सोमवार, 29 जुलाई 2013

धर्मेन्द्र कटियार की ग़ज़लें


धर्मेन्द्र कटियार
जन्म:     जुलाई 05, 1950 को नसिरापुर, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: एम एस सी (कृषि)

देश के विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

एक गज़ल संग्रह मुल्क का मौसम प्रकाशित। दूसरा गज़ल संग्रह चेहरा रोशनी का  प्रकाशनाधीन ।

सम्प्रति:उत्तर प्रदेश सरकार के एक उपक्रम से सेवा निवॢत्त
सम्पर्क: 3/198, विकास खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ - 226010, उत्तर प्रदेश,
मोबाईलः09795677446
ईमेलः nathdharmendra@gmail.com

बीते ज़माने में महबूब की बात करने वाली ग़ज़ल आजकल समाज के सवाल उठाती है -

खड़े हुए प्रश्नों के जंगल दूर दूर तक
नज़र नहीं आता कोई हल दूर दूर तक

बेरोजगारी, भूख, पारिवारिक अलगाव, बलात्कार और पूंजीवाद का क्रूर चेहरा,  कई सवालों के साथ हमारा वर्तमान यही है। धर्मेन्द्र कटियार की ये ग़ज़लें देश की सड़कों पर आम आदमी की असुरक्षा पर प्रश्न उठाती है -

सफ़र महफ़ूज़ था कल यूँ सड़क का
चलन में आज का हफ़्ता नहीं था

तत्सम में इस बार धर्मेन्द्र कटियार की ग़ज़लें...। हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।

-         प्रदीप कांत
1
खड़े हुए प्रश्नों के जंगल दूर दूर तक
नज़र नहीं आता कोई हल दूर दूर तक

