01 जनवरी 1934 - 13 जून 2008
कीर्ति चौधरी का मूल नाम कीर्ति बाला सिन्हा था. उन्नाव में जन्म के कुछ बरस बाद उन्होंने पढ़ाई के लिए कानपुर का रुख़ किया। 1954 में एमए करने के बाद 'उपन्यास के कथानक तत्व' जैसे विषय पर उन्होंने शोध भी किया।
साहित्य उन्हें विरासत में भी मिला और फिर जीवन साथी के साथ भी साहित्य, संप्रेषण जुड़े रहे। हालांकि पिता एक ज़मीदार थे पर माँ, सुमित्रा कुमारी सिन्हा ख़ुद एक बड़ी कवियत्री, लेखिका और जानी-मानी गीतकार थीं। माँ के प्रभाव से मुक्त कीर्ति चौधरी का लेखन अपनी मौलिकता ही लिए हुए था। कीर्ति चौधरी की कविताएँ तीसरा सप्तक में शामिल की गई थी।
कीर्ति चौधरी का विवाह हुआ हिंदी के सर्वश्रेष्ठ रेडियो प्रसारकों में से एक, ओंकारनाथ श्रीवास्तव से जो बीबीसी हिंदी सेवा के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे और केवल रेडियो को अपने योगदान ही नहीं, बल्कि अपनी कविताओं और कहानियों के लिए भी जाने जाते हैं।
कीर्ति चौधरी की साहित्यिक यात्रा यों तो बहुत लंबा-चौड़ा समय और सृजन समेटे हुए नहीं है पर जितना भी है, उसे किसी तरह से कमतर नहीं आंका जा सकता। कीर्ति चौधरी के परिवार में अब उनकी बेटी अतिमा श्रीवास्तव हैं जो ख़ुद अंग्रेज़ी की लेखिका हैं। अतिमा के दो उपन्यास, 'ट्रांसमिशन' और 'लुकिंग फ़ॉर माया' प्रकाशित हो चुके हैं।
तत्सम में इस बार कीर्ति चौधरी की कुछ कविताएँ.... और यहाँ यह जिक्र महत्वपूर्ण होगा कि पहली कविता आगत का स्वागत मैने कक्षा -10 के पाठ्यक्रम में पढी थी। दूसरी व तीसरी कविता तीसरा सप्तक में शामिल कुछ कविताओं में से है।
- प्रदीप कांत
1
आगत का स्वागत
मुँह ढाँक कर सोने से बहुत अच्छा है,
कि उठो ज़रा,
कमरे की गर्द को ही झाड़ लो।
शेल्फ़ में बिखरी किताबों का ढेर,
तनिक चुन दो।
छितरे-छितराए सब तिनकों को फेंको।
खिड़की के उढ़के हुए,
पल्लों को खोलो।
ज़रा हवा ही आए।
सब रौशन कर जाए।
... हाँ, अब ठीक
तनिक आहट से बैठो,
जाने किस क्षण कौन आ जाए।
खुली हुई फ़िज़ाँ में,
कोई गीत ही लहर जाए।
आहट में ऐसे प्रतीक्षातुर देख तुम्हें,
कोई फ़रिश्ता ही आ पड़े।
माँगने से जाने क्या दे जाए।
नहीं तो स्वर्ग से निर्वासित,
किसी अप्सरा को ही,
यहाँ आश्रय दीख पड़े।
खुले हुए द्वार से बड़ी संभावनाएँ हैं मित्र!
नहीं तो जाने क्या कौन,
दस्तक दे-देकर लौट जाएँगे।
सुनो,
किसी आगत की प्रतीक्षा में बैठना,
मुँह ढाँक कर सोने से बहुत बेहतर है।
2
फूल झर गए
फूल झर गए।
क्षण-भर की ही तो देरी थी
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी
इतने में सौरभ के प्राण हर गए ।
फूल झर गए ।
दिन-दो दिन जीने की बात थी,
आख़िर तो खानी ही मात थी;
फिर भी मुरझाए तो व्यथा हर गए
फूल झर गए ।
तुमको औ’ मुझको भी जाना है
सृष्टि का अटल विधान माना है
लौटे कब प्राण गेह बाहर गए ।
फूल झर गए ।
फूलों-सम आओ, हँस हम भी झरें
रंगों के बीच ही जिएँ औ’ मरें
पुष्प अरे गए, किंतु खिलकर गए ।
फूल झर गए ।
3
कम्पनी बाग
लतरें हैं, ख़ुशबू है,पौधे हैं, फूल हैं ।
ऊँचे दरख़्त कहीं, झाड़ कहीं ,शूल हैं ।
लान में उगाई तरतीबवार घास है ।
इधर-उधर बाक़ी सब मौसम उदास है ।
आधी से ज़्यादा तो ज़मीन बेकार है ।
उगे की सुरक्षा ही माली को भार है ।
लोहे का फाटक है, फाटक पर बोर्ड है ।
दृश्य कुछ यह पुराने माडल की फ़ोर्ड है ।
भँवरों का, बुलबुल का, सौरभ का भाग है ।
शहर में हमारे यही कम्पनी बाग़ है ।
4
यथास्थान
नहीं, वहीं कार्निस पर
फूलों को रहने दो।
दर्पण में रंगों की छवि को
उभरने दो।
दर्द :उसे यहीं
मेरे मन में सुलगने दो।
प्यास : और कहाँ
इन्हीं आँखों में जगने दो।
बिखरी-अधूरी अभिव्यक्तियाँ
समेटो,लाओ सबको छिपा दूँ
कोई आ जाए!
छि:,इतना अस्तव्यस्त
सबको दिखा दूँ!
पर्दे की डोर ज़रा खीचों
वह उजली रुपहली किरन
यहाँ आए
कमरे का दुर्वह अंधियारा तो भागे
फिर चाहे इन प्राणों में
जाए समाए
उसे वहीं रहने दो।
कमरे में अपने
तरतीब मुझे प्यारी है।
चीजें हों यथास्थान
यह तो लाचारी है।
(कविताएँ व परिचय: कविता कोश से साभार, चित्र: प्रदीप कान्त)
6 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा चयन। कीर्ति चौधरी की रचनाएँ नि:संदेह उन्हें सप्तक का उपयुक्त कवि सिद्ध करती हैं।
बेहतरीन कवितायें बधाई भाई प्रदीप जी
बेहतरीन कवितायें बधाई भाई प्रदीप जी
इतने अरसे बाद कार्ति चौधरी को पढ़ना अच्छा लगा. सप्तक के कुछ कवियॉं को हम भूल ही गए हैं .....
बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद...प्रदीप जी
bahut achha laga kirtiji ko padhna.. bahut komal ahsaas..abhaar
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