शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

कविता और जीवन - बेन ओकरी

(अनुवाद- गीत चतुर्वेदी)
 
कवि आपसे कुछ नहीं चाहते, सिवाय इसके कि आप अपने आत्म की गहनतम ध्वनि को सुनें। वे राजनेताओं की तरह आपसे वोट नहीं माँगते।
-बेन ओकरी
 
तत्सम पर इस कविता और जीवन बेन ओकरी के ये विचार जिनका अनुवाद किया है युवा कवि, कथाकार गीत चतुर्वेदी ने...
-प्रदीप कांत
 
1
ईश्वर जानता है कि किसी भी समय के मुकाबले हमें कविता की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। हमें कविता से प्राप्त होने वाले दुष्कर सत्य की जरूरत है। हमें उस अप्रत्यक्ष आग्रह की जरूरत है, जो सुने जाने के जादूके प्रति कविता करती है।

उस दुनिया में, जहाँ बंदूकों की होड़ लगी हुई है, बम-बारूदों की बहसें जारी हैं, और इस उन्माद को पोसता हुआ विश्वास फैला है कि सिर्फ हमारा पक्ष, हमारा धर्म, हमारी राजनीति ही सही है, दुनिया युद्ध की ओर एक घातक अंश पर झुकी हुई है - हमें उस आवाज की जरूरत है, जो हमारे भीतर के सर्वोच्च को संबोधित हो।

हमें उस आवाज की जरूरत है, जो हमारी खुशियों से बात कर सके, हमारे बचपन और निजी-राष्ट्रीय स्थितियों के बंधन से बात कर सके। वह आवाज जो हमारे संदेहों, हमारे भय से बात कर सके; और उन सभी अकल्पित आयामों से भी जो न केवल हमें मनुष्य बनाते हैं, बल्कि हमारा होना भी बनाते हैं - हमारा होना, जिस होने को सितारे अपनी फुसफुसाहटों से छुआ करते हैं।

2
राजनीति की अपेक्षा कविता हमारे कहीं करीब है। वह हमारे लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना चलना और खाना।

जब हम जन्म लेते हैं, तो दरअसल श्वास और कविता की स्थितियों में ही जन्म लेते हैं। जन्म लेना एक काव्यात्मक स्थिति है - आत्मा का देह में बदल जाना। मृत्यु भी एक काव्यात्मक स्थिति है - देह का आत्मा में बदल जाना। यह एक चक्र के पूरा हो जाने का चमत्कार है - यह जीवन की न सुनी गई मधुरता का एक अपरिमेय चुप्पी में लौट जाना है।

जीवन और मृत्यु के बीच जो भी कुछ हमारा दैनंदिन क्षण होता है, वह भी प्राथमिक तौर पर काव्यात्मक ही होता है : यानी भीतरी और बाहरी का संधि-स्थल, कालहीनता के आंतरिक बोध और क्षणभंगुरता के बाह्यबोध के बीच।  

3
राजनेता राज्य के हालात के बारे में बात करते हैं, कवि जीवन की बुनियादी धुनों में गूँजते रहने में हमारी मदद करते हैं, चलने के छंद में, बोलने की वृत्ताकार रुबाइयों में, जीने के रहस्यमयी स्पंदनों में।

कविता हमारे भीतर एक अंतर्संवाद पैदा करती है। यह हमारे अपने सत्य के प्रति एक निजी यात्रा का प्रस्थान होती है।

हम पूरी दुनिया से कविता की आवाजों को एक साथ ले आएँ, और अपने हृदयों को एक उत्सव में तब्दील कर दें, एक ऐसी जगह जहाँ स्वप्न पलते हों। और हमारा दिमाग सितारों की छाँव में अनिवार्यताओं की अकादमी बन जाए।

4
कविता सिर्फ वही नहीं होती जो कवि लिख देते हैं। कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी भी है, जो मनुष्यता के भीतर बहती है। कवि सिर्फ इसके भूमिगत जल को क्षण-भर के लिए धरातल पर ले आता है, अपनी खास शैली में, अर्थों और ध्वनियों के प्रपात में झराता हुआ।

5
संभव है कि प्राचीन युगों के त्रिकालदर्शी मौन हों, और अब हम उन विभिन्न तरीकों में कदाचित विश्वास न करते हों, जिनसे ईश्वर हमसे या हमारे माध्यम से बोला करता था। लेकिन जिंदा रहने का अर्थ है कि हम कई सारे दबावों के केंद्र में उपस्थित हैं - समाज की माँग के दबाव, अपने होने के बिल्कुल अजीब ही दबाव, इच्छाओं के दबाव, अकथ मनःस्थितियों और स्वप्नों के दबाव और इस नश्वर जीवन के हर प्रवाह के बीच शक्तिशाली हो जाने की अनुभूतियों के दबाव।

