-प्रदीप कांत
जन्म : 12 अगस्त 1959 १९९२ से कविता लिखना शुरू किया। पहल, हंस, कथाक्रम, आलोचना, कथादेश कृतिओर, सूत्र, सर्वनाम, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, लमही, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, परिकथा, बया, आधारशीला आदि देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। विद्युत-संकाय से डिप्लोमा निशान्त वर्तमान में कनिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत हैं। निशान्त को पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान २००८ आदि प्राप्त हुए हैं| पहला कविता संग्रह "वे जो लकड़हारे नहीं हैं" अंतिका प्रकाशन ग़ाज़ियाबाद से २०१० में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने ’आकण्ठ’ पत्रिका के अगस्त - २०१० में प्रकाशित ’हिमाचल की समकालीन कविता’ विशेषांक का सम्पादन भी किया है। संपर्क : द्वारा श्री कुलदीप सिंह सेन, गाँव सलाह, डा. सुंदरनगर-1, जिला मंडी- १७४४०१ (हिमाचल प्रदेश) |
1
इस वृक्ष के पास
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
प्रार्थना में रत है यहाँ एक औरत
उसे विश्वास है
इस वृक्ष में बसते हैं देवता
और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज़।
एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।
चिड़ियों की चहचहाहट
हवाओं की सरसराहट
कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है उसे
सिवाय अपने ह्रदय की धड़कनों के
सिवाय अपनी प्रार्थना के ।
वृक्ष के हरे पत्ते
तालियों की तरह बजते हुए
दे रहे हैं उसे आश्वासन
कि उठो माँ
सुन ली है ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना ।
मंदिर और मस्ज़िद से दूर
उनकी घंटियों और अजानों
से बहुत दूर
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
2
अच्छे भाग वाला मैं
अच्छे भाग वाला हूँ मैं
इतना बारूद फटने के बाद भी
खिल रहे हैं फूल
चहचहा रही हैं चिड़ियाँ
बचा है धरती पर हरापन
सौंधी ख़ुशबू
अभी भी नुक्कड़ों पे
खेले जा रहे हैं ऐसे नाटक
कि उड़ जाती है तानाशाह की नींद
बचा है हौंसला
आतताइयों से लड़ने का
इतने खौफ़ के बावजूद भी
गूँगे नहीं हुए हैं लोग
बहुत भागवाला हूँ मैं
बाज़ारवाद के इस शोर में भी
कम नहीं हुआ है भरोसा दोस्त
कवियों का
जीवन पर से
अभी भी
उन लोगों के पास
दूजों का दुख सुनने के लिए
है ढेर सारा वक़्त
अभी भी है
उनके दिल की झोली में
सांत्वना के मीठे बोल
द्रवित होने के लिए
बचे हैं आँसू
कुंद नहीं हुई है
इस जीवन की धार
बहुत ख़ुशक़िस्मत हूँ मैं
हवा नहीं बँधी है
किसी जाति से
और पानी धर्म से
चिड़िया अभी भी
हिन्दुओं के आँगन से उड़ कर
बैठ जाती है मुसलमानों की अटारी पे
उसकी चहचहाहट में
उसकी ख़ुशियों-भरी भाषा में
कहीं कोई फ़र्क नहीं
अच्छे भागवाला हूँ मैं
अभी भी लिखी जा रही है
अन्धेरे के विरुद्ध कविताएँ
अभी भी
मेरे पड़ोसी देश में
