भगवत रावत जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
1983 से 1994 तक हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष। साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडिया, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी, जर्मन तथा रूसी भाषाओं में कविताएं अनूदित।
भोपाल–462 003
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वरिष्ठ कवि भगवत रावत हिन्दी कविता के एक ऐसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिनकी कविताएँ पाठकों या श्रोताओं से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेती हैं। इस बार तत्सम में भगवत रावत की कुछ कविताएँ...
ये कविताएँ उनके कविता संग्रह दी हुई दुनिया (1981) से ली गई हैं मतलब ये कि लगभग 29 साल पुरानी कविताएँ... लेकिन इन कविताओं के विषय ही ऐसे हैं जो आज भी हमारे समाज में शाश्वत विषय हैं। भगवत रावत के यहाँ एक दम आम मानवीय संवेदना पर कविताएँ मिलती हैं। बेटी पर बिटिया और पत्नी पर उसकी थकान किसे प्रभावित नहीं करेंगी? बलात्कार जैसी जटिल समस्या पर भगवत रावत की कविता बलात्कार में कवि शर्म सार है - यह मेरा समय है/ और यह मेरी दुनिया है । और यह कविता भगवत रावत के मैं को ही नहीं, वरन मुझे, आपको और सभी संवेदनशील मनुष्यों को कचोटती है। कहने को यह कविताएँ छोटी-छोटी एवं बिना किसी शोर की हैं किंतु इनकी गूंज दूर तक साथ रहती हैं।
- प्रदीप कान्त |
बिटिया
लगभग चार बरस की बिटिया ने माँ से हाथ फैलाते हुए कहा --दीदी की किताब में इत्ता बड़ा समुद्र है
अच्छा !
बिटिया ने कहा देखो मैंने उसमें उँगली डाली तो भीग गई । ००००
उसकी थकान
बयान कर सके शायद उसकी थकान जो मुझसे दो बच्चों की दूरी पर न जाने कब से क्या-क्या सिलते-सिलते हाथों में सुई धागा लिए हुए ही सो गई है । ०००
उसका जाना
उसकी पीठ नहीं उसका चेहरा देखा था । ०००
आँच
न कोई दहकती भट्टी न कोई लपट न कोई जलता हुआ जंगल
चेहरे दिन की रोशनी से भी ज़्यादा पहचाने जाते हैं ०००
बलात्कार
चीख़ती है एक औरत अपने बियाबान में और ख़ामोश हो जाती है
एक पत्ता टूट कर गिरता है
छटपटा कर गिरता है कहीं एक पक्षी और दूर-दूर तक ख़ामोशी छाई रहती है
और यह मेरी दुनिया है । ०००
चित्र: गूगल सर्च इंजिन से साभार
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गुरुवार, 24 जून 2010
भगवत रावत की कविताएँ
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