सविता बनर्जी
एक डायरी का नाम - कहानी के बारे में
सविता बनर्जी एक डायरी का नाम – यह कहानी है, कोई डायरी नहीं और
कहानी के बहाने जीवन। और जीवन हमेशा सुन्दर नहीं होता। अप्ने हिस्से के कुछ कम सुख
सहेजता और बहुत ज़्यादा दुख ढोता जीवन। उस दुख की उफ सविता बनर्जी की डायरी में
नज़र आती है। यहाँ पवित्रता से अपवित्रता की और धकेला जाता जीवन नज़र आता है। और यह
जीवन केवल एक सविता बनर्जी का नहीं बल्कि आधी दुनिया की कई सविताओं का यही सच
है।
तत्सम में इस बार प्रभु जोशी की यही कहानी...। कहानी लम्बी ज़रूर
है मगर लालच यह था कि यह कहानी ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचे।
-प्रदीप कांत
|
नई
दुनिया के दफ्तर में किताबों से भरी बड़ी-बड़ी अल्मारियों से घिरे बैठे
राजेन्द्र माथुर से एक दिन समाचारपत्रों के ‘रविवारीय पृष्ठों’ के साहित्य के स्तर
को लेकर बात चल रही थी। लांछन यूं था कि वे निहायत ही हल्कीपुल्की और मनोरंजनधर्मी
रचनाओं को ही जगह देते हैं। इस पर राजेन्द्र माथुर (जिन्हें हम लोग रज्जुबाबू कहा करते
थे) ने कहा - ‘नहीं ऐसा कतई नहीं है। बात दरअस्ल यह है कि जैसे मैं आपसे ही कहूं कि
आप अपनी अच्छी कहानी’ धर्मयुग और सारिका को ही देते हैं तो फिर अखबार में स्तरीय रचनाएं
कैसे छपेंगी?
मैंने कहा - ‘मैं नईदुनिया को इसलिए नहीं देता कि अमूमन मेरी कहानियां
लम्बी होती हैं और अखबारों को इतनी लम्बी रचनाएं छापने में असुविधा होती है।‘ उन्होंने
कहा –‘अच्छा होने दीजिए लम्बी। हमें दीजिए - हम छापेंगे।‘
उस दिन मैं रात को इन्दौर से वापस देवास लौट जाने के बजाय राजवाड़ा पर
स्थित साड़ी के एक बड़े शोरूम में ठहर गया जिसके ऊपरी भाग में कीमती साड़ियों के स्टाक के साथ रीवा के एक
युवा ठाकुर जो कि शोरूम के मालिक भी थे, का सुंदर और आरामदेह कमरा था। वे बहुत रोमेण्टिक
थे और जी.पी.ओ. के पास स्थित गल्र्स हॉस्टल में रहने वाली एक बंगाली लड़की के प्यार
में दीवानगी तरह मुब्तिला थे, जिसके साथ वे लगभग रोज ही होटलों, थियेटरों और सिनेमाघरों में भटकते
रहते थे - उन्हीं ने उस लड़की की पारिवारिक पृष्ठभूमि बताई थी। लड़की ने एक डायरी भी
दी थी ताकि वे पढ़ कर उसके प्रति सहानुभूति से ओतप्रोत हो उठें।
जन्म:
12 दिसंबर,
1950 को देवास (मध्य प्रदेश) के एक
गाँव पीपल राँवा में
शिक्षा: रसायन विज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर। अंग्रेज़ी
कविता की स्ट्रक्चरल ग्रामर पर विशेष
अध्ययन।
चित्रकारी
बचपन से। जलरंग में विशेष रुचि। लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट में आस्ट्रेलिया
के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित। गैलरी फॉर केलिफोर्निया (यू.एस.ए.)
का जलरंग हेतु थामस मोरान अवार्ड। ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चरी गैलरी, न्यूयार्क
के टॉप सेवैंटी में शामिल।
कृतियाँ:
तीन कहानी संग्रह 'किस हाथ से',
'प्रभु जोशी की लंबी कहानियाँ' तथा उत्तम पुरुष' कथा संग्रह प्रकाशित
हुऐ हैं। ८० के दशक की
एक कहानी 'पितृ-ऋण' नवनीत (जनवरी
2009) द्वारा दस कालजयी कहानियों में शामिल
भारत
भवन का चित्रकला तथा म. प्र. साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए अखिल भारतीय
सम्मान। साहित्य के लिए म. प्र. संस्कृति विभाग द्वारा गजानन माधव मुक्तिबोध
फेलोशिप। बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में
आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार।
धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर
डाली, पिकासो, कुमार
गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ पर केंद्रित
रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार।
'इम्पैक्ट
ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी' विषय
पर किए
गए अध्ययन को 'आडियंस
रिसर्च विंग' का
राष्ट्रीय पुरस्कार।
|
बहरहाल, उसी रात यह कहानी लिखी गयी और दूसरे दिन जाकर रज्जुबाबू को दे
दी। उन्होंने उसे अविलम्ब नईदुनिया के रविवारीय में छापने को दे दिया। शाम में मित्र
प्रकाश पुरोहित मिले। वे उन दिनों नईदुनिया में प्रूफरीडरी करते थे और व्यंग्य लिखने
का शौक रखते थे। उनकी एक विशेष बात ये थी कि राजेश खन्ना की फिल्म आनन्द देखने के बाद
वे पूरी तरह राजेश खन्ना हो गये थे। इस हद तक कि हंसना बोलना, यहाँ तक
कि अपनी तमाम अदाओं में वे राजेश खन्ना थे। तब उनकी शक्लसूरत भी राजेश खन्ना से मिला
करती थी। उन्होंने प्रस्ताव किया - ‘चलो जरा एम.जी. रोड पर घूमते हैं।‘ यह सड़क सुंदर
लड़कियों को देख कर तृप्ति हासिल करने वालों के लिए आकर्षण का केन्द्र थी। इस सड़क को
वही ख्याति प्राप्त थी, जो शिमले में माल रोड को हुआ करती थी। बहरहाल, प्रकाश
पुरोहित ने अपने उसी – ‘राजेश खन्नाई अन्दाज के साथ हर सुंदर लगने वाली लड़की से पूछा
- ‘शायद आप सविता बनर्जी हैं! दरअस्ल आपकी ये डायरी मुझे मिली है।‘ लड़की अचकचाती और
ना करते हुए आगे बढ़ जाती। कदाचित यह सिलसिला उन्होंने बुधवार से रविवार के आ जाने तक
जारी रखा।
दरअस्ल, हुआ यह था कि प्रकाश पुरोहित ने नईदुनिया के रविवारीय का प्रूफ
पढ़ा था और पढ़कर यह जान लिया था कि यह कहानी इन्दौर के राजवाड़े से चलने वाले टेम्पों
में छूट गयी डायरी को लेकर है। बहरहाल, चौथे दिन जब रविवार को कहानी प्रकाशित हुई तो
