विजय गौड़ प्रकाशन: विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानी व कविताओं और प्रकाशन
सबसे ठीक नदी का रास्ता (कविता संग्रह - 2009), फांस (उपन्यास - 2011) सम्प्रति: ऑर्डीनेंस फेक्ट्री, देहरादून में कार्यरत सम्पर्क: पिपली रोड, पानी की टंकी के पास, पोस्ट – बद्रीपुर, देहरादून – २४८००५ फोन: ०१३५ २६६५५०४, ०९४११५८०४६७
युवा कवि विजय गौड़ की कविताओं में अपना आसपास शिद्दत से झलकता है। तत्सम में इस बार विजय गौड़ के ताजा कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता पर युवा कवि प्रदीप मिश्र की टिप्प्णी के साथ विजय गौड़ की कविताएँ -प्रदीप कांत |
मत हिलाओ हवा में / इस तरह अपने को पेड़ /कि तुम्हारे पत्ते / साहब की गाड़ी पर गिरें/ साखों पर घोंसला बनाए / पक्षी से कहो, /यदि बीट करनी है तो / चले जाओ यहाँ से /नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है /मत बनो इतने सर्जक / कि पके हुए पफलों को देखकर / बच्चे ललचाएं और पत्थरबाजी करें / पेड़ यदि रहना चाहते हो जीवित /तो ध्यान रखो /नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है चमकती हुई। (नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है) इन पंक्तियों के कवि विजय गौड़ के ताजा कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि हमारे समय के कवि होने वाले परिवर्तन को प्रति जागरूक हैं और अपनी भविष्य दृष्टि को काव्यगत करने में दक्ष है। कविता के व्याकरण में हस्तक्षेप करने के लिए जरुरी संवेदनात्मक ज्ञान से भरे कवि विजय गौड़ के इस संग्रह में कुल ५९ कविताएं संग्रहित हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए एक तरह का व्यंग्य प्रस्फुटित होता है। व्यंग्य के तह में उतरते हुए हमें हमारा समय स्पष्ट दिखाई देता है और आम आदमी की पीड़ा मुखर होती है, उदाहरण के लिए निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है- बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट पफंड / फिर चाहे घर बेचो / दुकान बेचो / खेत बेचो, खदान बेचो / बांसुरी की तान बेचो / बेचो-बेचो इस / निकम्मे हिन्दुस्तान को बेचो / बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट फंड। (कर्मचारी) यहां पर कवि की संवेदना एक आम कामगार से जुड़ती है और उसके अंदर के आक्रोश को रचनात्मक व्यंग्य की तरह से कविता की संरचना में खड़ी करती है। एक कामगार जो अपने पसीने की बूंदे निचोड़-निचोड़ कर इस देश को समृद्ध करने में पूरा जीवन खपा देता है, क्या उसे सिर्फ वेतन और ग्रेच्युटी चाहिए। नहीं उसकी अपेक्षा अपने शासकों से ज्यादा है, वह अपने देश में खुशहाली और वास्तविक विकास चाहता है। लेकिन उसे घोटालों और राजनीतिक सौदेबाजियों की घिनौनी उपलब्धियाँ मिलती हैं। अपनी बेबसी को अभिव्यक्त करते हुए कहता है कि -बस बची रहे मेरी पेंशन / ग्रेच्युटी / मेरा प्रोवीडेंट फंड। उसे यही तर्क देकर शासक भी अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कर लेते हैं। जीवन में हमेशा ही कुछ कम होने की और अपेक्षाओं के अतिक्रमण को सहते हुए ही कवि यह लिखता है कि- बचपन के उन दिनों में / नहीं रहा उतना बच्चा / जितना खरगोश / जितना गिलहरी / ........../फिर बुढ़ापे के उन दिनों में / कैसे होऊंगा ऐसा बूढ़ा / जितना बरगद का पेड़। (जवानी के इन दिनों में) यहाँ पर बरगद होने की कल्पना है जो एक पूर्ण जीवन का प्रतीक है और आज के समय में पूर्ण जीवन लगातार संकट में है। यहाँ पर सवाल आज के विकसित समाज के तर्क पर है। यह वैज्ञानिक विकास के लिए एक चुनौती