रविवार, 30 जनवरी 2011

कविताएँ पाठक को जीवन विवेक देने में सक्षम हैं


विजय गौड़

जन्म: 16 मई 1968

प्रकाशन: विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानी व कविताओं और प्रकाशन


सबसे ठीक नदी का रास्ता (कविता संग्रह - 2009), फांस (उपन्यास - 2011)

सम्प्रति: ऑर्डीनेंस फेक्ट्री, देहरादून में कार्यरत

सम्पर्क: पिपली रोड, पानी की टंकी के पास,

पोस्ट – बद्रीपुर, देहरादून – २४८००५

फोन: ०१३५ २६६५५०४, ०९४११५८०४६७


युवा कवि विजय गौड़ की कविताओं में अपना आसपास शिद्दत से झलकता है। तत्सम में इस बार विजय गौड़ के ताजा कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता पर युवा कवि प्रदीप मिश्र की टिप्प्णी के साथ विजय गौड़ की कविताएँ

-प्रदीप कांत

त हिलाओ हवा में / इस तरह अपने को पेड़ /कि तुम्हारे पत्ते / साहब की गाड़ी पर गिरें/ साखों पर घोंसला बनाए / पक्षी से कहो, /यदि बीट करनी है तो / चले जाओ यहाँ से /नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है /मत बनो इतने सर्जक / कि पके हुए पफलों को देखकर / बच्चे ललचाएं और पत्थरबाजी करें / पेड़ यदि रहना चाहते हो जीवित /तो ध्यान रखो /नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है चमकती हुई। (नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है) इन पंक्तियों के कवि विजय गौड़ के ताजा कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि हमारे समय के कवि होने वाले परिवर्तन को प्रति जागरूक हैं और अपनी भविष्य दृष्टि को काव्यगत करने में दक्ष है। कविता के व्याकरण में हस्तक्षेप करने के लिए जरुरी संवेदनात्मक ज्ञान से भरे कवि विजय गौड़ के इस संग्रह में कुल ५९ कविताएं संग्रहित हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए एक तरह का व्यंग्य प्रस्फुटित होता है। व्यंग्य के तह में उतरते हुए हमें हमारा समय स्पष्ट दिखाई देता है और आम आदमी की पीड़ा मुखर होती है, उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है- बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट पफंड / फिर चाहे घर बेचो / दुकान बेचो / खेत बेचो, खदान बेचो / बांसुरी की तान बेचो / बेचो-बेचो इस / निकम्मे हिन्दुस्तान को बेचो / बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट फंड (कर्मचारी) यहां पर कवि की संवेदना एक आम कामगार से जुड़ती है और उसके अंदर के आक्रोश को रचनात्मक व्यंग्य की तरह से कविता की संरचना में खड़ी करती है। एक कामगार जो अपने पसीने की बूंदे निचोड़-निचोड़ कर इस देश को समृद्ध करने में पूरा जीवन खपा देता है, क्या उसे सिर्फ वेतन और ग्रेच्युटी चाहिए। नहीं उसकी अपेक्षा अपने शासकों से ज्यादा है, वह अपने देश में खुशहाली और वास्तविक विकास चाहता है। लेकिन उसे घोटालों और राजनीतिक सौदेबाजियों की घिनौनी उपलब्धियाँ मिलती हैं। अपनी बेबसी को अभिव्यक्त करते हुए कहता है कि -बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट फंड उसे यही तर्क देकर शासक भी अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कर लेते हैं। जीवन में हमेशा ही कुछ कम होने की और अपेक्षाओं के अतिक्रमण को सहते हुए ही कवि यह लिखता है कि- बचपन के उन दिनों में / नहीं रहा उतना बच्चा / जितना खरगोश / जितना गिलहरी / ........../फिर बुढ़ापे के उन दिनों में / कैसे होऊंगा ऐसा बूढ़ा / जितना बरगद का पेड़। (जवानी के इन दिनों में) यहाँ पर बरगद होने की कल्पना है जो एक पूर्ण जीवन का प्रतीक है और आज के समय में पूर्ण जीवन लगातार संकट में है। यहाँ पर सवाल आज के विकसित समाज के तर्क पर है। यह वैज्ञानिक विकास के लिए एक चुनौती की तरह है। इसी क्रम में कवि हमारे समाज का दूसरा पहलू भी देखता है जहाँ स्कूल जाने के दिनों में बच्चे रोजी-रोटी में लग जाते हैं और सेठ को शोषण से उनका बचपना अतिक्रमित हो जाता है- वह झट कहेगा / दुकानदार की झिड़क जैसा होता है। (मिट्टी के तेल के साथ चीनी का स्वाद) । इन पंक्तियों को पढ़ते हुए जब हम कवि की अगली कविता पर पहुँचते है तो वह हमारी सारी इन्ज्रियों को झकझोर कर ऱख देता है। वह लिखता है- मैं समय के साथ चलते हुए / साइकिल के पहियों से / जुड़ जाना चाहता हूँ / चलना चाहता हूँ सट कर सड़क से / मुझे जबरदस्ती / पैडल तक न पहुँचाया जाए / और न ही / हैण्डल बनाकर किसी भी तरफ घुमाया जाए । (इस्तेमाल ) यह छोटी सी कविता हमारे समय की बहुत बड़ी त्रासदी का आख्यान है। जिसके कई पाठ हैं और पाठ में एक सशक्त विरोध है, जो अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ है। यहाँ पर कवि के कलात्मक कौशल का भी साक्षात्कार मिलता है और आश्वस्ति मिलती है कि कवि हमारे समय को सठीक अभिव्यक्ति देने में समर्थ है। इस तरह की बहुत सारी पंक्तियों को निकाला जा सकता है जो कवि के सार्थक प्रसाक को प्रमाणित करते हैं। संग्रह की दुसरी खूबसूरती प्रकृति मुलक कविताएं हैं। जहाँ पेड़-पहाड़-पंक्षी-नदी और मौसम अनेका-अनेक बिम्बों में उपस्थित हैं। यहाँ पर दिसम्बर के दो चित्र रखना कवि के दृष्टिबोध को समझने के लिए जरूरी है- रोहतांग की ऊँचाई पर भी / बर्फ नहीं है / मड़ई में भी नहीं / भुट्टे बेचने वाला लड़का / सिपर्फ इंतजार करता रहा/ भुट्टों को सेंकने का। (दिसम्बर) दिसम्बर को ही लेकर एक दूसरी कविता के अंश भी देखें कि - आस्थओं का जनेऊ / कान पर लटका / चौराहे पर मूतने का वर्ष /बीत रहा है /बीत रहा है /प्रतिभूति घोटालों का वर्ष /सरकारों के गिरनेऔर / प्रतीकों के हनने का वर्ष /.अपनी अविराम गति के साथ / बीत रहा है /........ /हर बार जीतने की उम्मीद के साथ हारने का वर्ष। (दिसम्बर 1992) इन दोनों कविताओं में दिसम्बर है लेकिन एक तरफ प्राकृतिक चेतना है तो दूसरी तरफ राजनीतिक चेतना। यह कवि के दायित्वबोद का प्रमाण है और इस बात की स्थापना भी कि कवि समसामयिक को लेकर कितना सतर्क है। यह हर कवि की जिम्मेदारी है। इस तरह से नेट वर्क मार्केटिंग, यांत्रिक नहीं है जीवन, संदर्भ : उत्तराखण्ड आंदोलन ,ब़ढ़े चलो, टिहरी को याद करते हुए, बच्चों, पिता कानाम, मित्रों से बिछुड़ने पर, पत्नी के लिए, प्रेमिका के लिए,तथा वे गांधीवादी हैं कविताओं पर विस्तार से बात की जा सकती है।

