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लाल्टू का नाम साहित्य में किसी भी परिचय का मोहताज़ नहीं है। विभिन्न विधाओं में लाल्टू की प्रकाशित पुस्तकें उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण दे देती हैं। तत्सम में इस बार उनके कविता संग्रह सुन्दर लोग और अन्य कविताएँ से कुछ कविताएँ...।लाल्टू की इन कविताओं में आम आदमी और जीवन के विभिन्न बिम्ब बिना किसी लाग लपेट के बात करते हैं। इन कविताओं में अपनी एक आस लिये सुबह सुबह पौधे रोपता आदमी (आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है) तो दूसरी और अपने ही स्पष्ट विरोधाभासों में उलझा आदमी (यही है मेरे पास) है। इन्ही कविताओं में एक आदमी है कि मलाल ही करता है – मैं ताज़िंदगी सोचता रहा/कि बहुत ज़रूरी था/ सही वक्त पर सही बात कहना (हाजिरजवाब नहीं हूँ)। यही कविताएँ कहीं मलबे के नीचे पड़ी तीन सौ युवा लड़कियों को कुरेदती हैं (तीन सौ युवा लड़कियाँ) तो कहीं एक औरत की भावनाओं को उभारती हैं (सालों बाद मिलने पर)। यहाँ कविता है कि आतंकवाद के भयानक को प्रेम के की अनश्वर सुन्दरता में पिरोकर बयान करती है – यह कविता की शुरुआत नहीं थी/यह कविता का अंत था (नाईन इलेवन)।
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प्रदीप कांत
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1
आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है
आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है
दिनों की सालों की जकड़न फेंक रहा
हूँ
आज सुबह है कि पौधे रोपने लगा हूँ
मिट्टी पानी बना हूँ सींचने लगा
हूँ
आज आवाजें सुनने लगा हूँ
यह जो ठकाठक सुन रहा ये छेनियाँ और
हथौड़े हैं
सुबह से भी पहले सुबह होती है उनकी
मेरे जगने तक ठक ठक ठकाठक चल रहे
होते हैं
हर ओर कुछ बन रहा हो रहा निर्माण
आज सुबह है कि चिढ़ नहीं रहा
आवाजों को सँजो रहा हूँ
सों सों की आवाजें हैं बसों की
ट्रकों की
थोड़ी ही दूर है सड़क
निंदियाई होंगी आँखें ड्राइवरों की
अब भी
मलते हुए आँखों को रेस में लगे हैं
आज सुबह है कि सब को सब कुछ मुआफ़
है
मैं अपनी ही कैद से कर रहा हूँ
मुक्त खुद को
ज़मीं से ऊपर नहीं ठोस फर्श पर रख
पैर
रच रहा हूँ शब्द।
2
हाजिरजवाब नहीं हूँ
हाजिरजवाब लोग
जवाब देने के बाद होते हैं निश्चिंत
उनके लिए तैयार होते हैं जवाब
जैसे जादूगर के बालों में छिपे रसगुल्ले
जादूगर बाद में बाल धोता होगा
अगले शो की तैयारी में फिर से रसगुल्ले रखता होगा
मैं हाजिरजवाब नहीं हूँ
इसलिए नहीं कह पाया किसी महानायक को
सही सही, सही वक्त पर कि उसकी महानता में
कहीं से अँधेरे की बू आती है
मैं ताज़िंदगी सोचता रहा
लाल्टू (जन्म: 10 दिसम्बर 1957)प्रमुख कृतियाँचार कविता संग्रह एक झील थी बर्फ की (1990 - आधार प्रकाशन), डायरी में तेईस अक्तूबर (2004 - रामकृष्ण प्रकाशन), लोग ही चुनेंगे रंग (2010 – शिल्पायन), सुंदर लोग और अन्य कविताएँ (2011 - वाणी प्रकाशन) और नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध (वाग्देवी, बीकानेर - जनवरी 2013 में प्रकाश्य)एक कहानी संग्रह घुघनी (1996 - अभिषेक प्रकाशन)एक नाटक भाप ताप और आप,एक बाल कविता संग्रह भैया ज़िंदाबाद और बाल साहित्य की कई अन्य अनुदित पुस्तकें|इसके अलावा प्रमुख अनुवादों में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'A People's History of the United States' के बारह अध्यायों का अनुवाद विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है।