निश्चय ही उन तमाम सुंदर लड़कियों ने जिनसे प्रकाश पुरोहित ने डायरी के बारे में पूछा, कहानी पढ़कर
कहानी के लेखक की जगह राजेश खन्ना की अदा वाले उस चेहरे को ही याद किया होगा।
-
प्रभु जोशी
E-mail: prabhu.joshi@gmail.com
सविता बनर्जी एक डायरी का नाम
- प्रभु जोशी
यह कितना गहरे तक तकलीफदेह और लगभग गैर-मुमकिन सा है, हर चीज के अहसास को खत्म कर के इस सच के वहम में दफन हो जाना
कि हम उन तमाम अहसासों से बा-आसानी बच चुके हैं,
जो हमें मुसलसल बेचैन बनाये रखते हैं। और किसे बताऊं कि पिछले हफ्ते भर
से मैंने इसी कोशिश में खुद को बड़ी शिद्दत से जाया किया है। हर पल बस सिर्फ यही निरन्तर
चाहता रहा हूं कि मैं खुद को ठीक से सख्त जहन कर लूं और सीधे-सीधे उस डायरी को किसी
भी सेण्टीमेंटल किस्म के लड़के को सौंप दूं,
जो किसी पर अकारण न्यौछावर हो जाने के जज्बे से भरा हो। लेकिन, ऐसा मैं चाहकर भी अभी तक नहीं कर पाया हूं।
परसों दिन भर इन्दौर के टेम्पो,
टैक्सियों में, सिटी बसों
और उनके स्टाप्स् पर घूमते हुए मैंने लगभग हर उस लड़की से बेसाख्ता पूछा, जो एक नजर में दूर से सलीकेदार और पुरआशाब जान पड़ती थी कि-'क्या आप सविता बनर्जी
हैं?' और, शाम होते-होते मुझे किसी भी लड़की से पूछने के पहले थोड़ी-सी
दहशत होने लगी थी, इस बात को सोचकर कि वह बेलिहाज
हो कर इनकार देगी।
यह बात शुक्रवार की शाम की है। इन्दौर में मुझे धुंआरी शामें, शोर और भीड़ के बीच होल्करों के, राजबाड़े की पुरानी इमारत की दीवारें देखकर
हमेशा लगता है, जैसे सामन्त-समय
की मुंडेर पर बैठा इतिहास बहुत खामोश होकर वक्त की रफ्तार का जायजा ले रहा है।
मैं राजवाड़े से जी.पी.ओ. (जनरल पोस्ट ऑफिस) की तरफ जाने के लिए एक तिपहिया
टेम्पो में बैठा ही था कि अचानक सिटी बस आ गई। बस को आता देखकर सहसा मेरे सामने की
सीट से एक सांवली-सी दोशीजा आंखों वाली लड़की उठी और टेम्पो से लगभग कूद कर बाहर हो
गयी और उठकर सिटी-बस की ओर भागती उस लड़की की भर-आंख तो मैंने केवल पीठ ही देखी, शक्ल नहीं। टेम्पो चालक ने सवारी के हाथ से निकल जाने पर कुढ़ना
शुरू कर दिया था। तभी मेरी निगाह सामने की उस खाली सीट पर पड़ी जहां वह लड़की बैठी
हुई थी, वहाँ लाल रंग के कवर की एक डायरी
थी। मैंने उसे उठाकर देखा। उस पर बहुत खूबसूरत अक्षरों में लिखा था-सविता बनर्जी। हर्फों
की बनावट से ऐसा जान पड़ता था, जैसे वो
बांग्ला के हर्फ काढ़ना भी जरूर जानती होगी। बेशक वह डायरी उसी लड़की की ही थी जो पैसे
बचाने के मोह में टेम्पो को छोड़ कर सिटी-बस की ओर बढ़ गई थी। उसका ऐसा निर्णय वाहन
की गति नहीं किराये की वजह से था। यह निर्णय उसके आर्थिक वर्ग को बता रहा था। मैंने
चाहा कि यदि सिटी-बस रूकी हो तो मैं दौड़ कर वह डायरी उसे दे आऊं। लेकिन, अब तक सिटी बस तेज रफ्तार पकड़ कर काफी आगे बढ़ गई थी। मैं टेम्पो
से नीचे उतर आया ताकि, बस का पीछा करके उस लड़की को ढूंढ
कर वह डायरी उसे सौंप दूं - इस कोशिश में मैंने दो-एक स्कूटर वालों से लिफ्ट भी माँगने
की कोशिश की, ताकि बस का पीछा कर सकूं, लेकिन सब वाहन नहीं,
जैसे रफ्तार पर सवार थे। कोई रूका ही नहीं। थोड़ी देर बाद सिटी बस अगले
मोड़ पर मुड़ी और ओझल हो गयी।
मैं सड़क से हट कर दूर फुटपाथ के रेलिंग के सहारे खड़ा-खड़ा डायरी के
पन्ने पलटने लगा। शायद उसका कहीं कोई पता लिखा हो और मैं उसे उसकी छूटी हुई डायरी पहुंचाने
में कामयाब हो सकूं।
तअज्जुब कि पूरी डायरी में नाम के अलावा कहीं कोई पता दर्ज नहीं था। सिर्फ
पन्नों में पलासिया और किसी छोटी-सी कॉलोनी का जिक्र भर है। डायरी को लेकर मैं एक विचित्र
सी ऊहापोह से घिरा-घिरा घर आ गया। उस रात भर सच ही मैं तसल्ली से सो नहीं पाया। वह
डायरी पढ़ी, और बार-बार पढ़ी। उसके बाद से
तो मैं लगातार-लगातार बेचैन हूं। मुझे पुख्ता यकीन है, आप भी बेचैन हो सकते हैं,
यदि आप उसे पढ़ लें। मुझे कहने दीजिए कि उस डायरी के पन्नों को पढ़ कर
आप एक ऐसी सुरंग में फंस जायेंगे, जिससे निकलना
आपके लिए लगभग असंभव ही होगा।
लाल रंग के कवर वाली उस डायरी के शुरू के दो एक पृष्ठ बिल्कुल खाली हैं।
तीसरे खाली और पूरे एकदम-से खाली पृष्ठ पर उसका नाम है। जिसे देखकर मुझे अभी भी लगता
है, जैसी लिपी हुई खाली भीत पर कोई
कंकुम का हाथ मार गया हो। पहले पन्ने पर कोई तारीख लिखी गयी थी फिर उसे लाल-स्याही
से काट दी थी। और नीचे से काले अक्षरों में डायरी शुरू है। इस तरह।
'डायरी लिखने की इच्छा किसी रूमानी
व्यामोह में नहीं, बल्कि, खुद के भीतर निरन्तर बढ़ती जा रही दहशत से पैदा हुई है। कई बार
चाहा गया, मगर ऐसी निरत चाहना के बाद भी
डायरी खरीदी नहीं जा सकी। जाने क्यों लगता रहा था,
वह किसी दिन खुशी में डूबता-उतरता आयेगा और मुझे कोई अच्छी सी डायरी भेंट
कर देगा और मेरे द्वारा लिखना शुरू कर दिया जायेगा। लेकिन, 'गरीबी हटाने की सरकारी कोशिश के साथ ही अचानक बढ़ती जाने वाली
ऐसी भयानक महंगाई के दौर में इस किस्म की भावुक आशाएं पालना व्यर्थ है। और, इसीलिए, आज मैं
बाजार गयी ताकि सस्ती-सी और अच्छी डायरी खरीद लेती हूं-लेकिन भूल गई कि अब सस्ते
और अच्छे के बीच एक द्वैत है। झगड़ा है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। अत: खुद रह
कर ही एक सामान्य-सी डायरी खरीद ही लाई। उसने देखी और तपाक से बोला-'सवि, लगता है
तुम में प्रोटेस्ट करने का पूरा माद्दा आ गया है,
