शनिवार, 13 अगस्त 2011

जय जनता, जय जनतंत्र

आज 14 अगस्त है, कल 15 अगस्त, 65 वें स्वतंत्रता दिवस के लिये जोर शोर से जश्न की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी होगी। इस अवसर पर क्या बोलना है, क्या नहीं? कौनसे मुद्दे को भुनाना है, कौनसे को सफाई से छुपाना है? तय किया जा चुका है। महात्मा गाँधी, चन्द्र शेखर आज़ाद, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि (सैंकड़ो नाम हैं किस किस को गिनाया जाए? और बहुत से बेनाम भी जिन्हे इतिहास में भी शायद दर्ज न किया गया हो) को याद किया जाएगा, उपलब्धियों को गिनाया जाएगा - रिटेल बाज़ार में मल्टीनेशनल सबसे बड़ी उपलब्धि है माई डीयर, चाहे ग़रीब भूखा मर जाए, कहावत के लिये सात आसमानों का जिक्र होता है किंतु महंगाई आठवे आसमान को छू रही है और कोई प्रेमी प्रेमिका का लिये सातवें आसमान से तारे तोड़ कर लाने का वादा कर सकता है किंतु आठवे आसमान से महंगाई को ज़मीन पर लाने का तो शायद कोई ख्वाब में भी न सोचता हो। और महंगाई पर तथाकथित नियंत्रण के लिए रिज़र्व बेंक पिछले दो साल मे करीब 11 बार ब्याज दर बढ़ा चुका है पर महंगाई डायन का मुख सुरसा की तरह बढ़त जात है। मकान का तो सपना भी आम आदमी की पहुँच से बाहर है (एक गीत पहले ही लिखा जा चुका है – रहने को घर नहीं है, सारा जहाँ हमारा)। पिछले पाँच सालों में घोटाले नहीं बल्कि महा महा...................घोटाले हुए हैं, एक से बढ़ कर एक, जैसे कोई प्रतिस्पर्धा चल रही हो और दोषी कोई भी नहीं हो। भ्रष्टाचार का आलम यह है देश में रिश्वत को कानूनन मान्यता देने की सुगबुगाहट होने लगी है (क्या ये भी किसी उपल्ब्धि की तरफ एक कदम है?)। अब जनता बेचारी चिल्ला रही है....., चिल्लाए, लोकतंत्र में सबको चिल्लाने का हक है, जनता भी चिल्ला रही है। और हमारा लोकतंत्र..., हमारा लोकतंत्र है..., विश्व का महानतम लोकतंत्र, जिसमें अपनी किसी भी परेशानी के लिये किसी को भी चिल्लाने का हक है, चाहे उसकी परेशानी दूर हो या न हो। और ज़्यादातर परेशानी दूर होती नहीं और आम आदमी है तो बढ़ ही सकती है, घटेगी तो कतई नहीं।

पिछ्ले 65 सालों में हालात बदतर ही हुए हैं, अब हमारी आज़ादी के लिये मर मिटने वालों ने इन सब समस्याओं के लिये तो नहीं ही कहा होगा –


कर चले हम फिदा जानोतन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

खैर, जिस देश में सदन में तुष्टिकरण के लिये गाली गलौज, मार पिटाई तक हो जाती हो वहाँ किसी को इन समस्याओं से क्या? मतलब तो केवल किसी एक दिन अपना अपना ढोल पीटने से है। कुल मिला कर एक दिन मनाया जाएगा और पाँच महीने (26 जनवरी यानि गणतंत्र दिवस भी है – रोने गाने के लिये) भूल जाया जाएगा। और हिन्दुस्तान का आम आदमी भी सहने का आदी हो गया है। जय हो इस महान जनतंत्र और इसके आम आदमी की|

बहरहाल, बात आज़ादी की है तो प्रासंगिक है कि इसी आज़ादी की लड़ाई के समय उस समय के शायरों ने क्या क्या नहीं लिखा जिसे तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने जब्त भी किया था ताकि ये सब आम जनता के बीच फैले नहीं। तत्सम में इस बार जोश मलीहाबादी की एक नज़्म...

- प्रदीप कांत


शिकस्ते-ज़िंदाँ का ख्वाब

क्या हिंद का जिंदाँ काँप रहा गूँज रही हैं तकबीरें
उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं जंज़ीरें


दीवारों के नीचे आ-आ कर यूँ जमा हुए हैं ज़िंदगानी
सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें


भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं

तक़दीर के लब पे जुम्बिश है दम तोड़ रही है तदबीरें


आँखों में गदा की सुर्खी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का

तखरीब ने परचम खोला है सजदे में पड़ी हैं तामीरें


क्या उन को खबर थी सीनों जो ख़ून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बे-रन्गी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें


क्या उन को खबर थी होंठों
पर जो कुफ्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें


संभलो कि वो जिंदाँ गूँज उठा झपटो की वो क़ैदी छूट गये

उठो की वो बैठी दीवारें दो.दो की वो टूटी जंजीरें

(ये और ऐसी कई नज़्में ‘जब्तशुदा नज़्में’ में संकलित है)

फोटो - प्रदीप कान्त