धर्मेन्द्र कटियार
जन्म: जुलाई 05,
1950 को नसिरापुर, जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश में
शिक्षा: एम एस सी (कृषि)
देश के विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
एक गज़ल संग्रह मुल्क का मौसम प्रकाशित। दूसरा गज़ल संग्रह चेहरा रोशनी का प्रकाशनाधीन ।
सम्प्रति:उत्तर प्रदेश सरकार के एक उपक्रम से सेवा
निवॢत्त
सम्पर्क: 3/198, विकास खण्ड, गोमती
नगर, लखनऊ - 226010, उत्तर प्रदेश,
मोबाईलः09795677446
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बीते ज़माने में महबूब की बात करने वाली ग़ज़ल आजकल समाज के सवाल
उठाती है -
खड़े हुए प्रश्नों के जंगल दूर दूर तक
नज़र नहीं आता कोई हल दूर दूर तक
बेरोजगारी,
भूख, पारिवारिक अलगाव, बलात्कार और पूंजीवाद का क्रूर चेहरा, कई सवालों के साथ हमारा वर्तमान यही है। धर्मेन्द्र
कटियार की ये ग़ज़लें देश की सड़कों
पर आम आदमी की असुरक्षा पर प्रश्न उठाती है -
सफ़र महफ़ूज़ था कल यूँ सड़क का
चलन में आज का हफ़्ता नहीं था
तत्सम में इस बार धर्मेन्द्र कटियार की ग़ज़लें...। हमेशा की तरह
आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
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प्रदीप
कांत
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1
खड़े हुए प्रश्नों के जंगल दूर दूर तक
नज़र नहीं आता कोई हल दूर दूर तक
सूख गए हैं प्यार मोहब्बत के सरवर अब
भरा हुआ है आँखों में जल दूर दूर तक
लगता है जम चुका खून ही जनसागर का
देती नहीं दिखाई हलचल दूर दूर तक
आवाजाही कोठरियों में बढ़ी इस कदर
पाँवों पाँवों फैला काजल दूर दूर तक
किया कमल सा खिलने की कोशिश ने जितना
कभी नहीं था इतना दलदल दूर दूर तक
2
अफ़ीमी कौम का विश्वास ओढ़े
पड़े हैं जानवर सन्यास ओढ़े
पड़ेगी छोड़नी चादर सभी को
बिरहमन या उसे रैदास ओढ़े
मजूरी पेट भर पाई न जिसका
बिछाए याकि वो फुटपाथ ओढ़े
पिघलते किस तरह हम आँसुओं से
जलन थी आदतन चौमास ओढ़े
चुराई आँख जिसने भी समय से
पड़ा है कब्र में इतिहास ओढ़े
हज़ारो छेद हैं पेंदी में उसके
भला कैसे ज़मीं आकाश ओढ़े
3
ज़ीस्त जब से सयानी हुई
वक़्त की नौकरानी हुई
रंग देकर ज़मीं को हरा
रोशनी आसमानी हुई
पूँछ लंगूर-सी हो गयी
रीढ़ जब से कमानी हुई
देख बरसात नंगी ज़मीं
शर्म से पानी-पानी हुई
धूप में कौन निकले कि अब
रंग की क़द्रदानी हुई
4
होने को तालों में भी होता है पानी
पड़े पड़े चुपचाप मगर रोता है पानी
बिलोचाल कर अलग किनारे रख देता है
बहुत दूर तक रेत नही ढोता है पानी
जगा नहीं पाता उसको बरसों सूरज तक
गहरी नींद बर्फ़ होकर सोता है पानी
न्यौछावर कर अपने सारे रंगरुप–गुण
दुनिया का मैला आँचल धोता है पानी
प्यास बुझाने को व्याकुल तपती धरती की
फूट-फूट कर धार-धार रोता है पानी
5
बिठा करके राजगद्दी पर विदेशी संस्कृति
बिछ गई है फ़र्श पर बाखुशी देसी संस्कृति
घूमते हैं लोग ख़ाली हाथ आवेदन लिये
पा रही लाइसेन्स केवल सूटकेसी संस्कृति
शुद्ध देसी घी के लेबिल से न धोखा खाइए
भरी डिब्बों में पड़ी है घासलेटी संस्कृति
सिर्फ़ सीधे रास्ते ही रास आते हैं हमें
सीखकर भी क्या करें फिर दाँवपेंची संस्कृति
लोग चींटों की तरह से चिपकते हैं इसलिए
बेचता है दूरदर्शन चाकलेटी संस्कृति
6
बदन पर पेड़ के पत्ता नहीं था
मगर इन्सान सा नंगा नहीं था
सफ़र महफ़ूज़ था कल यूँ सड़क का
चलन में आज का हफ़्ता नहीं था
खिलौने थे कभी पाटी बुदक्के
गु़लों की पीठ पर बस्ता नहीं था
चढ़ा है शाम का चश्मा सुबह पर
समय इतना कभी अन्धा नहीं था
गिरानी थी न पानी पर कभी यूँ
लहू भी आज-सा सस्ता नहीं था
बनाए हैं वहाँ भी पुल ग़ज़ल ने
जहाँ पर कल तलक रस्ता नहीं था
7
याद परिभाषा तलक जिनको नहीं परिवार की
बाँचने बैठे यहाँ वो भागवत संसार की
ज़िन्दगी जिसकी कटी हो तैरते मँझधार में
क्या कहेगा वो ग़ज़ल इस पार की उस पार की
दूब सा जो फैल पाया नहीं अपनी ज़मी
पर
चाहता नापे वो ऊँचाई कुतुबमीनार की
नाक-नक़्शे हो गए हैं मुल्क के पैने ज़रुर
खटकती है कमी लेकिन बात की व्यवहार की
छप रही हैं इसलिए ख़बरें अँगूठाछाप अब
उँगलियाँ चटका रही हैं कुर्सियाँ अख़बार की
8
क्या दे दें उन्हें खून कलेजे को चीर के
दूकानदार हैं जो रंग औ अबीर के
बेरुह बदन पर न इन्हें आज़माइए
ढीले पड़ेंगे देह पर कपड़े फ़क़ीर के
कानों में ठूँस रक्खी हैं काज़ी ने उँगलियाँ
अब स्वप्न देखिए न यहाँ नीर-क्षीर के
नाहक बुलाने जा रहे लुकमान को मियाँ
इस घर में हैं मरीज़ महज़ मन की पीर के
होता है समझना अगर जीवन का फ़लसफ़ा
झुकता है अपना शीश पाँव पर कबीर के
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सोमवार, 29 जुलाई 2013
धर्मेन्द्र कटियार की ग़ज़लें
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