सूख गए हैं प्यार मोहब्बत के सरवर अब
भरा हुआ है आँखों में जल दूर दूर तक

लगता है जम चुका खून ही जनसागर का
देती नहीं दिखाई हलचल दूर दूर तक

आवाजाही कोठरियों में बढ़ी इस कदर
पाँवों पाँवों फैला काजल दूर दूर तक

किया कमल सा खिलने की कोशिश ने जितना
कभी नहीं था इतना दलदल दूर दूर तक

2
अफ़ीमी कौम का विश्वास ओढ़े
पड़े हैं जानवर सन्यास ओढ़े

पड़ेगी छोड़नी चादर सभी को
बिरहमन या उसे रैदास ओढ़े

मजूरी पेट भर पाई न जिसका
बिछाए याकि वो फुटपाथ ओढ़े

पिघलते किस तरह हम आँसुओं से
जलन थी आदतन चौमास ओढ़े

चुराई आँख जिसने भी समय से
पड़ा है कब्र में इतिहास ओढ़े

हज़ारो छेद हैं पेंदी में उसके
भला कैसे ज़मीं आकाश ओढ़े

3
ज़ीस्त जब से सयानी हुई
वक़्त की नौकरानी हुई

रंग देकर ज़मीं को हरा
रोशनी आसमानी हुई

पूँछ लंगूर-सी हो गयी
रीढ़ जब से कमानी हुई

देख बरसात नंगी ज़मीं
शर्म से पानी-पानी हुई

धूप में कौन निकले कि अब
रंग की क़द्रदानी हुई

4
होने को तालों में भी होता है पानी
पड़े पड़े चुपचाप मगर रोता है पानी

बिलोचाल कर अलग किनारे रख देता है
बहुत दूर तक रेत नही ढोता है पानी

जगा नहीं पाता उसको बरसों सूरज तक
गहरी नींद बर्फ़ होकर सोता है पानी

न्यौछावर कर अपने सारे रंगरुपगुण
दुनिया का मैला आँचल धोता है पानी

प्यास बुझाने को व्याकुल तपती धरती की
फूट-फूट कर धार-धार रोता है पानी

5
बिठा करके राजगद्दी पर विदेशी संस्कृति
बिछ गई है फ़र्श पर बाखुशी देसी संस्कृति

घूमते हैं लोग ख़ाली हाथ आवेदन लिये
पा रही लाइसेन्स केवल सूटकेसी संस्कृति

शुद्ध देसी घी के लेबिल से न धोखा खाइए
भरी डिब्बों में पड़ी है घासलेटी संस्कृति

सिर्फ़ सीधे रास्ते ही रास आते हैं हमें
सीखकर भी क्या करें फिर दाँवपेंची संस्कृति

लोग चींटों की तरह से चिपकते हैं इसलिए
बेचता है दूरदर्शन चाकलेटी संस्कृति

6
बदन पर पेड़ के पत्ता नहीं था
मगर इन्सान सा नंगा नहीं था

सफ़र महफ़ूज़ था कल यूँ सड़क का
चलन में आज का हफ़्ता नहीं था

खिलौने थे कभी पाटी बुदक्के
गु़लों की पीठ पर बस्ता नहीं था

चढ़ा है शाम का चश्मा सुबह पर
समय इतना कभी अन्धा नहीं था

गिरानी थी न पानी पर कभी यूँ
लहू भी आज-सा सस्ता नहीं था

बनाए हैं वहाँ भी पुल ग़ज़ल ने
जहाँ पर कल तलक रस्ता नहीं था

7
याद परिभाषा तलक जिनको नहीं परिवार की
बाँचने बैठे यहाँ वो भागवत संसार की

ज़िन्दगी जिसकी कटी हो तैरते मँझधार में
क्या कहेगा वो ग़ज़ल इस पार की उस पार की

दूब सा जो फैल पाया नहीं अपनी ज़मी पर
चाहता नापे वो ऊँचाई कुतुबमीनार की

नाक-नक़्शे हो गए हैं मुल्क के पैने ज़रुर
खटकती है कमी लेकिन बात की व्यवहार की

छप रही हैं इसलिए ख़बरें अँगूठाछाप अब
उँगलियाँ चटका रही हैं कुर्सियाँ अख़बार की

8
क्या दे दें उन्हें खून कलेजे को चीर के
दूकानदार हैं जो रंग औ अबीर के

बेरुह बदन पर न इन्हें आज़माइए
ढीले पड़ेंगे देह पर कपड़े फ़क़ीर के

कानों में ठूँस रक्खी हैं काज़ी ने उँगलियाँ
अब स्वप्न देखिए न यहाँ नीर-क्षीर के

नाहक बुलाने जा रहे लुकमान को मियाँ
इस घर में हैं मरीज़ महज़ मन की पीर के

होता है समझना अगर जीवन का फ़लसफ़ा
झुकता है अपना शीश पाँव पर कबीर के

शनिवार, 20 जुलाई 2013

खुरदुरे रास्ते ही पहुँचाते हैं राजमार्गों तक - महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ


जन्म: 10 मार्च 1971 को पिथौरागढ़ के लम्पाटा में

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी सौ से अधिक कविताएँ, लघुकथा, आलोचनात्मक लेख व समीक्षाएं- वागर्थ, कथादेश, बया, समकालीन जनमत, वर्तमान साहित्य, कृति ओर, कथन, लेखन सूत्र, प्रगतिशील वसुधा, आजकल, लोक गंगा, कथा, दि संडे पोस्ट, पाखी, आधारशिला ,पल प्रतिपल, उन्नयन,उत्तरा, पहाड़,  तेवर,बहाव, प्रगतिशील आकल्प, प्रतिश्रुति, युगवाणी,  पूर्वापर में प्रकाशित हुई हैं।
भय अतल में नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित। संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक। हिमाल प्रसंग के साहित्यिक अंकों का संपादन। उत्तराखंड स्कूली शिक्षा हेतु पाठ्पुस्तकों का लेखन व संपादन।
शिक्षा संबंधी अनेक राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय कार्यशालाओं में प्रतिभाग ।
शैक्षिक नवाचारों में विशेष रूचि ।
संप्रति- अध्यापन
सम्मान :  सूत्र सम्मान 2010 से विभूषित।
सम्प्रति :  अध्यापन।
सम्पर्क :  जोशी भवन, निकट लीडबैंक
जिला-पिथौरागढ़ 262530 (उत्तराखंड)।
मो - 9411707470
ई मेल:  punetha.mahesh@gmail.com
महेश चंद्र पुनेठा - एक ऐसा नाम जिसकी कविताएँ पढने को मिली तो लगा कि कितनी सहज सी कविताएँ हैं। हालांकि मैने उन्हे देखा नहीं फेसबुक संस्कृति के माध्यम से परिचय हुआ और उनका फोटो भी देखने को मिल गया। पिथौरागढ़ यानि पहाड़ और पहाड़ी प्रकृति सुन्दर-सरल किंतु जीवन जटिल। 

महेश अपने आसपास के सरल-सहज से बिम्ब-प्रतीक उठाते हैं और जटिल जीवन की अभिव्यक्ति कर डालते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि महेश की कविताएँ बड़बोली नहीं हैं कम कह कर भी बहुत कुछ जता देती हैं।

बहुत दिनो के बाद ही सही, तत्सम में इस बार महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ ...........

- प्रदीप कांत

1
दुःख की तासीर

पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात

मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख

देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।

2
क्या हुआ तुम्हें

तुम तो नहीं थे ऐसे नत्थू
क्या हुआ तुम्हें
बाजार का गणित तो
जानते ही नहीं थे तुम

चालाकी क्या होती है तुम्हें पता ही नहीं था
जो कहते थे सीधे-सपाट
मुँह के सामने कहते थे
पीठ पीछे बात करना तो तुम्हें कभी आया ही नहीं

किसी के घर पर आने पर
कितने खुश हो उठते थे तुम
जो भी होता था भीतर कुछ खास
निकाल लाते थे अतिथि सत्कार में
अपना धर्म समझते थे इसे 
तुम तो केवल देना जानते थे
नहीं देखा तुम्हें कभी
इस तरह मोल-तोल करते हुए

न किसी की जेब में हाथ डालते हुए
न गरदन दबोचते 

एक आवाज में दौड़ पड़ते थे तुम तो
अब तो तुम्हें आवाज सुनाई भी नहीं देती

कहाँ से सीख लिया यह सब तुमने
तुम तो नहीं थे ऐसे नत्थू
क्या हुआ तुम्हें?