कविता संग्रह - सबसे ठीक नदी का रास्ता

प्रकाशक : धाद प्रकाशन, देहरादून,

मुद्रक : शब्द संस्कृति प्रकाशन

74, न्यू कनॉट प्लेस, देहरादून, मो. 9219510932

मूल्य : पेपर बैक रु. 50.00

सजिल्द रु. 100.00

इन कविताओं में कई पाठ समाहित हैं और पाठक से उसके विवेक का सम्मिलन चाहते हैं। इन कविताओं को पढ़ने और समझने में कवि की आत्माभिव्यक्ति बहुत सहायक है जो पुस्तक के शुरू में दी गयी है। उसका एक अंश यहाँ पर देना समीचीन होगा- अपनी बात पूरी तरह से पाठक तक सम्प्रेषित न हो पाने की आशंकाओं से घिरा होने के कारण कहींकहीं मेरी कविताएं विवरणात्मक होने लग जाती हैं, बल्कि यह बात तो मैं अपनी पूरी रचना प्रक्रिया में देख रहा हूँ कि अक्सर ही मैं विधा विशेष की शस्त्रीयता का अतिक्रमण करने लगता हूँ। जिस वक्त कुछ लिखना शुरु करता हूँ, कोई फ्रेम मौजूद नहीं होता। कोई एक छोटा, बिन्दुसा संवेदन होता है, जो लिखने के लिए मजबूर करता है। कविता, कहानी, संस्मरण, उसे क्या होना है, तय नहीं रहता, फिर भी किसी एक फ्रेम में तो उसे कसना ही होता है, लेकिन लिख दिए जाने के बाद पाता हूँ कि विधविशेष की कसौटियों पर एक ठीकठाक रचना बनने में कुछ छूट जा रहा है। उस छूट गए को रचने की जिद मुझे विध की शासत्रीयता को तोड़ने के लिए मजबूर करती है। विजय का रचनाक्रम हमारे समय की जरूरत की तरह है और इस संग्रह की कविताएं पाठक को जीवन विवेक देने में सक्षम हैं। और अपनी बात उनकी ही कुछ पंक्तियों के साथ पूरा कर रहा हूँ-- मौन, मौन / कब तक रहोगे मौन /हँसो, हँसो /कब तक रहोगे मौन / रोओ, रोओ कब तक रहोगे- मौन / चिल्लाओ कि पफट पड़े बादल / गाओ कि बह चले अंधड़।