कितने क्रांतिकारी कलर की डायरी चुनी है, तुमने'। 'क्या इसे मैं माओ कि लाल-किताब मान लूं?`
मैं क्या कहती ? और कैसे
कहती कि 'महिम, लाल रंग क्रांति का नहीं,
मृत्यु का भी होता है। और,
मुझ से चुनकर तो मृत्यु भी नहीं खरीदी जा सकती। हां, चुन सकूं तो मृत्यु के लिए जगह और समय जरूर चुनना चाहूंगी। मैं
चाहती हूं, मैं उस जगह मरूं, जहां घना जंगल हो और दूर नीलगिरी के तनावर दरख्तों से लदे नीले
पहाड़ हो और वह दिन की शुरूआत का सुनहरा हिस्सा हो। लेकिन, यह थोड़े ही हो सकेगा। चुनने का हक इस व्यवस्था में सिर्फ
उन लोगा के पास ही है जिनकी जेबें सोने की,
हाथ चांदी के और पैर लोहे के होते हैं। मुझे तो हर चीज बेसाख्ता और आकस्मिक
ढंग से ही मिली है - चाहे बेहतर अनुभव,
बेहतर किताब या कि तुम।` लेकिन, कुछ कहा नहीं गया। चुपचाप उसकी खूब बड़ी-बड़ी सी साफ आंखों को
देखती रही। वह मेरी साड़ी के छोर से बच्चों की तरह खेलता रहा। छोर से खेलता हुआ वह
बेछोर लग रहा था। प्रेम से भरा हुआ। बेछोर प्रेम से।
यहाँ उसने एक अमलतासी-फूलों के रंग वाली पेंसिंल से एक पत्ती बना रखी
थी, जिसमें हरी नसें बनी थी। लगता
है जैसे पीले और दर्ज हो चुके आदमी की नीली पड़ चुकी नसें हों।
इसके बाद पूरे दो पन्ने खाली हैं। जिन पर बजाए लिखने के ढेर सारी आड़ी
तिरछी रेखाएं खिंची हैं। लगता है, इन दो दिनों
में वह इस हद को छूती रही होगी, जहां भाषा
के पैर संवेदनाओं की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते थककर बैठ जाया करते हैं। डायरी से लगता है
कि उसकी भाषा अपाहिज कतई नहीं है, आहत भर
है। उन पन्नों पर जो कुछ लिखा था, वह अक्षरों
से ज्यादा चित्रकारी लग रही थी। उसे लिखना नहीं 'कागज गोदना' भर कहा जा सकता है। गुदने जब त्वचा पर होते हैं, तो वे सुंदरता का 'सृजन' करते हैं। यह दु:ख था,
जो कागज की कोरी और कुंवारी देह पर गुदा हुआ था। एक अबूझ-सी आदिम चित्र
भाषा। इसके बाद लिखा था, 'लगता है, संसार में भले मानुसों की बिरादरी में मृत्यु दर बढ़ गई है। अब
हर जगह बुरों का वर्चस्व है या ये भी हो सकता है, जिस परिधि में मैं घूम रही हूं, वहाँ भलमानसत को सफलता का रोड़ा मान कर
विदा किया जा चुका हो।‘
इसके बाद बहुत साफ अक्षरों में वार व तिथि लिखकर विधिवत् डायरी की शुरूआत
गीत के एक पूरे मुखड़े से अंतरे तक के बाद तक गयी। पता नहीं गीत स्वरचित है, या किसी अन्य कवि का कहीं से उठाया हुआ। फिल्म का तो खैर वह लग
ही नहीं रहा था।
गीतों के पांवों में, न बांधों
अभी बेड़ियां।......
बखरायल बच्चों की है, चीखें अभी
रोकनी-
न होने देनी है बंद, बूढ़े पिता
की धौंकनी-
चढ़-चढ़ उरतना है, अस्पतालों
की पेड़ियां।....
'पेड़ियां' शब्द पढ़ कर मैं थोड़ा-सा अटक गया। क्योंकि यह मालवी बोली का
शब्द था, जो सीढ़ियों के लिए इस्तेमाल होता
है, जबकि अपने सरनेम से वह बंगाली
थी। हो सकता हो, गीत स्व-रचित ही हो, और मालवी ने उसके बंगालीपन पर विजय पा ली हो। यह स्थानीयताओं
की कुव्वतें होती हैं।
'शहर का सबसे बड़ा और मेडिकल कॉलेज
से एसोसिएटेड सतमंजिला अस्पताल। एम.वाय. अस्पताल। इमारत के बड़े दरवाजे में घुसते ही
मेरी पिंडलियों में कंपकंपी भरने लगती थी। सब जगह मरना पसंद कर लूंगी। मगर, यहाँ नहीं। सच, कतई नहीं।
सीढ़ियां चढ़ते हुए मैंने कच्चे मन से कांपती इच्छा को टटोला। वार्ड में जब पहुंची
तो बाबा सिर से पांव तक लाल कम्बल ओढ़े सोए थे। उनको देखकर एक बार बुरी तरह शक हुआ
कि कम्बल के भीतर कहीं उनकी सांस तो नहीं रूक गई। मगर, खुद को जब्त कर लिया। नहीं ऐसा नहीं होना है। माँ, डरी-डरी आंखों से दूर देख रही थी। खिड़कियों से बाहर। नीचे जागते
शहर को जैसे वह हजार-हजार आंखों से इस इमारत पर पहरा दे रहा है। वार्ड के मरीज व अटैण्डेंट
मुझे तकने लगे थे।`
'मैंने चाय का थर्मस रख दिया, और बाबा के पलंग के पास बैठी माँ को देखने लगी। जाने क्यों मेरे
और माँ के दरमियान अभी तक चलते आ रहे बातचीत के वे सिलसिले, जो पिताजी के भर्ती करने वाले दिन माँ और मेरे बीच से उठते रहे
थे, इन क्षणों में गायब थे। जैसे वक्त
फूलता जा रहा है, हमारे बीच खामोशी बढ़ने लगी है।
खामोशी की वजह बायोप्सी की वह रिपोर्ट है,
जिसे अस्पताल के पैथालॉजी विभाग ने बहुत डराने वाले सच की निर्ममता के
साथ हमारे सामने रख दिया है। मैंने बाबा की तरफ देखा। वह हल्के से मुसकराये। मैंने
मार्क किया उनके चेहरे का सांवला रंग, थोड़ा उजला
हो आया है। फिलवक्त, उनको देख कर कोई भी नहीं कह सकता
था कि लगभग महाभारत की तरह एक महायुद्ध उनके देह के चप्पे-चप्पे में चल रहा है। एक
ऐसा युद्ध जिसमें रक्तपात नहीं है, बल्कि रक्त
की लहू-लुहान जैसी क्रिया को गढ़ने वाली लाल कणिकाओं का ही संहार हो रहा है। लाल पर
सफेद की विजय चल रही है। डॉक्टर कह रहे हैं,
व्हाइट ब्लड कार्पसल्स की फौज बढ़ती जा रही है। यह कैंसर कोशिकाओं का
महासमर है, जिसने पिताजी की देह के हर हिस्से
पर कब्जा कर लिया है।`
'टुन्नू को नहीं लाई ?' माँ ने पूछा। उसके गले की आवाज में एक खास गहरी खराश थी। जो अक्सर
लगातार खामोश रहने पर गले पर कब्जा कर लिया करती है। मैंने बताया कि उसने कहलवाया है
कि जब पप्पा अच्छे हो जायेंगे, तब ही चलूंगा-पप्पा
सोये रहते हैं, हमसे तो बात ही नहीं करते। फिर
हम वहाँ खेलेंगे तो डॉक्टर हमें इंजीक्शन न लगा देगा ?'