6
हम अपने मतभेदों पर बहुत ज्यादा ध्यान देते हैं। कविता हमें, हमारे यकसाँपन के अचंभे की ओर ले आती है। यह हमारे भीतर विलीन हो चुके उस बोध को फिर से जगा देती है कि अंततः हम सब एक अनंत परिवार के ही हिस्से हैं और उन अनुभूतियों को एक-दूसरे से साझा कर रहे हैं, जो नितांत हमारे लिए अद्वितीय हैं, और उन अनुभूतियों को भी, जो सिर्फ हमारी नहीं, दरअसल हर किसी की हैं।

हमें राजनीति की अपेक्षा कविता की अधिक आवश्यकता है, लेकिन हमें कविता की संभावनाओं में वृद्धि भी करते रहना होगा। कविता अनिवार्यतः दुनिया को बदल नहीं देगी। (अत्याचारी भी कई बार कवि-रूप में जाने जाते हैं, कहना चाहिए कि बुरे कवि के रूप में।) जब तक कविता हमारी बुद्धि को सवालों के दायरे में भेजती रहेगी, हमारी मुलायम मनुष्यता को गहरे से छूती रहेगी, तब तक वह हमेशा सौंदर्य का तेज बनी रहेगी, भलाई का वेग बनी रहेगी, तमंचों और नफरतों के शोर को धीरे-धीरे शून्य करती हुई।

7
कविता की असाधारणता का कारण बहुत स्पष्ट है। कविता उस मूल शब्द का वंशज है, जिसे हमारे संतों ने सृष्टि की उत्पत्ति का कारक माना है।

कविता, अपने उच्चांक पर, सृष्टि की सर्जनात्मक शक्ति को अपने भीतर जीवित रखती है। वे सभी चीज़ें, जिनके पास आकार होता है, जो परिवर्तित होती हैं, जो अपना कायांतरण कर लेती हैं - कविता उन सभी चीजों का सशरीर अवतार है। शब्द भी कैसी मिथ्या है न! शब्द का वजन कौन माप सकता है, भले एक पलड़े में आप सत्य का हल्का पंख रख दें, दूसरे में शब्द - क्या वैसा संभव है? फिर भी हृदय के भीतर शब्दों का कितना वजन होता है, हमारी कल्पनाओं, स्वप्नों में, युगों-युगों से चली आ रही अनुगूँजों में, उतने ही टिकाऊ जितने कि पिरामिड। हवा से भी हल्के होते हैं शब्द, फिर भी उतने ही रहस्यमयी तरीके से चिरस्थायी, जितना कि जिया गया जीवन। कविता हमारे भीतर की देवतुल्य उपस्थितियों के प्रति एक संकेत है और हमें अस्तित्व के उच्चतम स्थानों तक ले जा एक गूँज में बदल जाने का कारण बनती है।

8
कवि आपसे कुछ नहीं चाहते, सिवाय इसके कि आप अपने आत्म की गहनतम ध्वनि को सुनें। वे राजनेताओं की तरह आपसे वोट नहीं माँगते।
 
सच्चे कवि सिर्फ यही चाहते हैं कि आप इस पूरी सृष्टि के साथ किए गए उस अनुबंध का सम्मान करें, जो आपने इसकी वायु के अदृश्य जादू से अपनी पहली साँस खींचते समय किया था।  
 
हिन्दी समय (hindisamay.com) से साभार
 

रविवार, 21 सितंबर 2014

वीनस केसरी की ग़ज़लें

लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले, 
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |

ये है हमारा आज का आम आदमी, जो रोजी रोटी के लिये इस कदर काम करता है कि घर परिवार के लिये उसे घर में भी फुर्सत नहीं। आज भी, जहाँ ग़ज़लों में अधिकांशत: प्यार मुहब्बत की बातें करके ख़ुश हुआ जा सकता है, वहाँ युवा शायर वीनस कहते हैं-

हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं|
 
मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या

इन्तिहा-ए-ज़ुल्म ये है, इन्तिहा कोई नहीं! 
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?

कुछ व्यस्त्तताओं के चलते की अनियमितता के लिये माफ़ी के साथ तत्सम में इस बार वीनस केसरी की कुछ ग़ज़लें...

