गुरुवार, 5 मई 2011

मजाज़ की एक नज़्म


असरारुल हक़ "मजाज़"

(19 अक्तूबर 1911 - 5 दिसम्बर 1955)


१९०९ में रुदौली जिला बाराबंकी में जन्में असरारुल हक मज़ाज़ शायरी के फन के उस्ताद शायर थे। कहा जाता था कि जिगर मुरादाबादी के अलावा अगर किसी शायर के तरन्नुम के लोग दीवाने थे तो वह थे मज़ाज़...। अपने वक्त में मज़ाज़ के कलाम की दीवानगी लोगों , खासतौर से लड़कियों में बहुत जादा थी। और शायरों की मज़ाज़ की शायरी की शुरुआत भी रुमानियत से ही हुई थी किंतु मज़ाज़ का व्यक्तित्व और कृतित्व जिस दौर में विकसित हुआ वह हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिये छटपटाहट का दौर तो था ही, प्रगतिशील आन्दोलन की शुरुआत भी हो चुकी थी जिसके संस्थापकों के रूप में सज्जाद ज़हीर और अली सरदार जाफरी अपनी पहचान बना चुके थे।


देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात
मेरे शाने पे है उस शोख़ का सर आज की रात


जैसे रुमानी शेर कहने वाले मजाज़ की शायरी ने प्रगतिशील आन्दोलन का साथ पाते ही करवट बदली और फिर बोल ! अरी, ओ धरती बोल ! जैसी नज़्म की पैदाइश हुई।


इस साल मज़ाज़ की जन्म शताब्दी के लिये आयोजनओ का दौर चल रहा है। हालांकि यह नज़्म पहले भी सबने पढी होगी किंतु तत्सम में इस बार मज़ाज़ की यही नज़्म...


- प्रदीप कांत


बोल ! अरी, ओ धरती बोल !

राज सिंहासन डाँवाडोल!

बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी

बूढ़े़, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी

बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !


कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले,

देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले

मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले,

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !


क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी!

कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेजारी,

कब तक सरमाए के धंदे, कब तक यह सरमायादारी,

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !



नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम

धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मज़बूर नहीं हम,

मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम,

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !


बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है,

बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है,

बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है,

बोल कि हमसे जागी दुनिया

बोल कि हमसे जागी धरती

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !

राज सिंहासन डाँवाडोल!