माँ इतना सुनकर बोली नहीं। सिर्फ हलकी सी हिली। भीतर से पहले। बाद में, बाहर से। अवसाद का समय किस तरह हमारे सर्वस्व को लील लेता
है। माँ से जैसे उसने भाषा को छीन लिया हो।
इसके बाद लगभग पांच छ: दिन तक लगातार अस्पताल व घर के बीच की परेशानियों
का बहुत मारक उल्लेख भरा पड़ा है। बीच में एक दिन का जिक्र है, जिसमें महिम घर पर आया था। तब उसने लिखा है, 'जाने क्यों कभी-कभी किसी के सीने में सिर छुपा कर रोने को मन
करता है। लेकिन आंखों में आंसू ही नहीं आते। सिर्फ आंखों की कोरों में जलन होकर रह
जाती है। और पुतलियां, पलकें और पूरी आंखें किसी उजाड़
इमारत-सी भकास होने लगती है, जिसमें
घुसने के खयाल से ही डरने लगता है, आदमी। मेरी
उदास आंखों को देखकर महिम को प्यार भी नहीं आया। न गुस्सा। केवल, छोटा-सा भय लग रहा था,
उसके चेहरे पर। तब जाने क्यों मुझे वह बच्चे जैसा लगता रहा। और फफक-फफकर
बच्चों को सीने से 'लगा कर' रोया जा सकता है, सीने से 'लगकर' नहीं। जबकि मैं सीने से लग कर फूट-फूट
कर रोना चाहती हूं। रोना आंखों की नहीं,
मन की जरूरत है।
जाने क्यों मैं ऐसा बस सोच कर एकाएक उदास हो गई हूं। उदास और अकेली। मेरे
कंधे खाली लगने लगे हैं, जैसे अभी-अभी इन पर कोई भारी डैनों
वाला परिंदा बैठा था। गरूढ़ की तरह रक्षक। चारों तरफ से फन काढ़ कर फुंफकारते सर्पों
का भक्षक। लेकिन, अब वह उड़ गया है।'
इसके बाद के पन्नों में कमजोर,
कलम की खींची दो एक जर्जर आकृतियां बनी हुई हैं, जिन्हें देखकर कुल जमा ऐसा एहसास होता है कि जैसे वे आकृतियां
एक-दूसरे को देख कर, एक दूसरे में समा जाने की इच्छा
से भरी हुई हैं, लेकिन वे ठिठकी हुई हैं। उनकी
ठिठक भी एक किस्म की चित्रित ठिठक है, जिसे छोड़कर
वे एक दूसरे में नहीं समा सकती। उनके आसपास एक एक घना व नंगा जंगल है और जिसके ऊपर
बहुत-ऊंचा व खाली आसमान है, जिसे कितनी
ही आंखें खोल लो, आंखों में
कैद नहीं किया जा सकता। और ऐसे जंगल व आसमान के बीच की हवा में
कोई आकृति खड़ी है, हवा भी चित्र मे ठिठकी और थमी
हुई जान पड़ती है।
इसके बाद के दिन की डायरी से पता चलता है कि वह खुद बुखार की गिरफ्त में
है। थर्मामीटर खराब हो चुका है, उसका पारा
ही ऊपर नहीं चढ़ता। इस पर भी टिप्पणी थी कि '
दरअस्ल, आत्मा को
चढ़े बुखार को भला कांच का थर्मामीटर कैसे नाप सकता है? कितनी विडम्बना है कि मैं जब भीड़ में होती हूं तो अकेली हो जाती
हूं, लेकिन जब घर में अकेली होती हूं
तो तुम्हारी ढेर सारी स्मृतियों की अनियन्त्रित
भीड़ से घिर जाती हूं। इसके बाद शायद माँ के किसी आग्रह या आदेश के बाद लिखा है: 'माँ कह कर चली गयी हैं कि
'माँ काली' को नहला दूं और सूजी के हलवे का 'भोग' बनाकर उसे
भोग लगा दूं। जो खुद रह कर न नहा सकता है,
न उससे अपने हाथ से खाना बनाया जा सकता है-कैसी विडम्बना है कि माँ उसके
सामने बैठ कर उसे पूरा घर चलने की कहा करती है। प्रार्थना करती है। जो घर में मौजूद
रह कर घर नहीं चला सकता, वह संसार कैसे चला सकता है? ऐसे निकम्मों और आलसियों से इतनी उम्मीद निराशा पैदा करती है।
माँ के प्रति भी और माँ की आस्था के प्रति भी। `
फिर, बाद के पन्नों पर खूबसूरत हर्फों
में लाल-स्याही से कुछ लिखा है, जिसे बेरहमी
से काली स्याही से काट दिया गया है। काट भी क्या कहें कि काली मोटी रेखाओं से बिल्कुल
पाट दिया गया है। जैसे हम किसी मृत व्यक्ति के शव को दाह के पूर्व लम्बी-लम्बी लकड़ियों
से पाट देते हैं। आगे उसी तरह के उजले अक्षर हैं, जिन्हे पढ़कर एक अनाम सी तकलीफ महसूस होती
है कि आखिर इतने उजले अक्षर भी इतनी दुखद बातें कैसे बक सकते हैं ?`
भागते दिन की सांस टूट रही थी,
जैसे वह अब और नहीं भाग पायेगा। बाद में लगा कि दिन नहीं मैं ही भाग रही
थी। भागते-भागते रात के पास पहुंच गयी हूं। यह रात माँ के दुर्गा पूजा के उपवास की
रात है। माँ दुर्गा के बजाय काली की पूजा और प्रार्थना बरसों से करती आ रही है, लेकिन काली के कान सुन नहीं पा रहे हैं, माँ की करूण और कातर प्रार्थना। क्या काली ने माँ के चढ़ाये फूलों
को खोंस लिया है, अपने कानों में? उन्हें अब माँ की प्रार्थना के बजाय फूलों के गीत सुनाई देने
लगे होंगे।
'आज अस्पताल में दवाइयों द्वारा
लायी गयी नींद में बाबा का चेहरा एकदम पीड़ा मुक्त लग रहा था - जैसे सारी पीड़ा देह
से बाहर जा चुकी है - और वे हंसते हुए जागेंगे और हम सबको हंसाने लगेंगे। लेकिन, जब मैंने उन्हें जगाया तो उनकी आंखों में सूखे पत्ते उड़ रहे
थे। उनके साथ धूल थी और धूलधानी हो चुकी उनकी भावी पारिवारिक योजनाएं। मैं एकटक-सी
उनकी तरफ देखती रही। उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की तो होंठ पीड़ा के आकारों में बदल