की तरह है। इसी क्रम में कवि हमारे समाज का दूसरा पहलू भी देखता है जहाँ स्कूल जाने के दिनों में बच्चे रोजी-रोटी में लग जाते हैं और सेठ को शोषण से उनका बचपना अतिक्रमित हो जाता है- वह झट कहेगा / दुकानदार की झिड़क जैसा होता है। (मिट्टी के तेल के साथ चीनी का स्वाद) । इन पंक्तियों को पढ़ते हुए जब हम कवि की अगली कविता पर पहुँचते है तो वह हमारी सारी इन्ज्रियों को झकझोर कर ऱख देता है। वह लिखता है- मैं समय के साथ चलते हुए / साइकिल के पहियों से / जुड़ जाना चाहता हूँ / चलना चाहता हूँ सट कर सड़क से / मुझे जबरदस्ती / पैडल तक न पहुँचाया जाए / और न ही / हैण्डल बनाकर किसी भी तरफ घुमाया जाए । (इस्तेमाल ) यह छोटी सी कविता हमारे समय की बहुत बड़ी त्रासदी का आख्यान है। जिसके कई पाठ हैं और पाठ में एक सशक्त विरोध है, जो अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ है। यहाँ पर कवि के कलात्मक कौशल का भी साक्षात्कार मिलता है और आश्वस्ति मिलती है कि कवि हमारे समय को सठीक अभिव्यक्ति देने में समर्थ है। इस तरह की बहुत सारी पंक्तियों को निकाला जा सकता है जो कवि के सार्थक प्रसाक को प्रमाणित करते हैं। संग्रह की दुसरी खूबसूरती प्रकृति मुलक कविताएं हैं। जहाँ पेड़-पहाड़-पंक्षी-नदी और मौसम अनेका-अनेक बिम्बों में उपस्थित हैं। यहाँ पर दिसम्बर के दो चित्र रखना कवि के दृष्टिबोध को समझने के लिए जरूरी है- रोहतांग की ऊँचाई पर भी / बर्फ नहीं है / मड़ई में भी नहीं / भुट्टे बेचने वाला लड़का / सिपर्फ इंतजार करता रहा/ भुट्टों को सेंकने का। (दिसम्बर) दिसम्बर को ही लेकर एक दूसरी कविता के अंश भी देखें कि - आस्थओं का जनेऊ / कान पर लटका / चौराहे पर मूतने का वर्ष /बीत रहा है /बीत रहा है /प्रतिभूति घोटालों का वर्ष /सरकारों के गिरनेऔर / प्रतीकों के हनने का वर्ष /.अपनी अविराम गति के साथ / बीत रहा है /........ /हर बार जीतने की उम्मीद के साथ हारने का वर्ष। (दिसम्बर 1992) इन दोनों कविताओं में दिसम्बर है लेकिन एक तरफ प्राकृतिक चेतना है तो दूसरी तरफ राजनीतिक चेतना। यह कवि के दायित्वबोद का प्रमाण है और इस बात की स्थापना भी कि कवि समसामयिक को लेकर कितना सतर्क है। यह हर कवि की जिम्मेदारी है। इस तरह से नेट वर्क मार्केटिंग, यांत्रिक नहीं है जीवन, संदर्भ : उत्तराखण्ड आंदोलन ,ब़ढ़े चलो, टिहरी को याद करते हुए, बच्चों, पिता कानाम, मित्रों से बिछुड़ने पर, पत्नी के लिए, प्रेमिका के लिए,तथा वे गांधीवादी हैं कविताओं पर विस्तार से बात की जा सकती है।
कविता संग्रह - सबसे ठीक नदी का रास्ता प्रकाशक : धाद प्रकाशन, देहरादून, मुद्रक : शब्द संस्कृति प्रकाशन 74ए, न्यू कनॉट प्लेस, देहरादून, मो. 9219510932 मूल्य : पेपर बैक रु. 50.00 सजिल्द रु. 100.00 |
इन कविताओं में कई पाठ समाहित हैं और पाठक से उसके विवेक का सम्मिलन चाहते हैं। इन कविताओं को पढ़ने और समझने में कवि की आत्माभिव्यक्ति बहुत सहायक है जो पुस्तक के शुरू में दी गयी है। उसका एक अंश यहाँ पर देना समीचीन होगा- अपनी बात पूरी तरह से पाठक तक सम्प्रेषित न हो पाने की आशंकाओं से घिरा होने के कारण कहींकहीं मेरी कविताएं विवरणात्मक होने लग जाती हैं, बल्कि यह बात तो मैं अपनी पूरी रचना प्रक्रिया में देख रहा हूँ कि अक्सर ही मैं विधा विशेष की शस्त्रीयता का अतिक्रमण करने लगता हूँ। जिस वक्त कुछ लिखना शुरु करता हूँ, कोई फ्रेम मौजूद नहीं होता। कोई एक छोटा, बिन्दुसा संवेदन होता है, जो लिखने के लिए मजबूर करता है। कविता, कहानी, संस्मरण, उसे क्या होना है, तय नहीं रहता, फिर भी किसी एक