प्रदीप कांत


वीनस केसरी 
जन्म तिथि:1 मार्च 1985 , शिक्षा: स्नातक
विधा: ग़ज़ल, गीत छन्द कहानी आदि 

प्रकाशन: प्रगतिशील वसुधा, कथाबिम्ब, अभिनव प्रयास, गर्भनाल, अनंतिम, गुफ्तगू, विश्वगाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में ग़ज़ल, गीत व दोहे का प्रकाशन हरिगंधा, ग़ज़लकार, वचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकाशित
प्रसारण: आकाशवाणी इलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों से रचनाओं का प्रसारण
पुस्तक: अरूज़ पर पुस्तक ग़ज़ल की बाबत प्रकाशनाधीन

विशेष: उप संपादक, त्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद (अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक), सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका (जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३ तक) 
संप्रति: पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
सम्पर्क: जनता पुस्तक भण्डार,
942, आर्य कन्या चौराहा,  मुट्ठीगंज,इलाहाबाद  211003
मो: 094530 04398


इन्तिहा-ए-ज़ुल्म ये है, इन्तिहा कोई नहीं!
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?

बाद-ए- मुद्दत आइना देखा तो उसमें मैं न था,
जो दिखा, बोला वो मुझसे मैं तेरा कोई नहीं |

हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं |

हम अगर चुप हैं तो हम भी बुज़दिलों में हैं शुमार,
हम अगर बोलें तो हम सा बेहया कोई नहीं |

बरगला रक्खा है हमने खुद को उस सच्चाई से,
अस्ल में दुनिया का जिससे वास्ता कोई नहीं

अपनी बाबत क्या है उनकी राय, फरमाते हैं जो,
राहजन चारों तरफ हैं रहनुमा कोई नहीं |
000   

पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |
आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |

हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या,
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |

जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है,
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |

लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम | 

हमने अपनी शख्सियत बाहर से चमकाई मगर,
इक अँधेरा आज भी अन्दर भरे बैठे हैं हम |
000
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है ख़ंजर आइना |

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |

गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |

आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |

मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |

अपना अपना हौसला है, अपना अपना फ़ैसला,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |
000 

अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये

जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये

जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये

जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये

इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये

किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये

जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
000 

छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या

ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या

है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या 

मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या

धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या

इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या

अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या

मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या

रविवार, 14 सितंबर 2014

बिन तले के जूते - सुखबीर विश्वकर्मा की लघुकथा


हमेशा से यही होता था गांव में कभी कोई मौत होती या खुशी का मौका होता तो उन्हें जरूर बुलाया जाता वह खुद न जाकर चमरौंधे जूतों का एक जोडा भेज देते जो उनके शामिल होने का प्रतीक था

वे सैकडों बीघा जमीन के मालिक थे। गांव का एक हिस्सा उनकी जमीन जोत-बो कर पलता था।उनकी किलेनुमा आलीशान हवेली में हर वक्त मोटे-तगडे नौकर मौजूद रहते।

भला किसमें हिम्मत थी कि उनकी हरकत के खिलाफ़ मुंह खोल सकता।

अचानक एक दिन उनकी मां मर गई।परम्परा के मुताबिक गांव में खबर पहुंचा दी गयी कि हरेक घर से एक-एक आदमी को शवयात्रा में शामिल होना है। जबाब मिला आयेंगे

अर्थी बनकर तैयार हो गई लेकिन एक भी आदमी वहां नहीं पहुंचा । वे हैरान थे। झल्लाकर वे नौकरों पर बरसने लगे।

तभी दो बैलगाडियां हवेली की तरफ़ आती दिखाई पडी । वे चादरों से ढकी थी । पास आने पर उन्होंने गाडीवालों से पूछा,"लोग कहां है ? और ये क्या तमाशा है ?

गाडीवान बगैर कुछ कहे वापस लौट गये ।इधर उन्होंने आगे बढकर बैलग़ाडियों पर से चादरें हटायी ।वह ठगे रह गये । ग़ाडियों में बिन तलों के वही जूते भरे थे जो उन्होंने समय-समय पर गांव वालों के यहां भिजवाये थे ।

("तनी हुई मुट्ठियां" सम्पादक मधुदीप/ मधुकांत-1980)
ज्ञानसिंधु से साभार (http://gyansindhu.blogspot.in) 

बुधवार, 3 सितंबर 2014

बुनाई का गीत - केदारनाथ सिंह

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की कविता का एक पोस्टर बनाने का एक प्रयास किया है जिसे तत्सम पर लगा रहा हूँ। 

- प्रदीप कांत
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कविता: कविताकोश से साभार                                                                               चित्र: गुगल सर्च से साभार