3
ताकि

एक मीठे अमरूद की तरह हो तुम
जिसका
छया: प्रदीप कांत 
पूरा का पूरा पेड़ उगाना चाहता हूँ
मैं अपने भीतर
तुम फैला लो अपनी जड़ें मेरी
एक-एक नस में
पत्तियाँ एक-एक अंग तक
चमकती रहें जिनमें संवेदना की ओस
तुम्हारी छाल का
हल्का गुलाबीपन छा जाए मेरी आँखों में
होठों में
तुम्हारे भीतर की लालिमा
तुम फूलो-फलो जब
मैं फैल जाऊॅ
तुम्हारी खुशबू की तरह
दुनिया के कोने-कोने तक
ताकि
तुम्हारी तरह मीठी हो जाए सारी दुनिया।

5
खुरदुरापन
(कवि मित्र केशव तिवारी के लिए)

खुरदुरा ही है
जो जगह देता है किसी और को भी
पैर जमाकर खड़ा हुआ जा सकता है केवल
खुरदुरे पर ही
वहीं रूक सकता पानी भी ।
खुरदुरे पत्थर से ही
गढ़ी जा सकती हैं सुंदर मूर्तियां ।

उसी से ही खुजाता है कोई जानवर अपनी पीठ
साभार:गुगल चित्र सर्च 
खुरदुरे रास्ते ही पहुँचाते हैं राजमार्गों तक

परिवर्तन भी दिखता है खुरदुरे में ही
खुरदुरेपन के गर्भ में होती हैं अनेकानेक संभावनाएं
ऊब नहीं पैदा करता है खुरदुरापन 
खुरदुरी बातों में ही व्यक्त होता है जीवन सत्य
सच्चा प्रेम करने वालों की बातें भी होती हैं खुरदुरी
और बुजुर्गों की भी
खुरदुरा चेहरा देखा है अनुभवों से भरा ।

देर तक महसूस होता है खुरदुरे हाथों का स्पर्श
खुजली मिटती है अच्छी तरह खुरदुरे हाथों से ही
खुरदुरे हाथों में ही होती है शक्ति सहने की भी
खुरदुरे हाथों में होता है स्वाद
खुरदुरे पैरों में गति
सरसों के फूलों से घिरे
हरे-भरे गेहूँ के सीढ़ीदार खेतों
और दूर पहाड़ी की चोटी में बने घर में 
दिखाई देता है सौंदर्य उनका

सिल खुरदुरा
खुरदुरे चक्की के पाट
दाँत भी होते हैं खुरदुरे
कद्दूकस खुरदुरा
पहाड़ हैं कितने खुरदुरे
खुरदुरेपन में ही छुपी है इनकी शक्ति
रेगमाल की
खुरदुरी सतह से रगड़ पाकर ही बनती हैं सुंदर सतहें

बावजूद इसके सौंदर्यशास्त्र में
क्यों नहीं बना पाया खुरदुरापन अपना कोई स्थान
कहाँ है पेंच
किसने दिया यह सौंदर्यबोध

कितने कवि हैं पूरी आत्मीयता से जो कह सकते हों-
अपनी खुरदुरी हथेलियां छिपाएं नहीं
इनसे खूबसूरत इस दुनिया में कुछ भी नहीं है।

6
संतोषम् परम् सुखम्

पहली-पहली बार
दुनिया बढ़ी होगी एक कदम आगे
जिसके कदमों पर
अंसतोषी रहा होगा वह पहला।

किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा
पहली बार सुन्दर दुनिया का सपना

पहिए का विचार आया होगा
पहली-पहली बार
किसी असंतोषी के ही मन में
आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से
किसी असंतोषी ने ही ।

असंतुष्टों ने ही लाँघे पर्वत पार किए समुद्र
खोज डाली नई दुनिया

असंतोष से ही फूटी पहली कविता
असंतोष से एक नया धर्म

इतिहास के पेट में
मरोड़ उठी होगी असंतोष के चलते ही
इतिहास की धारा को मोड़ा
बार-बार असंतुष्टों ने ही

उन्हीं से गति है
उन्हीं से उष्मा
उन्हीं से यात्रा पृथ्वी से चाँद
और
पहिए से जहाज तक की

असंतुष्टों के चलते ही
सुंदर हो पाई है यह दुनिया इतनी
असंतोष के गर्भ से ही
पैदा हुई संतोष करने की कुछ स्थितियाँ ।

फिर क्यों
सत्ता घबराती है असंतुष्टों से
सबसे अधिक

क्या इसी घबराहट का परिणाम तो नहीं
यह नीति-वाक्य
संतोषम् परम् सुखम् ।

7
षड़यंत्र

तुम बुनती हो
एक स्वेटर
किसी को ठंड से बचाने को
और
मैं रचता हूँ
एक कविता
ठंड को खत्म करने को ।

गर्म रखना चाहती हो तुम
और
गर्म करना चाहता हूँ मैं भी।

कमतर ठहराता है जो
तुम्हारे काम को
जरूर कोई षड़यंत्र करता है