गये। उनकी हंसी मेरी रूलाई बन गयी।'
'कल अस्पताल पहुंची। सीढ़ियां चढ़कर
बाबा के पास पहुंचने के बजाय मैं, आफथेलमॉलॉजी
विभाग की तरफ बढ़ गई। इन दिनों वहाँ मेरी बी.एस.सी. फर्स्ट इयर की क्लासमेट, जो बाद में अच्छी दोस्त बन गई,
नमिता है। वहाँ नमिता की इंटर्नशिप चल रही है। उसकी पोस्टिंग वहीं थी।
देखते ही बोली-'अरे सवि तुम ? क्या बात है, आंखों में
कुछ गड़बड़ चल रही है, क्या ? मैंने 'हां' कहा और बैठ गई, उसके सामने
की उस विशेष कुर्सी पर, जिस पर रोगी को बिठा कर उसकी आंखों
की जांच की जाती है। कुसी कुछ ऐसे यंत्रों से घिरी रहती है, जिन्हें डॉक्टर कभी रोगी के पास तो कभी रोगी से दूर करते रहते
हैं। वह बगैर और कुछ पूछे आंखें देखती रही फिर बोली-'कुछ भी तो नहीं। क्या करने आई यहाँ ?'
'तुम पूरी डॉक्टर नहीं हो। मैं
आंखें दिखलाने नहीं, निकलवाने आयी हूं। मेरी वे आंखें
निकाल दो नमिता, जो सपने देखा करती है' मैंने बहुत जतन से अपनी आवाज पर नियंत्रण बनाये रखते हुए कहा।
वह उदास हो गई। उसकी उदासी देखकर लगा,
उसके पास भी वे आंखें हैं,
जो सपने देखा करती हैं। और सब उन सपनों वाली आंखों के कारण ही तकलीफ भोग
रहे हैं। उसने अपने उस छोटे-से निदान कक्ष का दरवाजा बंद किया। फिर धीरे
से मेरे कंधे पर हाथ रखा। बाद इसके फूट-फूट कर रोने लगी। फिर लिपट-सी गयी। थोड़ी देर
बाद हम दोनों के लिए यह मुश्किल था कि उसके आंसू मेरी साड़ी की सलवटों में थे कि मेरे
आंसू उसके एप्रिन पर।
इसके बाद डायरी के बीच एक सूखा फूल और एक मरी हुई तितली के पंख थे। एक
किशोरवय के बच्चे की तस्वीर थी, जिसके पीछे
महिम लिखा हुआ था। पूरे पन्ने पर एक पंक्ति थी। पंक्ति क्या प्रश्न, पता नहीं किससे पूछने के लिए दर्ज किया था। हो सकता हो, वह प्रश्न नहीं, केवल मन
के भीतर की कशमकश भर हो।
'नश्वर कलम
से कैसे लिखूं अनश्वर प्रेम'
इसके बाद के पन्ने पर कुछ दवाइयों के नामों के बाद लड़खड़ाती कलम से दर्ज
कुछ शब्द थे। शायद लीड पेन रहा होगा, जिसकी स्याही
खत्म होने आयी होगी।
'गण्डासा हाथ में लेकर खड़ी काली
घर में अपशगुन के स्वर में रोती बिल्ली नहीं भगा सकती, वह दु:खों को क्या भगायेगी ?
माँ कहती है, भगवान हमारी
परीक्षा ले रहा है। मैं माँ से पूछना चाहती हूं, कि माँ भगवान भले लोगों की परीक्षा क्यों
लेता है? दरअस्ल, सचाई यह है कि बुरे लोग परीक्षा में बैठते
ही नहीं। वे तो पर्चा ही फाड़ देते हैं।‘
इसके बाद कागज की फटी चिंदिया रखी हैं। निश्चय वह भगवान के द्वारा ली
जाती रहने वाली परीक्षा के पचे की चिंदियां तो नहीं ही थी। लगता है, उसने किसी को चिट्ठी लिखी होगी- फिर लिखने के बाद जब पढ़ा होगा, तो लगा होगा कि इसका कोई अर्थ नहीं है और फाड़ दी होगी। फाड़े
हुए टुकड़ों को मैंने काफी मेहनत से तरतीबवार जमाने की कोशिश की लेकिन, जम नहीं पाये। फाड़ने के क्षण में शायद
भीतर की निर्ममता का उफान ज्यादा रहा होगा।
कुछ चिंदियों को जोड़ने के पश्चात् जो वाक्य बरामद हुए वे यों थे।
'महिम को जानने की कोशिश में जो-जो
और जैसा-जैसा जाना वो ही उसे जानने में बाधा बनकर मेरे साथ होता गया।`
'महिम मुझे उस किताब की तरह जान
पड़ता है, जिसे मैं रोज पढ़ती हूं, लेकिन हर बार सामना किसी नये पाठ से हो जाता है।`
आज सोमवार है, सोमवार
के इस दिन से कोई पुराना अनुबंध है, जो आज फिर
मेरी उम्मीदों को एक ओर करता हुआ अचानक टूट गया।
'महिम ने, यही तो कहा था, विवाह नर-मादा
को वर-वधू बनाता है।'
'महिम मुझे पता था - उड़ान भरने
वालों को सीढ़ियों के स्वप्न नहीं आते। पंखवाले पैरों का उपयोग बहुत कम करते हैं।'
यहाँ से डायरी के पन्नों में स्याही बदल गयी। स्याही बदल जाने का कारण
भी दर्ज है कि महिम ने से नया पेन भेंट किया है। और उस पेन की स्याही बैंजनी है। यह
बिना तारीख वाला पृष्ठ है।
'आज महिम कलकत्ता चला गया है। सप्ताह
की सूची में निश्चय ही इस दिन का एक तयशुदा नाम है,
लेकिन, इसे मैं महिम की याद का दिन कहूंगी।
कह गया है, सवि, पता नहीं कब लौटूं। भूगोल हायर सेकेण्डरी तक पढ़ा जरूर था, मगर, कभी इस तरह बरदाश्त बाहर हो जाएगा, मैंने कभी नहीं सोचा था। चलते वक्त
तुमसे मिलने की बहुतेरी कोशिशें की, लेकिन मुलाकात
हो नहीं सकी। माफ करना।` अकेला नहीं जा रहा हूं। अपने साथ
तुम्हारी यादें, तुम्हारी चंद तस्वीरें और तुम्हारी
कविताओं की एक डायरी भी ले जा रहा हूं। वैसे बाहर की दुनिया इतनी छोटी है कि कहां जाऊंगा, मैं? और अंदर
की दुनिया में तो तुम ही हो। पत्र की आखिरी
लाइन पढ़ कर वहीदा रहमान के लिए राजकपूर द्वारा गाया जाने वाला एक गीत गूंजने लगा।
कानों के आसपास।
