शुक्रवार, 27 जून 2014

एक दिन याद नहीं रह जाएगा फूहड़ गानों के बीच राष्ट्रगान – नीलोत्पल की कविताएँ



पानी से नदारद होगा पानी
आग से आग
दर्द से दर्द
 
कहा जा सकता है कि युवा कवि नीलोत्पल की ये पंक्तियाँ बहुत आगे की सोचती हैं किंतु ये हमारा वर्तमान बनती जा रही है। चीज़ें गड्ड्मड्ड है, जो दिखता है वह है नहीं वरन वह उसके होने का आभास है। नीलोत्पल के कवि को अहसास है कि उसके तमाम हिस्सों पर प्यार से हक़ जमाया जा रहा है-
 
एक दिन लौटाया नहीं जाएगा
हमारे हिस्से का आकाश

नीलोत्पल की कविताएँ चौंकाती नहीं, वरन बिना किसी शोरगुल के इस समाज के साधारण से आदमी की चिंताओं की बात करती हैं और कहती हैं कि स्वीकार करने में वक़्त लगता है तत्सम में इस बार नीलोत्पल की कुछ कविताएँ...

प्रदीप कांत
एक दिन

एक दिन मिटा दिया जाएगा
इतिहास के पन्नों से हमारा नाम

एक दिन ढहा दिए जाएँगे
हमारे ईमानों के घर

एक दिन सच रह जाएगा
विस्मृत पुण्यतिथि की तरह

एक दिन काटा जाएगा
बकरे की तरह हमारा प्यार

एक दिन खूँद दी जाएँगी
घोड़ों की टापों से उठने वाली आवाज़ें

एक दिन लौटाया नहीं जाएगा
हमारे हिस्से का आकाश

एक दिन धर्मांध लोग होंगे
फ़साद की सबसे बड़ी जड़

एक दिन याद नहीं रह जाएगा
फूहड़ गानों के बीच राष्ट्रगान ।
0000

पानी से नदारद होगा पानी
 
आने वाले दिनों की
नाउम्मीदगी के बारे में
कोई बात नहीं
 
नीलोत्पल

 
जन्म: 23 जून, 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश
शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन
प्रकाशन: पहला कविता संकलन अनाज पकने का समयभारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2009 में प्रकाशित
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं निरंतर प्रकाशित, जिनमें प्रमुख हैं: नया ज्ञानोदय, वसुधा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, बया, साक्षात्कार, अक्षरा, काव्यम, समकालीन कविता, दोआब, इंद्रप्रस्थ भारती, आकंठ, उन्नयन, दस्तावेज़, सेतु, कथा समवेत सदानीरा, इत्यादि
पत्रिका समावर्तन के युवा द्वादशमें कविताएं संकलित
पुरस्कार: वर्ष 2009 में विनय दुबे स्मृति सम्मान
सम्प्रति: मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव
सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश
मो.: 098267-32121 094248-50594
मैं तुमसे नहीं कहूंगा
वह पेड़ जो गिराया गया जा चुका
हम उस खाली जगह पर
दस साल, सौ साल या हजारों सालों तक
लिखते रहेंगे अफसाने लेकिन
जिनके लिए छांह तक नहीं होगी
 
वक्त इसी तरह कटता रहेगा
पानी से नदारद होगा पानी
आग से आग
दर्द से दर्द
 
ट्रेने पटरियों पर दौडेंगी
मगर मुश्किल होगा
कि एक आध हिलता हाथ
पीछा करे तुम्हारा अदृश्य होने तलक
 
सारी रोशनियां, सारा प्यार,
पत्तियां, गीली आंखे, चट्टानों पर बजता संगीत
भरे जा चुके होंगे बंद बोरों में
जिनकी गांठ के सिरे
खोए होंगे हमारी याददाश्त के भीतर
 
यह जानते हुए
और नहीं जानते हुए भी
कि कल को तुम्हारी जरुरत है
अनुपलब्ध मिलोगे तुम
और किसी पुल के नीचे गहरे अंधकार से
गुजरते हुए
याद नहीं रहेगा तुम्हें अपना पता
 
ठीक यह किसी तरह तो होगा
अगर सब कुछ इसी ढंग से चलता रहा
000

स्वीकार करने में समय लगता हैं
 
जड़ों में रोपे हुए सच
बिखर जाएंगे एक दिन
काम और ईर्ष्या के बीच
उलझा जीवन
मांगता है पनाह
 
जरुरी नहीं जो तुमने कहा है
वह अंत तक वैसा ही बना रहेगा
आखिर तक
नदी भी धाराओं और किनारों में बदल जाती हैं
 
मैं क्या हूं इसकी चिंता नहीं
दस्तख़त भी नहीं बचा पाते
सिवाए बैंक खातों, आवेदनों
और मेरी अस्पष्ट सी पहचान को
मृत्यु के बाद वे भी संदिग्ध
मान लिए जाएंगे
कहानियाँ जहां खत्म होती हैं
मोड़ हैं वे सन्नाटे भरे
इनके बाद उनकी अपूर्णता के लिए
कोई इशारा नहीं

कविताएँ जिन्हें बचाने के लिए नाकाफी है किताबें
लाईब्रेरी के शेल्फ़ों में नहीं
उन्हें तो होना चाहिए हमारे बीच
ताकि उनकी कब्रों से भी
प्राप्त की जा सकें आखिरी तस्वीर
 
कोई एक सवाल पूरा नहीं होगा
हमारी दुश्चिंताओं के लिए
य़कीनन घिरना होगा
अपने ही बनाए सवालों और अधूरेपन से
000
 
रिश्ते सीढ़ियों की तरह
 
रिश्ते सीढ़ियों की तरह हैं
कोई चढ़ता है, कोई उतरता है
लेकिन लाजवाब बात है
दोनों ही सूरतों में

आदमी ख़ूब जीता है
क्यों सीढ़ियाँ लक्ष्य तय नहीं करतीं
क्योंकि जहाँ लक्ष्य है
वहाँ केवल व्यापार

सीढ़ियाँ माध्यम हैं
इसलिए वह सम्पन्न होती हैं हर बार
नए सिरे से खुलने के लिए... ।
000

असंभव छवि की तरह
 
सारी घाटियाँ, उड़ रही है पतंगों की तरह ..
.
तुम्हारी गर्म हथेलियाँ
चिपकी है एक ठंडे पहाड़ से
 
भाप की तरह है
तुम्हारा नदी की सतह से उठना
जिसने स्थगित कर दिया सुबह को
 
मैं गीले कोहरे में
तुम्हारी छाती में दबी इच्छाओं की ओर जाता हूं
 
जैसे कि मैं नहीं जानता
बर्फ के एक टुकड़े में जमा है कितनी बूंदे

कुछ तितलियां जिन्हें मुश्किल हैं छूना
तुम वहाँ हो

तुम्हारी आंखों में दिखते हैं तैरते बादल
एक-एक कर मैं उनमें उतरता हूं
 
जैसे सारी तितलियां बन गई हैं लहरें और
तुम एक अनजान बारिश
 
घाट की कुछ सीढियां डूबी हुई हैं
फिर भी दिखते हैं तुम्हारे पैरों के निशान
लहरों की सम्पूर्ण गोलाईयों में
उभारा है तुमने चित्र मेरा
असंभव छवि की तरह
000