-प्रदीप मिश्र, 72ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, इन्दौर-09 मो: 0919425314126

1

नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है


मत हिलाओ हवा में

इस तरह अपने को पेड़

कि तुम्हारे पत्ते

साहब की गाड़ी पर गिरें


साखों पर घोंसला बनाए

पक्षी से कहो,

यदि बीट करनी है तो

चले जाओ यहाँ से

नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है

मत बनो इतने सर्जक

कि पके हुए फलों को देखकर

बच्चे ललचाएं और पत्थरबाजी करें


पेड़ यदि रहना चाहते हो जीवित

तो ध्यान रखो

नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है


चमकती हुई।


2

कर्मचारी


बस बची रहे मेरी पेंशन,

ग्रेच्युटी

मेरा प्रोवीडेंट फंड


फिर चाहे घर बेचो

दुकान बेचो

खेत बेचो, खदान बेचो

बांसुरी की तान बेचो


बेचो-बेचो इस

निकम्मे हिन्दुस्तान को बेचो

बस बची रहे मेरी पेंशन,

ग्रेच्युटी

मेरा प्रोवीडेंट फंड।


3

जवानी के इन दिनों में


बचपन के उन दिनों में

नहीं रहा उतना बच्चा

जितना खरगोश

जितनी गिलहरी

जितना धन का पौधा


जवानी के इन दिनों में

नहीं हूँ इतना जवान

जितना गाय का बछड़ा

अमरूद का पेड़


फिर बु़ापे के उन दिनों में

कैसे होऊँगा ऐसा बू़ढ़ा

जितना बरगद का पेड़।

4

मिट्टी के तेल के साथ चीनी का स्वाद


राशन की दुकान पर

सामान तौलते लड़के से पूछो,

तेरी कमीज का

कॉलर कहां है?

तेरी पैंट का मुख्य बटन कहां है?


वह कुछ नहीं कहेगा,

चुपचाप गर्दन नीचे झुका

पैर के अंगूठे से

बनाने लगेगा आकृतियां

पर जब तुम पूछोगे,

मिट्टी के तेल के साथ

चीनी का स्वाद कैसा होता है?


वह झट कहेगा,

दुकानदार की झिड़क जैसा होता है।


5

इस्तेमाल


मैं समय के साथ चलते हुए

साइकिल के पहियों से

जुड़ जाना

चाहता हूँ

चलना चाहता हूँ

सट कर सड़क से


मुझे जबरदस्ती

पैडल तक न पहुँचाया जाए

और न ही

हैण्डल बनाकर

किसी भी तरफ घुमाया जाए।

छायाचित्र: प्रदीप कांत

_________________________________________________________________________________________________

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

आतंकवाद का धर्म से क्या नाता?


डॉ वेद प्रताप वैदिक






डॉ वेद प्रताप वैदिक हमारे समय के सबसे मह्त्वपूर्ण व चर्चित पत्रकारों में से एक हैं। तत्सम में इस बार डॉ वेद प्रताप वैदिक का दैनिक भास्कर के 12 जनवरी 2010 में छपा यह आलेख जो हमें मेल से प्राप्त हुआ है।

- प्रदीप कांत

क्या आतंक का कोई रंग होता है? कोई मजहब होता है? होता तो नहीं है, लेकिन मुख-सुख के लिए लोग उसका वैसा नामकरण कर देते हैं। यह नामकरण बड़ा विनाशकारी सिद्ध होता है। कुछ सिरफिरों का उन्माद उनसे संबंधित सारे समुदाय के लिए कलंक का टीका बन जाता है। यह टीका कभी सिखों के सिर पर लगा, कभी मुसलमानों के और अब यह हिंदुओं के सिर पर लग रहा है। जब से असीमानंद का तथाकथित बयान लीकहुआ है, देश में अजीब-सी राजनीति शुरू हो गई है। कहा जा रहा है कि यह भगवा आतंकवाद है, हिंदू आतंकवाद है और संघी आतंकवाद है। जिस व्यक्ति को संघी आतंकवाद का सूत्रधार बताया जा रहा है, उसे पाकिस्तानी आईएसआई का एजेंट भी कहा जा रहा है। क्या खूब है यह राजनीति?