इसके बाद के पन्ने फाड़े हुए हैं। एक पृष्ठ पर, कुछ लिखा-लिखा सा है। मगर,
पता नहीं चाय या पानी ढुल जाने से उस पन्ने पर लिखावट के केवल निशान हैं।
अलबत्ता, उस पन्ने की पीठ पर इस पृष्ठ का
पढ़ा जा सकता है : 'लिखा है-पता
नहीं मैं जाने कितनी हंसियों के टूटने की जगह हूं, जाने कितने आंसू बहाने का मुकाम हूं। जाने
कितने भयों से छुप कर रहने की जगह।
मैं आज भी सोचता हूं, पिछले और
बीत चुके इस सातवें दशक में हिन्दी कहानी में संत्रास, मृत्यु बोध आदि आया था। वह कहां से आया होगा? चूंकि संत्रास या मृत्यु की भयावहता को महसूस करते हुए आदमी का
जीना मुश्किल हो जाता है तो फिर उसमें रहते हुए लेखन कैसे संभव होता होगा? मैं सोचता हूं, बाद में
डायरी जितनी खाली है, वे दिन शायद ऐसे ही संत्रास बोध
के हैं। क्योंकि, उसके कोई एक माह बाद की तिथि में
लिखना संभव हो सका है। जिससे पता चलता है कि सवि के पिता को अस्पताल से सिर्फ मृत-अवस्था
में ही लाया गया। और उस दिन माँ खूब रोती रही। मगर,
सवि की आंखों में एक आंसू तक नहीं आया। सिर्फ किसी गूंगे आदमी की तरह, चीजों लोगों और दृश्यों को देखती भर रही। जैसे वह मृत्यु प्रसंग
में शामिल पात्र नहीं, बल्कि एक तटस्थ और निर्लिप्त कोई
'अन्य' है।
इसके बाद दो चार पृष्ठ छोड़कर डायरी इस तरह शुरू है।
'आज बाबा को न रहे को पूरा एक माह
हो गया है। मैं सोचती हूं, मुझे बाबा
को बाबा के बजाय टुन्नूं की तरह पप्पा कहना चाहिए था। पप्पा कह कर मैं छोटी तो बनी
रहती। छोटी न बनती, मगर, उस छोटे होने का अहसास तो बटोरा जा सकता था। बाबा कहते हुए हर
बार लगता रहा था, जैसे मैं बड़ी हूं। समझदार और
संजीदा, पिता से भी अधिक संजीदा। जिम्मेदार।`
'इस समय बाबा नहीं है। कहीं भी, जो व्याधि उन्हें थी- वह उन्हें जीवित नहीं रहने देती, लेकिन शायद यह मृत्यु का ही कोई आलस्य या विलम्ब था कि इतना समय
लग गया, लेकिन, टुन्नू ने रोते हुए जब सुबह मेरी ओर तका तो मुझे लगा बाबा मरे
नहीं, बल्कि, मरकर मेरी देह में प्रवेश कर गये हैं। और टुन्नू मुझे बजाय दीदी
कहने के पप्पा कह कर लिपट पड़ेगा और कहेगा-'पप्पा-पप्पा, मैं अस्पताल इसलिए नहीं आता था कि वो डॉक्टर मुझे इंजीक्शन लगा
देते... आप आ गए न.... तो अब अप हमें टाफियों के लिए दस पैसे दे दीजिए न.... फिर हम
सच्ची-मुच्ची पढ़ने बैठ जायेंगे ?'
'क्या भौतिक-सत्य से इतर भी मनुष्य
के होने का सच होता है? देह के बगैर भी हमारे साथ होने का सच।
कितनी अजीब-सी दहशत होती है, यह सोचकर।
और इसीलिए मैंने बैठक में लगी 'पप्पा' की तस्वीर निकाल कर अल्मारी में छुपा दी। माँ यह देखकर बजाय कुछ
बोलने के खामोश बनी रही और चावल बीनती रही। वैसे वह चावल नहीं बीन रही थी, बल्कि चुप्पी के दाने-दाने कर रही थी। लगता है, माँ और मैं प्रकारान्तर से एक ही स्तर पर साभ्यभाव से भावुक और
कमजोर है।'
आगे के पन्नों को तो मैं आपको नहीं पढ़वाऊंगा। चूंकि,
उनमें मुफलिसी और भूख की भयानक डरावनी बातें हैं। आपको कल्पना भी नहीं
होगी। हां, एक जगह बहुत उदास क्षणों में शायद
महिम को लेकर लिखा है : क्या कहीं कोई इस संसार में है, जो आपके लिए ही बना है और एक दिन आकर आपके दरवाजे पर दस्तक देगा-क्या
उसका इंतजार करते हुए जीवन जिया जाये, या फिर
हम केवल उनके लिए ही जीना शुरू कर दें,
जो हमारे लिये और हमारी वजह से जिन्दा हैं। कानों में माँ की पीड़ा और
टुन्नू की हंसी गूंज रही है।
हां, उस डायरी में एक नीले और गुलाबी
रंग का एक बंद लिफाफा भी पड़ा है। वह खोला ही नहीं गया है। उसमें साइन तो स्पष्ट नहीं
है, मगर, साफ-साफ से लगता है कि वह महिम का ही है। चूंकि, सील उस पर कलकत्ता की लगी हुई है। सील एक महीने से भी पीछे की
है। यानी, सविता उसे अभी तक खोलने की हिम्मत
नहीं जुटा पायी है। हालांकि, एक पत्र
खुला हुआ भी है, इनलैण्ड लेटर है। तिथि की जगह
लिखा है-'देर रात
गये, तुमको याद
करने की घड़ी।'
प्रिय सवि, जब हम अकेले होते हैं, तो अपने निकट होते हैं और अपनी इतनी निकटता हमें उसके पास पहुंचा
देती है, जो हमारे सबसे अधिक निकट होता
है। इन लमहों से मैं इस सारे फिजिकल-एक्सिस्टेंस से परे तुम्हारे पास हूं। और लग रहा
है, गालिबन तुम किसी भी क्षण डॉट दोगी-ऐ, हमारी साड़ी के छोर से क्यों शैतानी कर रहे हो।' मगर, सवि मैं
शैतानी करना, इसलिए चाहता था कि तुम सिक्के
की तरह अपनी साड़ी के छोर से बांध लो बिल्कुल बंजारिनों की तरह। ताकि मैं कभी छूटूं
ही नहीं। बंधा रहूं तुम्हारे आंचल से। क्या
मैं सिक्का नहीं हूं। सिक्कों की कई किस्में होती है। एक किस्म-महिम जिसे पापा यहाँ
कलकत्ता के कारोबार में भुना रहे हैं।`
वे शायद नहीं जानते कि खोटे ही चलन में होते हैं। और असली बाहर रह जाते
