सुधीर साहु
शिक्षा - एम ए (हिंदी), एम ए (अंग्रेजी), पीएच डी (हिंदी- डॉ रामविलास शर्मा के आलोचना निकष)
आजीविका - यूको बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक (राजभाषा)
प्रकाशन - विभिन्न समाचार पत्रों (नवभारत, नई दुनिया, दैनिक भास्कर आदि) एवं पत्रिकाओं (राग भोपाली, राजभाषा भारती, संकल्प रथ, शिवम, प्रेसमेन, वसुधा, साक्षात्कार, वागर्थ, हंस, बया, शुक्रवार आदि) में रचनाऍं प्रकाशित
प्रसारण - आकाशवाणी (भोपाल, इंदौर), दूरदर्शन (भोपाल, कोलकाता, रॉंची) एवं विभिन्न टीवी चैनलों से कविताऍं एवं वार्ताएँ प्रसारित
रचना पाठ - अनेक शहरों के कवि सम्मेलनों, मुशायरों, कविता शिविरों, साहित्यिक अधिवेशनों, सेमिनारों, समारोहों आदि में आमंत्रित
विशेष – साक्षात्कार, राजभाषा
दर्पण (इंदौर) अनुगूँज (कोलकाता), स्पंदन (रॉंची) आदि में सम्पादन सहयोग व कई सेमीनारों के आयोजन में सहयोग
सम्मान - अभिव्यक्ति सम्मान (भोपाल), फैज अहमद फैज सम्मान (रॉंची)
वर्तमान पता - यूको बैंक, अंचल कार्यालय, सैनिक बाजार, मेन रोड, रॉंची-834001
संपर्क - ०९९७३३९९६३२
प्रगतिशील लेखक संघ इन्दौर द्वारा आयोजित एकल काव्य पाठ में सुधीर साहु की कविताएँ व ग़ज़लें सुनने को मिली। हालांकि वे कुछ समय तक इन्दौर में भी रहे किंतु मुझे याद नहीं आता किंतु कभी उनसे मेरी मुलाकात हुई है। तत्सम के लिये कविताओं पर मेरे अनुरोध पर उन्होने कुछ ग़ज़लें भेजी। यहाँ ग़ज़ल साबित करती है कि मुहब्बत वुह्ब्बत से उबर कर अब वह सामाजिक विसंगतियों की बात करती है - जैसे ये शेर - देख बेटों का चलन सुन दहेज के किस्से/ बेटियॉं कहती हैं शहनाई से डर लगता है या जिस पालने में झूलझूल कर बड़े हुए/फिर अपने पालने में कमी ढूँढ़ते रहे। तत्सम में इस बार सुधीर साहु की ग़ज़लें....
- प्रदीप कांत
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1
बनी बनायी लीक चले पर्वत के पार गये
अब लगता है जीवन के ये दिन बेकार गये
बाँस उगाये मगर वक्त पर लाठी नहीं मिली
सारे रिश्ते अपने-अपने कर्ज उतार गये
नाम अभी भी प्रेम गली पर राहें बदल गयीं
प्रियतम से मिलने निकले पहले बाजार गये
हाल पूछ कर रस्म अदा की और बढ़े आगे
मन के ठहरे पानी में एक कंकड़ मार गये
जहाँ मिली बेबस लाचारी कुछ सिक्के फेंके
और भरी पापों की गठरी वहीं उतार गये
नहीं मिले तो हमें रहा अफसोस न मिलने का
और मिले तो भूले बिसरे दर्द उभार गये
दर्द हार जाने का कितना तीखा होता है
जब ये जान गये हम जीती बाजी हार गये
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2
शाख से झरती सदी की बात है
ये अधूरी जिन्दगी की बात है
सूखती जाती नदी की बात है
अपने घर में आग लगने की खबर
और अपनी बेखुदी की बात है
फिंक गये खाने में दाने ढूँढ़ना
हाय कैसी त्रासदी की बात है
डूबती साँसों पे सौदेबाजियाँ
कोखसे होती ठगी की बात है
अस्मतें लुटने के ब्योरे चटपटे
पढ़ के होती गुदगुदी की बात है
कुछ दिखाने के लिए नेकी भी है
और बाकी सब बदी की बात है
दिल अगर टूटे तो मत रोना सुधीर
आजकल ये दिल्लगी की बात है
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3
हम उनके नाचने में कमी ढूँढ़ते रहे
वो मेरे ऑंगने में कमी ढूँढ़ते रहे
चेहरे पे अपने ऐतबार इतना था हमें
हम अपने आईने में कमी ढूँढ़ते रहे
अपनी कमाई जिनके बीच बाँटता रहा
वो मेरे बाँटने में कमी ढूँढ़ते रहे
जिस पालने में झूलझूल कर बड़े हुए
फिर अपने पालने में कमी ढूँढ़ते रहे
बेटी का हाथ थाम लिया बिन दहेज के
सब लोग पाहुने में कमी ढूँढ़ते रहे
वो प्यार के सिखाके गये हमको मायने
हम उनके मायने में कमी ढूँढ़ते रहे
***
4
कैसे हँस दूँ तेरी परछाईं से डर लगता है
कैसे रोऊँ तेरी रुसवाई से डर लगता है
जब वो आऍंगे घर खुश दिखना जरूरी होगा
वो न सोचें हमें महँगाई से डर लगता है
जब भी टकराई नजर झुक गईं उनकी ऑंखें
उनको शायद अभी गहराई से डर लगता है
देख बेटों का चलन सुन दहेज के किस्से
बेटियॉं कहती हैं शहनाई से डर लगता है
कल ये दम था कि सितारे भी तोड़ लाओगे
आज तुमको मेरी अँगड़ाई से डर लगता है
डर नहीं लगता है तूफानों बियाबानों से
साथ रहना मुझे तन्हाई से डर लगता है
दिल में ही रहने दो पलकों पे मत बिठाओ मुझे
जमीं का टुकड़ा हूँ ऊँचाई से डर लगता है
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5
होश में कैसे रहते आपकी नजर में रहे
किया तो कुछ भी नहीं फिर भी हम खबर में रहे
गरीब गॉंव का दुख हमसे तो देखा न गया
तमाम जिन्दगी हम इसलिए शहर में रहे
जिन्हें न तुक का पता है न खबर लय की है
वो कह रहे हैं गजल को कि वो बहर में रहे
हमको मंदिर में न मस्जिद में नींद आती है
इसलिए रात को हम अपने-अपने घर में रहे
किसी की एक तीली से घरों में आग लगी
हमारे डर में तुम और हम तुम्हारे डर में रहे
किसी के दिल में अपना एक घर बना न सके
कभी अगर में रहे हम कभी मगर में रहे
राह मिलती जरूर ढूँढ़ते अगर मंजिल
हम उम्रभर न जाने कौन से सफर में रहे
हमको नफरत है फासले से किनारे से नहीं
तुम्हारे साथ रहे जब भी हम लहर में रहे
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