जो लोग आतंकवाद की राजनीति कर रहे हैं, वे बहुत भोले मालूम पड़ते हैं। वे यह क्यों नहीं समझ रहे कि आतंकवाद और हिंदू, इन दो शब्दों को आपस में जोड़कर वे करोड़ों शांतिप्रिय हिंदुओं को ठेस पहुंचा रहे हैं? वे अनायास ही अपने लाखों -करोड़ों वोटों को खोने का इंतजाम कर रहे हैं। बिल्कुल वैसे ही जसे कुछ कट्टरपंथी आतंकवादियों के कारण देश के सारे मुसलमानों को बदनाम करने की कोशिश की गई थी। भला इस्लाम का आतंकवाद से क्या लेना-देना? जिस धर्म के नाम का अर्थ ही शांति और सलामती है, उसके मत्थे इस्लामी आतंकवाद शब्द मढ़ देना कहां तक उचित है? इसी प्रकार हिंदुत्व और आतंकवाद में तो 36 का आंकड़ा है। जो हिंदू आत्मवत् सर्वभूतेषुयानी समस्त प्राणियों में स्वयं को ही देखता है, वह किसी बेकसूर की हत्या कैसे कर सकता है? आतंकवाद तो शुद्ध कायरता है। उसमें बहादुरी कहां होती है? जो लुक-छिपकर वार करे, बेकसूर को मारे और मारकर भाग जाए, उसे बहादुर कौन कहेगा? कोई भी आतंकवादी न तो योद्धा होता है और न ही क्रांतिकारी! योद्धा तो लड़ने के पहले बाकायदा युद्ध की घोषणा करता है और अगर उसके प्रतिद्वंद्वी के हाथ में शस्त्र नहीं होता है तो वह उसे शस्त्र देता है। इसके अलावा वह युद्ध के नियमों और मर्यादाओं का पालन भी करता है। क्या कोई आतंकवादी ऐसा करता है?

हमारे स्वाधीनता संग्राम के अनेक महान सेनानी जसे सावरकर, चाफेकर बंधु, भगतसिंह, बिस्मिल, आजाद वगैरह ने भी हिंसा का सहारा लिया, लेकिन हम उन्हें कभी आतंकवादी नहीं मान सकते। इसके कई कारण हैं। पहला तो उनकी हिंसा सिर्फ विदेशी शासकों तक सीमित थी। उनकी हरचंद कोशिश होती थी कि किसी भी भारतीय का खून नहीं बहे, लेकिन दुनिया के ज्यादातर आतंकवादी अपने ही लोगों की हत्या सबसे ज्यादा करते हैं। कश्मीरी आतंकवादियों ने सबसे ज्यादा किनको मारा? क्या कश्मीरियों और मुसलमानों को नहीं? तालिबान किनको मार रहे हैं? सबसे ज्यादा वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुसलमानों को मार रहे हैं। श्रीलंका के उग्र आतंकवादियों ने सिंहलों के साथ-साथ तमिल नेताओं को मारने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत के आतंकवादी चाहे वे सिख हों या मुसलमान या हिंदू, क्या उन्होंने कोई ऐसा बम बनाया है, जिससे सिर्फ पराए लोग ही मारे जाएं और उनके अपने लोग बच जाएं? अमेरिका में क्लू क्लक्स क्लान के आतंकवादियों का निशाना कौन होते थे? क्या उनके अपने ईसाई लोग नहीं? हमारे माओवादी क्या कर रहे हैं? वे सबसे ज्यादा मार्क्‍सवादियों को ही मार रहे हैं। मार्क्‍स तो माओ के पितामह थे, अगर लेनिन को माओ का पिता मानें तो! हमारे बंगाल के आतंकवादी तो पितृहंता नहीं, पितामहहंता सिद्ध हो रहे हैं।

