शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

पवन शर्मा की लघुकथाएँ

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पवन शर्मा
संपर्क: विद्या भवन, सुकरी चर्च, जुन्नारदेव-480551 जिला-छिंदवाड़ा (छत्तीसगढ़)
मोबाइल: 094258 37079
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सामाजिक सरोकारों की लघुकथाएँ

लघुकथा के लिये घर-परिवार और सामाजिक संवेदनाओं के बीच से कथानक चुनना और लघुकथा में उनका निर्वाह पूरी संवेदनात्मक जिम्मेदारी से करना एक बेहद मुश्किल कार्य है किंतु अपनी लघुकथाओं में पवन शर्मा इस कार्य को पूरी संवेदनात्मक जिम्मेदारी के साथ करते हैं। ऐसा लगता है कि कथानक उनके सामने ही घटित हुआ हो। हाल में उनकी 100 लघुकथाओं का संग्रह हम जहाँ हैं, पंकज बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। तत्सम में उक्त संग्रह से दो लघुकथाएँ ... जो हमें लघुकथा के वरिष्ठ और महत्पूर्ण हस्ताक्षर बलराम अग्रवाल जी के सौजन्य से साभार प्राप्त हुई हैं।

- प्रदीप कांत
लँगड़ा
एकदम सन्नाटा…कहीं-कहीं कुत्तों के भौंकने से सन्नाटा भंग हो जाता है। जहाँ-जहाँ बिजली के खम्भे थे, वहाँ-वहाँ प्रकाश फैला हुआ था, बाकी जगह अँधेरा था। सन्नाटे को भंग करती उसकी बैसाखियाँ और बैसाखियों पर झूलता वह आगे बढ़ रहा था। यही…ग्यारह-बारह साल का लड़का था वह।
सामने, बिजली के खम्भे के प्रकाश में उसने देखाकोई खड़ा है। मन-ही-मन घबराने लगा। लेकिन बैसाखियों पर झूलता वह आगे बढ़ रहा था। नज़दीक जाकर देखाउसी की उम्र का, मैले, कई जगह से फटे, कपड़े पहने कोई लड़का है। मन थोड़ा शांत हो गया उसका।
कहाँ से आ रहा है? नज़दीक आने पर लड़के ने उससे पूछा।
स्टेशन से।
क्या कर रहा था वहाँ अभी तक? लड़के ने फिर पूछा।
कैंटीन में कप-प्लेट धो रहा था। निश्चिंतभाव से उसने उत्तर दिया और आगे बढ़ने लगा। लड़का भी उसके बराबर हो लिया।
कितना कमाया है? लड़के ने चलते-चलते अंधेरे में ही पूछ लिया।
सात रुपया…सुबह से अभी तक के…काम पूरा कर लिया। उसका चेहरा दयनीय हो उठा।
तू झूठ बोल रहा है। सुबह से अभी तक के कम-से-कम दस का पत्ता होना था। सामने बिजली के खम्भे के बल्ब का प्रकाश उन दोनों के ऊपर आने लगा। पीछे, उन दोनों की परछाइयाँ काफी बड़ी थीं।
सच में…सात ही दिए कैंटीन वाले ने। और सहजभाव से उसने हाफ-पैंट की जेब में से एक-एक के तुड़े-मुड़े सात नोट दिखाए और बोला,अम्मा बीमार थी। इस वज़ह से ही मुझे काम पर जाना पड़ा आज।
बिजली के खम्भे के निकट पहुँचकर लड़का बोला,दिखा…गिनकर देखता हूँ…साले काम तो करवाते हैं, लेकिन पैसे पूरे नहीं देते।
पूरे सात हैं। उसने कहा और रुपए लड़के को थमा दिए।
लड़का रुपयों को गिनने लगा। एक…और एक नोट उसको पकड़ा दिया। दो…एक और नोट उसको पकड़ा दिया। तीन…फिर एक नोट उसको पकड़ा दिया। चार…वह हाथ बढ़ा ही रहा था कि लड़का भाग खड़ा हुआ। वह चौंक गया।
ऐ…ऐ…मेरे रुपये तो देता जा! बैसाखियों के सहारे वह आगे बढ़ा…लेकिन लड़का अंधेरे में खो चुका था। विवशता से उसकी आँखों में आँसू आ गए…फिर एकाएक गुस्से से उसके चेहरे पर तनाव आ गया, साला…लँगड़ा…सालादो पैर का लँगड़ा…साला…।
०००००
यथार्थ
सब शांत हैं - अम्मा, बाबूजी, सुनीता और पलंग पर लेटा सुरेश। गहरी समस्या है इनके सामने। शिरीष की माँ का खत आया है कि आप लोग हाँ कह दें तो जल्दी मुहुर्त निकलवा लूँ, जिससे इस काम से मुझे मुक्ति मिल जाए।
शिरीष जैसा लड़का अगर हाथ से निकल गया तो और-लड़के मिलने मुश्किल हैं। बाबूजी ने कहा।
अरे! लड़के मिल ही कहाँ रहे हैं…मिल भी रहे हैं तो पच्चीस-पच्चीस हजार की माँग करते हैं। शिरीष की माँ ने कहा हैदेखो बहन, मुझे लेना-देना कुछ है नहीं। लड़की सुशील होनी चाहिए। मैंने कह दियाहमारी सुनीता भी किसी दूसरी लड़की से कम नहीं है…और…।
शिरीष…शिरीष…शिरीष! जब देखो, तब शिरीष का गुणगान करते रहते हैं ये लोग।
इसके हाँ कहने-भर की देर है, उधर तो तैयार हैं। बाबूजी ने कहा।
ऐसा करो…तुम कल जाकर शिरीष की माँ से कह दोजल्दी मुहूर्त निकलवा लें। अम्मा ने बाबूजी से कहा।
नहीं…नहीं कहना है हाँ। मैं शिरीष से शादी नहीं करूँगी। सुनीता बोली और खड़ी हो गई।
आखिर क्यों बेटी? अम्मा ने पूछा।
बाबूजी ने उसकी तरफ देखा…सुरेश वैसे ही लेटा रहा।
बस, यों ही…पढ़ी-लिखी हूँ…अपना अच्छा-बुरा समझती हूँ। सुनीता ने कहा,मैं आपसे सिर्फ एक बात पूछना चाहती हूँ अम्मा…बिना नौकरी के शिरीष मेरा तथा मेरे बच्चे का पेट कैसे भरेगा?…माना कि वह अच्छा है…खूबसूरत है…खानदानी है। लेकिन अच्छाई और खूबसूरती से तो किसी का पेट भर नहीं जाएगा। कब तक अपने बाप के पैसों से घर का खर्च चलाएगा!…बस, इसी वज़ह से मैं शिरीष से शादी कर नहीं सकती अम्मा! कहकर सुनीता दरवाज़ा खोलकर अपने कमरे में चली गई।
…और एकदम सन्नाटा फैल गया। उसी सन्नाटे में अम्मा और बाबूजी वैसे ही बैठे रहे…सुरेश वैसे ही लेटा रहा पलंग पर…। आगे एक सच खड़ा था।
०००००
छायाचित्र: प्रदीप कान्त