हैं। काश मैं बाहर हो जाऊं। और मेरा बाहर होना असली होने का प्रमाण पत्र होगा।
खत तो बहुत
लम्बा है। पर अंत की लाइन है कि कील पर टंगे पर्स में से मुझे तुम्हारी खनकती हंसी
सुनाई दे रही है। पता नहीं, वह खनक
तुम्हारी हंसी की है कि सिक्कों की - नहीं जानती। पर, अब मैं यह समझ चुकी हूं कि मेरी पूरी देह
की एक खनक है और उस खनक को लोग कानों नहीं,
आंखों से सुनते हैं। आज कल रोज शाम मैं गर्म पानी से नहाती हूं। सीताएँ
धधकती 'अग्नि' से स्नान करके पवित्र हो जाती
होंगी। मैं जल से। उस जल में भी धधक होती है, सिर्फ मैं ही जानती हूं-पर, फफोले देह नहीं आत्म पर पड़ते
हैं। तुम जाओगे तो दिखाऊंगी। तुम्हें।
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तुमने शायद नहीं सोचा सवि कि किसी एक के प्रति बहुत-बहुत 'ईमानदारी से हुई प्रतिबद्धता दूसरी लड़कियों के प्रति अपने आप
एक हिकारत की नैतिकता पैदा कर देती है। सच ही,
तुम से जुड़ चुकने के बाद से मुझे सारी लड़कियां बहुत छोटी लगने लगी हैं।
इतनी छोटी कि जिसे आसानी से टेप से नापा जा सकता है-चौबीस, चौंतीस, छत्तीस।' रीता फारिया की तरह....। मैं अभी तक किसी और से नहीं जुड़ पाया।
ना ही किसी और से जुड़ पाऊंगा कभी। खत और सत्य के बीच सिर्फ भूगोल की दूरी है। मैं
तुम्हें अपनी एक हंसती हुई तस्वीर भेज रहा हूं,
चूंकि हंसियां सिर्फ तस्वीरों को देकर मैं मुक्त हो गया हूं, लम्बी उदासी के लिए। खत लिखोगी ? इंतजार करूं न ? क्या तुम्हारी
नाराजगी अभी गयी नही है ? तुम नाराज होती हो तो लगता आकाश
और पृथ्वी ने त्यौरियां चढ़ा ली हैं।
यह खत उसमें रखा हुआ भी है। और उसके ये अंश अक्षरश: उतरे हुए भी हैं।
जिसके बाद फिर वही भय और भूख से भरे पन्ने हैं,
जिससे लगता है, पितृहीन
परिवार की आर्थिक दुरावस्था मध्यवित्तीय परिवार को कितने दारूण दैन्य के बीच जीने को
मजबूर कर देती है।
इसके बाद के पन्नों में सविता अपने आप से लड़ी है। लगातर एक जबरदस्त भिड़न्त, जिसमें उसकी आत्मा लहू-जुहान हुई है। सीमाओं पर लड़ी जाने
वाली लड़ाई में तो तमगे भी मिला करते हैं,
पर उस लड़ाई में जो अपने खिलाफ लड़ी जाती है एक टूटन मिलती है। जैसे कांच
पत्थर पर सिर फोड़ ले। किरच-किरच में टूटन। उसकी लड़ाई का भीतरी दृश्य इस तरह का है।
'घर की तमाम खिड़कियां अैर दरवाजे
बंद हैं। बाहर हवा चीख रही है - जैसे उसके किसी मर्म पर बहुत निर्मम चोंट कर दी हों।
हवा तो खुल्लम-खुल्ला चीख सकती है- पर,
मैं कहां चीखूं ? मन होता
है, सात मंजिला अस्पताल की छत पर चढ़
जाऊँ और वहाँ से चीखूं। जोर-जोर से। इतनी ऊंची हो चीख के आसमान के आनंदलोक में बैठे
ईश्वर के कलेजे में छेद हो जाए। और यदि घर की दीवारों के बीच चीखी तो माँ और टुन्नू
समझेंगे मैं पागल हो गयी। महिम मैं पागल हो जाना चाहती हूं। पागल हो कर ढेरों खत लिखना
चाहती हूं। तुम्हारे नाम।' 'पागल' शब्द डराता है। वह बायोलॉजिकल लगता है। जैसे कोई शारीरिक दोष
है। मुझे सही शब्द लगता है, 'बावरी'। मैं बावरी हो जाना चाहती हूं। महिम तुम्हारे साथ देखी थी, 'घटे दरों पर' राजकपूर
की फिल्म। तुमने कहा, था- इस फिल्म का नाम 'पागल आंखें' नहीं रखा
जा सकता था। उसके बाद तुमने मेरी आंखों पर अपने होठ टिकाने की इच्छा जाहिर की थी- कहा
था सवि 'फिल्म में नहीं, तुम्हारे पास है,
'बावरे नैन'।
बाद इसके कई-कई दिनों के पन्ने खाली हैं। इसके बाद पन्नों पर तिरछे ढंग
से लिखा है। 'क्या होता है, मेरे साथ कि किन्हीं क्षणों में मैं, बहुत उत्तेजित होकर किसी निर्णायक युद्ध के उत्साह से भर जाती
हूं। मगर, घर की देहरी से बाहर निकलते ही
सारा एकत्रित शौर्य ठण्डे सैलाब-सा फैलकर प्रवाह-हीन हो जाता है। क्योंकि, देहरी से बाहर होते ही दीवारें ही दीवारें दिखायी देती हैं, वे तमाम दीवारें बिना दरवाजों की होती है। उन्हें गिरा नहीं सकते, हम सिर्फ फलांग सकते हैं।
'घर से निकलते हुए सोच लिया गया
है। मुझे बहुत शीघ्र अपने आदर्शों को 'अमेण्ड` करके कमाई की जा सकने वाली तमाम कोशिशों से नत्थी कर डालना चाहिए।
चाहे वे फिर नैतिक हों या अनैतिक। चूंकि,
अब और नहीं सहा जाता। माँ का रात-रात भर दर्द करते पेट को संभालते हुए
खांसना और टुन्नू का भूखे पेट पर हंसीं का अभिनय। कल अखबार में तैराकी स्पर्द्धा में
स्वर्ण पदक पाने वाली एक लड़की की तसवीर छपी थी। जब उसे सबसे ऊंची सीढ़ी से पानी में
गोता लगाया होगा, तो तालियों की गड़गड़ाहट उठी होगी-
कभी-कभी सोचती हूं, मैं भी
गोता लगा दूं, नैतिकता
की सबसे ऊंची सीढ़ी से। तब तालियां नहीं,
केवल धिक्कार का धमाका भर होगा।' क्या महिम
के कान सुन पाएंगे, उस धमाके की आवाज?
