नए साल का एक महीना तो निकल गया है। दूसरा महीना भी वैसा ही लग रहा है। वही बढ़ती महंगाई, अपराध, सब कुछ तो वही... । बदला क्या ? इब्राहिम अश्क के इस शेर की तरह
वही हमेशा का आलम है, क्या किया जाऐ
जहाँ से देखिये कुछ कम है, क्या किया जाऐ
बताईये क्या किया जाऐ। चलो कुछ करेंगे तो सही हो ही जाऐगा, उम्मीद तो की ही जा सकती है। फिलहाल तो कुछ कर नहीं रहा हूँ, इसलिये तत्सम में इस बार अपनी एक ग़ज़ल आपके लिये...। यह ग़ज़ल जनसत्ता वार्षिक अंक 2010 में छपी है।
- प्रदीप कांत
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कहाँ हमारा हाल नया है
कहने को ही साल नया है
कहता है हर बेचने वाला
दाम पुराना माल नया है
बड़े हुए हैं छेद नाव में
माझी कहता पाल नया है
इन्तज़ार है रोटी का बस
आज हमारा थाल नया है
लोग बेसुरे समझाते हैं
नवयुग का सुर-ताल नया है
नहीं सहेगा मार दुबारा
गाँधी जी का गाल नया है
- प्रदीप कान्त
(छायाचित्र: प्रदीप कान्त)
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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
कहने को ही साल नया है...
मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011
प्रदीप जिलवाने की प्रेम कविताएँ
1 भाषा
प्रेम ही प्रेम की भाषा।
प्रेम ही प्रेम की अभिलाषा।
प्रेम ही प्रेम ही प्रत्याशा।
प्रेम ही प्रेम ही परिभाषा। 00
2 गणित
प्रेम का गणित कुछ ऐसा
उलझ गया तो सुलझ गया।
जो सुलझाने बैठा उलझ गया। 00 3 राजनीति
राजनीति में प्रेम एक कुटनीति मगर प्रेम में राजनीति अनीति सिर्फ अनीति। 00
4 इतिहास
इतिहास की आँख में हमेशा किरकिरीसा चुभता रहा है प्रेम। फिर भी इतिहास में दाखिल होता रहा है प्रेम। 00
5 दर्शन
प्रेम जहाँ से शुरू होता है दुनिया भी शुरू होती है या यूँ भी कह लें कि जहाँ प्रेम खत्म होता है दुनिया भी हो जाती है खत्म। 00
6 अर्थशास्त्र
कल तक तो नहीं था
आज जरूर है प्रेम में अर्थशास्त्र और यही मेरी चिंता उनका दुःख है। 00
7 मनोविज्ञान
प्रेम किया तो क्या किया?
प्रेम नहीं किया तो क्या किया? 00
8 भूगोल
प्रेम के भवसागर से उतरा वही पार देह के भूगोल से जो रहा निरंकार। 00
9 पर्यावरण
न रंग है न गंध है न मादकता प्रकृत अलान्कारुपकरण नहीं।
चलो यहाँ से चले प्रेम के लिए यह अनुकूल पर्यावरण नहीं। 00 |