बीकानेर (राजस्थान) में जन्मे जनकवि हरीश भादानी का जीवन संघर्षमय ही रहा। आपका सारा जीवन रायवादियों-समाजवादियों के बीच तथा सड़क से जेल तक की कई यात्राओं में ही गुजरा। निजी से लेकर सार्वजनिक तक के सभी रंगों को समेटे हरीशजी की कविताओं में विद्रोह के स्वरों व जनजीवन की गहरी झलक मिलती है। तत्सम में इस बार हरीश भादानी के दो गीत...
- प्रदीप कांत
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हरीश भादानी (११-०६-१९३३ - ०२-१०-२००९)
प्रकाशन: अधूरे गीत (1959), सपन की गली (1961), हँसिनी याद की (1963), एक उजली नज़र की सुई(1966), सुलगते पिण्ड (1966), नष्टो मोह (1981), सन्नाटे के शिलाखंड पर(1982), एक अकेला सूरज खेले (1983), रोटी नाम सत है (1982), सड़कवासी राम (1985), आज की आंख का सिलसिला (1985), पितृकल्प (1991), साथ चलें हम (1992), मैं मेरा अष्टावक्र (1999), क्यों करें प्रार्थ (2006), आड़ी तानें-सीधी तानें (2006), विस्मय के अंशी है (1988) और सयुजा सखाया(1998) के नाम से दो पुस्तकों में ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं तथा असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर प्रकाशित। प्रोढ़ शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा को लेकर आपकी राजस्थानी में 20-25 पुस्तिकाएँ। सम्मान/पुरुस्कार: राजस्थान साहित्य अकादमी, मीरा प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी, के.के. बिड़ला फाउन्डेशन आदि और अन्य कई पुरुस्कार, सम्मान आदि| सम्पादन: आपने 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादक भी रहे। कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका ‘कलम’ (त्रैमासिक) से भी सम्बद्ध। |
१
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
२
मैंने नहीं कल ने बुलाया है
खामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़ें घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छेणियाँ लेकर बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है
सीटियों से
साँस भरकर भागते
बाजार-मिलों दफ्तरों को
रात के मुर्दे
देखती ठंडी पुतलियाँ
आदमी अजनबी
आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है
बल्ब की रोशनी
शेड में बन्द है
सिर्फ परछाईं उतरती है
बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है
7 टिप्पणियां:
बल्ब की रोशनी
शेड में बन्द है
सिर्फ परछाईं उतरती है
बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है
मैंने नहीं कल ने बुलाया है
Behad sashakt lekhani hai!
भादानी जी के गीत...
आभार...
Behad achhee rachnayen hain! Padhte chale jane ka man hota hai!
Behad khubsurat...
ap bhi aye... hame padhe aur hamara hausla badhaye.
Abhar
सुन्दर प्रस्तुती
खामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़ें घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
उम्र के अनुभव का निचोड़ हैं ये गीत .....
bahoot hi achhi rachna..
Yunnan ko is se sikh leni chahiye..
mai bhi koshish karunga..kuchh achh likhne k liye.....
phir se ati uttam rachana...
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