हमारे क्रांतिकारी बम फेंककर कायरों की तरह जान बचाते नहीं फिरते थे। वे हंसते-हंसते फांसी पर झूल जाते थे। पकड़े जाने पर वे मानवाधिकार या वकीलों या नोबेल लॉरिएटों की शरण में नहीं जाते थे। वे पहले शेर की तरह दहाड़कर बाद में चूहे की मुद्रा धारण नहीं करते थे। इसीलिए अगर कुछ हिंदू संन्यासियों और साध्वियों और कार्यकर्ताओं ने आतंकवाद का सहारा लिया है तो उन्हें अपना अपराध खुलकर स्वीकार करना चाहिए और भारत के कानून को उनके साथ किसी भी प्रकार की नरमी नहीं बरतनी चाहिए। उन्हें इस बात पर भी शर्म आनी चाहिए कि उनके कारण सारा हिंदू समाज ही नहीं, अपना प्यारा भारतवर्ष भी बदनाम हो रहा है। क्या उन्हें पता नहीं कि उनके कारण पाकिस्तान का मनोबल कितना ऊंचा हो गया है? पाकिस्तान को सारी दुनिया उद्दंड राष्ट्र मानती है। अपने तथाकथित साधु-संतों के कारण अब हम भी उसी श्रेणी में पहुंच रहे हैं। यदि आतंकवाद का सहारा लेने वाले साधु-संतों का तर्क यह है कि उनका आतंकवाद सिर्फ जवाबी आतंकवाद है, तो मैं कहूंगा कि यह तर्क बहुत बोदा है। आप जवाब किसे दे रहे हैं? बेचारे बेकसूर मुसलमानों को? आपको जवाब देना है तो उन कसूरवार मुसलमान आतंकवादियों को दीजिए, जो बेकसूर हिंदुओं को मारने पर आमादा हैं। यह कितनी शर्म की बात है कि कुछ बेकसूर नौजवान जेल में सिर्फ इसलिए सड़ रहे हैं कि वे मुसलमान हैं? आतंकवाद कोई करे, किधर से भी करे, मरने वाले सब लोग बेकसूर होते हैं। सारे आतंकवादियों की जात एक ही है और सारे मरनेवालों की भी जात एक ही है। इसीलिए आतंकवाद का जवाब आतंकवाद कभी नहीं हो सकता जसे कि मूर्खता का जवाब मूर्खता नहीं हो सकती।

आतंकवाद कभी भी किसी बात का जवाब नहीं हो सकता, क्योंकि जवाब देने के लिए अक्ल की जरूरत होती है। अक्ल के चौपट हुए बिना आतंकवाद की शुरुआत ही नहीं हो सकती। आतंकवाद तो शुद्ध उन्माद है। भारतीय मनोविज्ञान में जिसे बौद्धिक सन्निपात कहते हैं, आतंकवाद उसकी पराकाष्ठा है। इस्लाम के नाम पर यह सन्निपात पाकिस्तान के मगज की नस-नस में घुस गया है। वरना पैगंबर मुहम्मद जसे महान क्षमादानी के नाम पर सलमान तासीर को कत्ल क्यों किया गया? पाकिस्तान ने अपने कारनामों से इस्लाम को बदनाम कर दिया है। क्या अब भारत हिंदुत्व को भी बदनाम करना चाहता है? तासीर की हत्या पर पाकिस्तान के सभी नेताओं और दलों की घिग्घी बंध गई है। गर्व की बात है कि भारत में ऐसा नहीं हुआ। यह अच्छा हुआ कि संघ ने तथाकथित हिंदू आतंकवादियोंसे अपने को अलग कर लिया और हिंसक गतिविधियों की खुली निंदा की। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसकी दशा भी हमारे वामपंथियों की तरह हो जाती, जो माओवादियों को बचाने की प्रच्छन्न कोशिश करते हैं।

देश का यह बड़ा दुर्भाग्य होगा कि आतंकवाद पर राजनीति की जाए। जसे भ्रष्टाचार सबके लिए निंदनीय है, वैसे ही आतंकवाद भी होना चाहिए। आतंकवाद और भ्रष्टाचार, ये दोनों दैत्य देश के दुश्मन हैं। इन्हें मार भगाने के लिए सभी राजनीतिक दल, सभी नेता, सभी संप्रदाय, मजहब, प्रांत, सभी धर्मध्वजी एकजुट नहीं होंगे तो देश अंदर से खोखला और बाहर से जर्जर होता चला जाएगा। आतंकवाद को न तो रंगों में बांटा जा सकता है और न ही हमारे और तुम्हारे खांचों में! यह बंटवारा नहीं, राजनीति है। आतंकवाद का समूलोच्छेद तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि उसे संपूर्ण राष्ट्र का समान शत्रु न माना जाए।

- डॉ वेद प्रताप वैदिक

A-19, प्रेस एंनक्लेव,

नई दिल्ली – 110017

फोन: 011-26867700