सोमवार, 28 मार्च 2011

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ

भवानी प्रसाद मिश्र का नाम हिन्दी के उन मह्त्वपूर्ण कवियों में से लिया जाता है जिनकी कविताएँ पाठकों से पाठकों की भाषा में ही बात करती है और बहुत गहरे तक वार करती है। तत्सम में इस बार भवानी प्रसाद मिश्र की कुछ कविताएँ...। पुरानी होने के बावजूद आज भी कविताओं की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता।

- प्रदीप कान्त

भवानी प्रसाद मिश्र

(29 मार्च 1913-20 फरवरी 1985)

कुछ प्रमुख कृतियाँ: कविता संग्रह- गीत फरोश, चकित है दुख, गाँधी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल संध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, तुम आते हो, इदंन मम्, शरीर कविता फसलें और फूल, मान-सरोवर दिन, संप्रति, अँधेरी कविताएँ, तूस की आग, कालजयी, अनाम और नीली रेखा तक। इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए तुकों के खेल, संस्मरण जिन्होंने मुझे रचा और निबंध संग्रह कुछ नीति कुछ राजनीति भी प्रकाशित हुए।


सम्मान: "बुनी हुई रस्सी" नामक रचना के लिये 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार।

1

कठपुतली


कठपुतली

गुस्‍से से उबली

बोली- यह धागे

क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?

इन्‍हें तोड़ दो;

मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो।


सुनकर बोलीं और-और

कठपुतलियाँ

कि हाँ,

बहुत दिन हुए

हमें अपने मन के छंद छुए।


मगर...

पहली कठपुतली सोचने लगी-

यह कैसी इच्‍छा

मेरे मन में जगी?


2

गीत-फ़रोश


जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।

मैं तरह-तरह के

गीत बेचता हूँ ;

मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत

बेचता हूँ ।


जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,

बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;

कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,

कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;

यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा;

यह गीत पिया को पास बुलायेगा ।

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को

पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को ;

जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान ।

जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान ।

मैं सोच-समझकर आखिर

अपने गीत बेचता हूँ;

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।


यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,

यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;

यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,

यह गीत वहाँ पूने में लिखा था ।

यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है

यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है

यह गीत भूख और प्यास भगाता है

जी, यह मसान में भूख जगाता है;

यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर

यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर ।

मैं सीधे-साधे और अटपटे

गीत बेचता हूँ;

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।


जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ

जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ ;

जी, छंद और बे-छंद पसंद करें

जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें ।

ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,

मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात

इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?

इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,

हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा ।

कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के

जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के ।

मैं नये पुराने सभी तरह के

गीत बेचता हूँ

जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।


जी गीत जनम का लिखूँ, मरन का लिखूँ;

जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन का लिखूँ ;

यह गीत रेशमी है, यह खादी का,

यह गीत पित्त का है, यह बादी का ।

कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी

यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी ।

यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,

यह दुकान से घर जाने का गीत,

जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात

मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात ।

तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,

जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत ।

जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ

गाहक की मर्ज़ी अच्छा, जाता हूँ ।

मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ -

या भीतर जा कर पूछ आइये, आप ।

है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप

क्या करूँ मगर लाचार हार कर

गीत बेचता हँ ।

जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।


3

चार कौए उर्फ चार हौए


बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।


कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।


हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।


बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को


कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।


आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।


(छाया चित्र: प्रदीप कान्त)

8 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

प्रदीप भाई बहुत अच्छी कविताएं पढ़वाई आपने। खास कर गीत बेचता हूं, मुझे बहुत पसंद है।

अजेय ने कहा…

गीत बेचता हूँ कालेज के दिनो मे खूब गाया है. धन्यवाद. बहुत कुछ याद आ गया ...

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

bahut acchhi lagii kavita..

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

प्रदीप भाई बहुत अच्छी कविताएं पढ़वाई आपने। धन्यवाद.

विजय गौड़ ने कहा…

सुंदर पोस्ट है प्रदीप भाई। "कौओं" के प्रभावी होते जाते इन दिनों में भवानी जी की कविता को याद करना खुद को पूरे दिन भर जीने के लिए तैयार करना है। आभार।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

'गीत-फरोश' मिश्र जी का एक प्रकार से प्रतिनिधि गीत है, जो सार्वकालिक है। 'कठपुतली' का चयन भी बेहतर है।

Arun Aditya ने कहा…

यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है।
........
बहुत अच्छी कविताएं।

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

भाई प्रदीप जी भवानी प्रसाद मिश्र जी को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है आपको बहुत बहुत बधाई |