इसके बाद के पन्नों में सविता की भटकन है। सिनेमाओं, थिएटरों, क्लबों
और दफ्तरों के बीच जवान और गंजे अधेड़ों के साथ उनके पसीने की गंध सहते हुए निरन्तर
भटकाव। डायरी के अंतिम पृष्ठों में जगह-जगह आड़ी तिरछी, बांकी टेढ़ी-रेखाएं और काटा-पीटी है, जैसे कोई रेखा है,
जो अपना सिरा खोजने के लिए बढ़ी और अपने को ही काटती हुई लगातार उलझती
ही गयी है। हां एक खत भी है, महिम के
नाम। मगर, यह महिम के नहीं, आपके या मेरे नाम भी हो सकता है। वह खत भी नहीं, एक जोरदार तमाचा है। सभ्यता और व्यवस्था के गाल पर। मैं पूरा
नहीं बताऊंगा। कुछ-कुछ टुकड़े देख लीजिए।
'महिम, तुम कहते थे न, लक्ष्मण रेखाएं बस सतह पर ही खिंची रहती
हैं, उनकी कोई
नींव नहीं होती। इसलिए वे दीवारों की भूमिकाओं में नहीं आती। जब दीवारों को लांघा जा
सकता है, तो सतह
पर खींच दी जाने वाली रेखाओं को लांघने में कैसी और कौन-सी कठिनाई हो सकती है? तुम प्रोटेस्ट
करने का माद्दा पैदा करो। अपने वर्गीय-मूल्यों से। लेकिन, महिम अब मैं प्रोटेस्ट नहीं बल्कि रिवोल्ट करना सीख गई हूं। आज
मैंने रिवोल्ट किया है। अपने संस्कार और वर्ग की नैतिकता के खिलाफ। तुम अक्सर जिस कुर्सी
पर आकर बैठ जाते थे, उसके ऊपर दीवार की कील पर मेरा
वही पर्स टंगा है, जिसमें रखी छोटी-सी डायरी में
तुम्हारी खिलखिला कर हंसती एक तस्वीर है। उस पर्स में आज बहुत सारे पैसे हैं। उस पर्स
में से मैंने अभी-अभी टुन्नू को कुल्फी व टॉफी के लिए कुछ सिक्के दिए हैं.... और इन
क्षणों में वह टॉफी व कुल्फी लेकर हाथों में थामे पूछ रहा है-'सवि दी, तुमको क्या
दूं ? टॉफी या कुल्फी और मैंने एक टक उसकी ओर अपलक देखकर कहा है-कुच्छ
नहीं, एक बाल्टी गर्म पानी..... वह नहीं जानता, मेरे इस प्रस्ताव का अर्थ। वह आज्ञा पालन में दौड़ कर बाथरूम
की तरफ चला गया है।
और मैं बाथरूम की तरफ कदम उठा कर बढ़ने से भी घबरा रही हूं। हां, रिवोल्ट करना सीख लिया है न,
इसलिए आंखें भी गीली होते-होते बचा ली हैं.... डरे तो नहीं न। रिवोल्ट
करने के पहले मैंने एक बात का ध्यान रखा,
साड़ी का छोर (पल्ला) कैंची से काटकर माँ की काली माँ की तसवीर वाले सिंहासन
के पीछे छुपा दिया। ताकि, तुम आओ तो तुम्हें बेदाग सौंपा
जा सके। तुम सिक्के की तरह बंध जाना। तुम्हारी हंसती हुई तस्वीर, जो तुमने भेजी थी,
वह मेरे पर्स में है और मैं जोर-जोर से ठहाके लगाकर उस तस्वीर के साथ
हंसना चाहती हूं। तुम्हारे साथ हंसना चाहती हू एक खूब खनकदार हंसी। खुद पर। नहीं, तुम पर। नहीं.... तय
नहीं कर पा रही हूं। मुझे डर लग रहा है,
रो न दूं।' क्योंकि मेरी आत्मा ने हाथ झाड़
लिये हैं, देह से।
खत तो बहुत लम्बा है। पर अंत की लाइन है कि कील पर टंगे पर्स में से मुझे
तुम्हारी खनकती हंसी सुनाई दे रही है। पता नहीं,
वह खनक तुम्हारी हंसी की है कि सिक्कों की - नहीं जानती। पर, अब मैं यह समझ चुकी हूं कि मेरी पूरी देह की एक खनक है और उस
खनक को लोग कानों नहीं, आंखों से सुनते हैं। आज कल रोज
शाम मैं गर्म पानी से नहाती हूं। सीताएँ धधकती 'अग्नि' से स्नान करके पवित्र हो जाती होंगी। मैं
जल से। उस जल में भी धधक होती है,
सिर्फ मैं ही जानती हूं-पर,
फफोले देह नहीं आत्म पर पड़ते हैं। तुम जाओगे तो दिखाऊंगी। तुम्हें।
इसके बाद डायरी के पन्नों में शब्द नहीं, सिर्फ धारदार चाकू ही चाकू हैं। वे पढ़ने वाले की चमड़ी उधेड़
सकते हैं। इसलिए मैं उनको बिल्कुल नहीं छू रहा हूं। क्या आप सविता बनर्जी की डायरी
पढ़ कर उसकी तलाश करना चाहेंगे? बताइये
कि आप उससे प्यार करना चाहेंगे कि नफरत?
-
प्रभु जोशी
E-mail: prabhu.joshi@gmail.com
4 टिप्पणियां:
"...चुनने का हक इस व्यवस्था में सिर्फ उन लोगों के पास ही है जिनकी जेबें सोने की, हाथ चांदी के और पैर लोहे के होते हैं।..."
एक बेहतरीन कहानी...आभार प्रस्तुति का...
प्रभु जी को पढ़ना साहित्य के तमीज से परिचित होने जैसा। बहुत कुछ एक साथ सीखने को मिलता है। बधाई।
प
Behad prabhavshalee kahanee hai....muddaton iska man pe asar rahega....shayad ise dobara padhne chali aaun.
प्रभु जोशी और उनकी लेखनी को नमन |ऐसे बेबाक लेखक ,कथाकार इस दौर में उँगलियों पर गिने जा सकते हैं |
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