अफ़जल अहमद जैसे रहते हैं कई कवि
3
काग़ज़
इस काग़ज़ पर
एक बच्चा सीखेगा ककहरा
एक माँ की उम्मीदें
इस काग़ज़ पर उतरेंगी
चिड़िया की तरह
दाना चुगने के लिए
एक पिता देखेगा
अपने संग बच्चे का भविष्य
सँवरता हुआ
इस काग़ज़ पर सचमुच
एक लड़का सीखेगा ककहरा
एक कवि लिखेगा कविताएँ
इस काग़ज़ पर
एक-एक शब्द को लाएगा
गहन अँधेरों से ढूँढकर
हज़ारों प्रकाश-वर्ष की दूरी
तय करेगा इस छोटे से काग़ज़ पर
अपनी चेतना की
रौशनाई के सहारे
एक-एक पंक्ति को
कई-कई बार लिखेगा
तपेगा दुख की भट्टी में
कितने ही रतजगे होंगे उसके
इस काग़ज़ के भीतर
सदियों बाद भी
किसी कबीर का
तपा-निखरा चेहरा झाँकता मिलेगा
इसी तरह के किसी काग़ज़ पे
इस काग़ज़ पर
लिखे जाएँगे अध्यादेश भी
इस काग़ज़ पर
कोई न्यायाधीश
लिख देगा अपना निर्णय
क़ानून की किसी धारा के तहत
और सो जाएगा
मज़े से गहरी नींद
इस काग़ज़ पर
एक औरत लिखना चाहेगी
अपने मन और ज़िस्म पे हुए
अनाचार की कथा
इस काग़ज़ पर
एक दूरदर्शी संत लिखेगा उपदेश
जिन पे वह ख़ुद कभी भी
नहीं करेगा अमल
एक मज़दूर लिखेगा चिट्ठी
इस काग़ज़ पर
अपने घर अपनी कुशलता की
आधी सदी के बाद भी
किसी स्त्री के संदूक में
सुरक्षित मिलेगा यह काग़ज़
इस काग़ज़ से
एक बच्चा बनाएगा कश्ती
और सात समन्दर पार की
यात्रा पे निकल जाएगा
4
ये पहाड़
ये कितनी बड़ी बिड़म्बना है
इस कठिन समय में
पहाड़ का एक आसान सा चित्र
नहीं बन पा रहा है
एक छोटी सी बच्ची से।
उसे नहीं आ रहा है ख्याल
पहाड़ों पे वृक्ष बनाने का
वह चिड़ियों को
नहीं दे पा रही है
अपने उस चित्र में जगह
उगता सूरज
घुमड़ते बादल कुछ भी नहीं।
पहाडों की नंगी देह पर
उकेरे हैं उसने
बिजली के बड़े-बड़े टावर
और चुपचाप चली गई
उस चित्र को वहां छोड़।
मैं भौंचक सा खड़ा
डूबा उस चित्र में
सोचता हुआ कि
उसने पेड़ों को क्यों नहीं बुलाया
क्यों नहीं दिया न्यौता
चहचहाते पंछियों को
वह घुमड़ते बादलों से
क्यों नहीं बतिया पाई
अपने उस चित्र में।
मैं अपराधी सा शर्मिंदा
खड़ा रहा उस चित्र के सामने
मांगता हुआ मन ही मन मापफी
उस नन्ही मासूम से
कि हमने नहीं
उसने सुनी है
इस पहाड़ की कराहटें।
6 टिप्पणियां:
जानी पहचानी और देखी बातों को सुरेश सेन नए बिम्ब और नजरिए से प्रस्तुत करते हैं। प्रभावी हैं।
सुरेश सेन की कविताएं हमेशा मुझे प्रेरित करतीं हैं.' इस वृक्ष के पास 'कविता उन की बड़ी कविताओं मे से एक है. तत्सम मे उन्हे देख कर
खुशी हुई.
एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।.....
सभी रचनाएं बहुत अच्छी लगी
धन्यवाद इतनी अच्छी रचनाएं पढवाने के लिए
सुरेश जी की सभी रचनाओं में गहराई लगी प्रदीप जी ....
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
bemisaal.......
कविताएं पाठक के सौंदर्य बोध को अपील करती है
साथ ही सोचने पर भी विवश करती हैं। नेट पर भी
कुछ अच्छी कविताएं पढ्ने को मिल जाती है
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