लाल्टू ने केवल साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं वरन कई स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ शिक्षा, नारी अधिकार , नागरिक और मानव अधिकारों वगैरह विषयों पर काम किया है। |
कि बहुत ज़रूरी था
सही वक्त पर सही बात कहना।
सही वक्त पर सही बात कहना।
कभी कहा ठीक तो किसी बच्चे से कहा
कि गिरने पर चोट उसे नहीं
उसकी धरती को लगी है
जो उसी के साथ हो रही है धीरे धीरे बड़ी
कभी कहा ठीक तो किसी सपने से कहा
कि माफ कर देना
रख दिया तुम्हें अधूरा
बहुत चाहते हुए भी नहीं हो सका असाधारण
अचरज कि प्यार करते हैं मुझे सबसे ज्यादा
बच्चे और सपने।
कि गिरने पर चोट उसे नहीं
उसकी धरती को लगी है
जो उसी के साथ हो रही है धीरे धीरे बड़ी
कभी कहा ठीक तो किसी सपने से कहा
कि माफ कर देना
रख दिया तुम्हें अधूरा
बहुत चाहते हुए भी नहीं हो सका असाधारण
अचरज कि प्यार करते हैं मुझे सबसे ज्यादा
बच्चे और सपने।
3
यही है मेरे पास
सिर्फ टुकड़ों में
बँटी
बड़ी छोटी दुनिया
है मेरे पास
तने हुए
सुंदर असुंदर चेहरे
हल्के गंभीर खयालों
में
उड़ते लोग
सिर्फ कहानियाँ अनकहीं
स्पष्ट विरोधाभास
यही है मेरे पास।
4
आत्मकथा
बीच में अनंत
संभावनाएँ हैं
यही सोचा चाहा
ताज़िंदगी
कोशिश यही कि हिटलर भी
रोना सीख ले
अपने गू में मरता
शताब्दी का प्रतिनिधि हँस ले
इसके अलावा मैं एक
जानवर
ढूँढता प्यार, सपने
दो चार
खुश अपनी नादानी में
बार बार।
5
विसर्जन
मिट्टी मिलती है
मिट्टी में
यही देखकर खुश हैं लोग
या लोगों की खुशी
देखकर खुश
होता है पानी में घुल
रहा ईश्वर
बड़ा है ईश्वर तो बड़ी
है झील
छोटा सा ईश्वर खुश है
छोटे तालाब में ही
विसर्जित होकर।
6
एक दिन धरती टकराएगी चाँद से
एक दिन धरती टकराएगी चाँद से
एक दिन सूरज टकराएगा धरती से
एक दिन ब्रम्हाण्ड के सारे तारे
पिघल जाएँगे
एक लड़की एक दिन पढ़ेगी यह कविता
एक दिन अखबार में खबर होगी
कि डर के राक्षस खा गए एक लड़की को
एक दिन रोऊँगा मैं
कि क्यों लिखी कविता ऐसी डरावनी
क्यों सोचा कि समय का पैमाना है
मेरे जीवन काल से बहुत बड़ा
एक दिन एक सपना मिट जाएगा
एक दिन अनंत दुख ढोता मैं लौटूँगा
घर
एक दिन आकाश गंगा के साथ
विलीन होगी मेरी कल्पना
एक लड़की के दुखों के सागर में।
7
तुम हो न
अगर मैं समंदर भर बूँदें पी डालूँ
बादल फिर भी उड़ेंगे
अगर कैनवस पर सारे रंग उड़ेल दूँ
रंग फिर भी बचेंगे पेड़ों में अनगिनत
सारी ध्वनियाँ गा डालूँ
फिर भी कम न होंगे लफ्ज़
यह कहने को कि इस दुनिया को
खूबसूरत होने के लिए तुम्हारी ज़रूरत है।
तुम हो तो डर नहीं कि ध्वनियाँ न होंगी
डर नहीं कि सच होगा सच जैसा निर्दयी
डर नहीं कि रुकेगी कविता और
सिर्फ कहानी कही जाएगी
संभव है कि दुख एक दिन रह जाएँ बहुत कम
उल्लास हो जाए संकुचित
गिनती में बँध जाएँ सारे अणु ब्रम्हांड के
ध्वनियाँ नहीं होंगी कम फिर भी
क्योंकि तुम हो, तुम हो न, तुम हो।
8
तीन सौ युवा लड़कियाँ