5 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

प्रदीप जी आपका आभार कि आपने पवन जी की लघुकथाएं पढ़वाईं। क्षमा करें, ये लघुकथाएं पवन जी का बहुत कमजोर परिचय देती हैं। अगर ये उनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं तो बहुत कमजोर हैं।
पहली लघुकथा पहली दो लाइनों में ही यह बता देती है कि अंत क्‍या होगा। इसीलिए वह अंत में चौंकाती नहीं है।
दूसरी लघुकथा एक अच्‍छी लघुकथा बनते बनते रह गई लगती है। एक सजग पाठक यह समझ लेता है कि सुरेश और शिरीष दोनों की हालत एक जैसी है पर न तो लघुकथा में यह कहीं स्‍पष्‍ट होता है और न वह चौंकती या मार करती है। क्‍योंकि सुनीता के सवाल वाजिब हैं।

चोकसे दिलीप ने कहा…

लघुकथाएं सूक्ष्म प्रकाश डालने वाली है………॥ आपका आभार कि आपने पवन शर्मा जी की लघुकथाएं पढवाईं………॥

saloni ने कहा…

bahut bhavuk kar dene wali laghukathaye
pankaj sharma ji se parichay karwane k liye dhanyawad

Ashok Kumar pandey ने कहा…

परिचय के लिये आभार

SATYA ने कहा…

परिचय के लिये आपका आभार.
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