लें …
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जिस तर्ह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्रे-नशेबो-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
साकी सभी को है गम-ए-तिश्न: लबी मगर
मय है उसी की नाम पे जिसके उबल पडे
मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
2
हाथ आ कर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
वो गए जब से एसा लगता है
छोटा मोटा खुदा गया कोई
ये सर्दी धूप को तरस्ती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई
3
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये
हम चाँद से आज लौट आये
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गया मेहरबाँ साये
जंगल की हवायें आ रही हैं
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाये
लैला ने नया जनम लिया है
है कैस कोई जो दिल लगाये
है आज ज़मीन का गुसल-ए-सहत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाये
सहरा सहरा लहू के ख़ेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये
4
शोर परिंदों ने यु ही न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के कांटने वालो को ये मालूम तो था
जिस्म जल जायंगे जब सर पे न साया होगा
मानिए जश्न-ऐ-बहार ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटो को लहू पाना पिलाया होगा
अपने जंगल से घबरा के उडे थे जो प्यासे
हर सेहरा उनको समंदर नज़र आया होगा
बिजली के तार पे बैठा तनहा पंछी
सोचता है की यह जंगल तो पराया होगा
5
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
लैला ने नया जनम लिया है
है कैस कोई जो दिल लगाये
है आज ज़मीन का गुसल-ए-सहत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाये
सहरा सहरा लहू के ख़ेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये
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शोर परिंदों ने यु ही न मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के कांटने वालो को ये मालूम तो था
जिस्म जल जायंगे जब सर पे न साया होगा
मानिए जश्न-ऐ-बहार ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटो को लहू पाना पिलाया होगा
अपने जंगल से घबरा के उडे थे जो प्यासे
हर सेहरा उनको समंदर नज़र आया होगा
बिजली के तार पे बैठा तनहा पंछी
सोचता है की यह जंगल तो पराया होगा
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मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता
6
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है
तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है
सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है
जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है
हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है
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