तीन सौ युवा लड़कियाँ
दबी पड़ीं मलबे के नीचे ।
तीन सौ युवा लड़कियों
क्या था तुम्हारे मन में
उन आखिरी क्षणों में
तीन सौ युवा लड़कियों
तुम डर रही थीं कि
तुम्हारे जाने-जानां का क्या हश्र है
तीन सौ युवा लड़कियों
तुमने चीखकर अल्लाह को पुकारा
वह कहीं नहीं है
तीन सौ युवा लड़कियों
तुमने चीखकर अम्मा को पुकारा
वह रो रही अपनी पीड़ाओं के भार तले
तीन सौ युवा लड़कियों
तुम्हारे अब्बा पहली बार रो रहे हैं
तीन सौ युवा लड़कियाँ
मलबे के तले दबी हुईं
कुलपति ने भेजा संदेश
होस्टल के मलबे में दबी पड़ी हैं
तीन सौ युवा लड़कियाँ।
(संदर्भः काश्मीर भूकंप 2005)
9
सालों बाद मिलने पर
सालों बाद मिलने पर
वह दिखती है धरती का बोझ ढोती
स्मृति से बहन-भाई माता पिता लुप्त हो गए हैं
कभी कभी बेटी आकर साथ लेटती है
और हल्की सी याद आती है
उसे माँ की बहनों की
स्त्रियाँ थीं वे भीं
जिनकी धरती इस धरती से न ज्यादा न कम ठोस थी
बोझ ढोती रहीं वे भी इसी तरह आजीवन
बेटी सीख रही है सही गलत उपाय बोझ से उबरने के
उसने सीख लिए हैं राज शरीर के
जैसे उसकी माँ आसानी से भूल गई है
झुर्रियाँ समय से पहले ही दिखतीं त्वचा पर
जैसे बेटी के बदन में नहीं कहीं भी रोंए
उसे देखकर लगता है एकबारगी
कि स्त्री होती है विरक्त स्वभाव से
देखोगे अँधेरे में जब कदाचित खुली आँखें
खुश दिखेगी यह सोचती कि
समंदर चाहतों का उमड़ता बेटी के नखरों में।
10
नाइन इलेवन
वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
वहाँ मैं एक औरत को बाँहों में
थामे
उसके होंठ चूम रहा था
किसी बाल्मीकि ने पढ़ा नहीं श्लोक
जब तुम आए हमारा शिकार करने
हम अचानक ही गिरे जब वह छत हिली
एकबारगी मुझे लगा था कि किसी मर्द
ने
ईर्ष्या से धकेल दिया है मुझे
मैं अपने सीने में साँस भर कर उठने
को था
जब मैं गिरता ही चला
मेरे चारों ओर तुम्हारा धुँआ था
यह कविता की शुरुआत नहीं
यह कविता का अंत था
हमें बहुत देर तक मौका नहीं मिला
कि हम देखते कविता की वह हत्या
मेरी स्मृति से जल्द ही उतर गई थी
वह औरत
जिसे मैं बहुत चाहता था
आखिरी क्षणों में मेरे होंठों पर
था उसका स्वाद
जब तुम दे रहे थे अल्लाह को दुहाई
धुँआ फैल रहा था
सारा आकाश धुँआ धुँआ था
कितनी देर मुझे याद रहा कि मैं कौन
हूँ
मैंने सोचा भी कि नहीं
कि मैं एक जिहाद का नाम हूँ
मेरे जल रहे होंठ
जिनमें जल चुकी थी
एक इंसान की चाहत
यह कहने के काबिल न थे
कि मैं किसी को ढूँढ रहा हूँ
वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
मेरे जीते जी हुई ध्वस्त
मेरे बाद भी बची रह गई थी धरती
जिस पर जलने थे अभी और अनगिनत होंठ
या अल्लाह!
4 टिप्पणियां:
लाल्टू को पढना बहुत ही अच्छा लगा |परिचय के लिए आभार |
बहुत कुछ है आप के पास! अंतिम कविता याद रहने वाली है . बहुत सशक्त , बहुत परफेक्ट !
बहुत कुछ है आप के पास! अंतिम कविता याद रहने वाली है . बहुत सशक्त , बहुत परफेक्ट !
"तत्सम" में प्रकाशित लाल्टू की कविताएं में जीवन और और उसको बचाए रखने की जद्दोजहद है | आधुनिक हिन्दी कविताओं में ऐसी कविताओं को ऊँचा आसन है | प्रदीप जी , आपको ऐसी कविताएँ सम्मुख लाने के लिए आभार |
- शब्द सक्रिय हैं
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