फ्रेम में तो उसे कसना ही होता है, लेकिन लिख दिए जाने के बाद पाता हूँ कि विधविशेष की कसौटियों पर एक ठीकठाक रचना बनने में कुछ छूट जा रहा है। उस छूट गए को रचने की जिद मुझे विध की शासत्रीयता को तोड़ने के लिए मजबूर करती है। विजय का रचनाक्रम हमारे समय की जरूरत की तरह है और इस संग्रह की कविताएं पाठक को जीवन विवेक देने में सक्षम हैं। और अपनी बात उनकी ही कुछ पंक्तियों के साथ पूरा कर रहा हूँ-- मौन, मौन / कब तक रहोगे मौन /हँसो, हँसो /कब तक रहोगे मौन / रोओ, रोओ कब तक रहोगे- मौन / चिल्लाओ कि पफट पड़े बादल / गाओ कि बह चले अंधड़।
-प्रदीप मिश्र, 72ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, इन्दौर-09 मो: 0919425314126
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नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है
मत हिलाओ हवा में
इस तरह अपने को पेड़
कि तुम्हारे पत्ते
साहब की गाड़ी पर गिरें
साखों पर घोंसला बनाए
पक्षी से कहो,
यदि बीट करनी है तो
चले जाओ यहाँ से
नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है
मत बनो इतने सर्जक
कि पके हुए फलों को देखकर
बच्चे ललचाएं और पत्थरबाजी करें
पेड़ यदि रहना चाहते हो जीवित
तो ध्यान रखो
नीचे साहब की गाड़ी खड़ी है
चमकती हुई।
2
कर्मचारी
बस बची रहे मेरी पेंशन,
ग्रेच्युटी
मेरा प्रोवीडेंट फंड
फिर चाहे घर बेचो
दुकान बेचो
खेत बेचो, खदान बेचो
बांसुरी की तान बेचो
बेचो-बेचो इस
निकम्मे हिन्दुस्तान को बेचो
बस बची रहे मेरी पेंशन,
ग्रेच्युटी
मेरा प्रोवीडेंट फंड।
3
जवानी के इन दिनों में
बचपन के उन दिनों में
नहीं रहा उतना बच्चा
जितना खरगोश
जितना धन का पौधा
जवानी के इन दिनों में
नहीं हूँ इतना जवान
जितना गाय का बछड़ा
अमरूद का पेड़
फिर बु़ापे के उन दिनों में
कैसे होऊँगा ऐसा बू़ढ़ा
जितना बरगद का पेड़।
4
मिट्टी के तेल के साथ चीनी का स्वाद
राशन की दुकान पर
सामान तौलते लड़के से पूछो,
तेरी कमीज का
कॉलर कहां है?
तेरी पैंट का मुख्य बटन कहां है?
वह कुछ नहीं कहेगा,
चुपचाप गर्दन नीचे झुका
पैर के अंगूठे से
बनाने लगेगा आकृतियां
पर जब तुम पूछोगे,
मिट्टी के तेल के साथ
चीनी का स्वाद कैसा होता है?
वह झट कहेगा,
दुकानदार की झिड़क जैसा होता है।
5
इस्तेमाल
मैं समय के साथ चलते हुए
साइकिल के पहियों से
जुड़ जाना
चाहता हूँ
चलना चाहता हूँ
सट कर सड़क से
मुझे जबरदस्ती
पैडल तक न पहुँचाया जाए
और न ही
हैण्डल बनाकर
किसी भी तरफ घुमाया जाए।
छायाचित्र: प्रदीप कांत
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8 टिप्पणियां:
Nice.Keep it up.
लोक सेवक अफसर बने बैठे है। अहंकार में मदमस्त
बताओ सेवा करेंगे या रौब गाठेंगे
बहुत अच्छा लिखा है.
विजय गौड़ की काव्यदृष्टि पैनी है. वे बात को वहाँ से पकड़ लाते हैं, जहाँ हम उस के होने की भी उम्मीद नही करते. साहब की कार पढ़ कर जसवीर चावला की पंक्तियाँ याद आ गई-- " छाया, कार छोड़े जा रहा हूँ , तुम्हारे नीचे, खयाल रखना " :)
विजय गौड़ ji ko unke कविता संग्रह
..सबसे ठीक नदी का रास्ता ke liye haardik shubhkamna avam aapka sundar saargarbhit prasutit ke liye aabhar
बहुत उत्तम भाव ....अपना प्रयास जारी रखें ....शक्रिया
बेहतर...
पुस्तक-प्रस्तुति...और कविताएं...
सही कहा आपने कविता जीवन भी देती है और विवेक भी. अच्छी समीक्षा . बधाई स्वीकारें- अवनीश सिंह चौहान
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बढि़या. विजय गौड़ की कविताएं खोलने में सहायक समीक्षा.
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