विमलेश
त्रिपाठी
प्रेसिडेंसी कॉलेज से
स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
देश की लगभग सभी
पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
सम्मान
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण
मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
भारतीय
ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
सूत्र
सम्मान
राजीव
गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
हम
बचे रहेंगे कविता संग्रह, नयी किताब,
दिल्ली
अधूरे
अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय
ज्ञानपीठ
2004-5 के वागर्थ के
नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
देश के विभिन्न
शहरों में कहानी एवं कविता पाठ
कोलकाता में रहनवारी।
परमाणु ऊर्जा विभाग के एक
यूनिट में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत।
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
Email: bimleshm2001@yahoo.com
Mobile: 09748800649
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तुम
थोड़ा प्यार भरो वाक्यों में - आश्चर्य है कि हमारे समाज की सबसे बड़ी इस
ज़रूरत को विमलेश त्रिपाठी का कवि कितनी आसानी से कह देता है। अपनी इस कहन के
जाने जाने वाले विमलेश की कविताएँ सरसरी तौर से आसान सी कविताएँ लग सकती
है पर इनके पीछे हमारे समय और समाज की जटिलता खुलती है। सहज रूप से अपनी मिट्टी
से जुड़ी ये कविताएँ हमारी सामाजिक विसंगतियों की पड़ताल करती है -
चाहता तो हूं कि चाहूं और उस
चाहने पर
कायम रह सकूं पूरी उम्र
और अपनी चाह पर कायम रहने
की इच्छा ही समकालीन कविता पर भी हमारा भरोसा कायम रख सकती है तत्सम में इस बार विमलेश
त्रिपाठी की कुछ कविताएँ....
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प्रदीप कांत
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कविता नहीं
आओ कविता-कविता खेलें
तुम एक शब्द लिखो उस शब्द से मैं एक वाक्य बनाऊँ फिर मैं एक शब्द लिखूँ और उस शब्द के सहारे तुम खड़ा करो एक वाक्य दूसरा तुम थोड़ा प्यार भरो वाक्यों में मैं थोड़ा दुख भरता हूं रंग कौन सा ठीक रहेगा हरा या सफेद या एकदम लाल रक्तिम थोड़ा हँसो तुम खेल जमने के लिए यह जरूरी है मैं थोड़ा रोता हूं अपने देश के दुर्भाग्य पर यह रोना भी तो है जरूरी सुनो, अब देखो पढ़कर क्या कविता बनी कोई अरे ये शब्द और वाक्य और उनके बीच छुपे दुख हँसी प्यार और रंग ही तो ढलते हैं अंततः कविता में नहीं अब भी नहीं बनी कविता ? अच्छा छोड़ो यह सब शब्दों के सहारे इस देश के एक किसान के घर चलो देखो उसके अन्न की हांडी खाली है उसमें थोड़ा चावल रख दो थोड़ी देर बाद जब किसान थक-हार कर लौटेगा अपने घर तब वह चावल देखकर उसके चेहरे पर एक कविता कौंधेगी उसे नोट करो वह बच्चा जो भूख से रो रहा है उसे लोरी मत सुनाओ थोड़ा-सा दुध लाओ कहीं से यह बहुत जरूरी है दूध पीकर बच्चा एक मीठी किलकारी भरेगा उस किलकारी में कविता की ताप को करो महसूस और अब..? फिलहाल चलो इस देश के संसद भवन में और अपने शब्दों को बारूद में तब्दील होते हुए देखो .........।
नकार
नहीं
कविता नहीं दुःख लिखूँ गा प्यार नहीं बिछोह लिखूँ गा सुबह नहीं रात लिखूँ गा दोस्त नहीं मुद्दई लिखूँ गा लिख लूंगा यह सब तो बहुत साफ-साफ खूब हरा और लहलह करता गिरवी पड़ा गैंड़ा खेत लिखूँ गा और सबसे अंत में लिखूँ गा सरकार और लिखकर उस पर कालिख पोत दूंगा फिर शांति नहीं युद्ध लिखूँ गा और अपनी कलम की नोख तोड़ दूंगा ।
क से कवि मैं
क से कंधा एक आम आदमी का
क से कबूतर एक सफेद क से कमान सरकारी क से कमजोर एक किसान क से कविता और कवि सब हो सकता है कि होता ही है लेकिन क से कद कवि का क से कम होने पर क से कविता कमजोर हो जाती है की बात स्वीकर नहीं कर पाता मेरा गुमनाम एक कवि जो रात दिन रहता मेरे साथ मैं क से काठ एक बढ़ई का क से कलम एक लेखक की क से ककहरा किसी बच्चे के स्लेट पर लिखकर चुप रहता हूं बहुत सोच-समझकर क से कवि का कद मैं बढ़ा नहीं पाता क्योंकि क से कमबख्त मैं नहीं कर पाता जोड़-तोड़ - जानते-बुझते क से कमा नहीं पाता पुरस्कार-उरस्कार क से कर मोड़े नहीं खड़ा हो पाता कविता की पृथ्वी पर क से कब से क से इस कठिन समय में खड़ा हूं चुपचाप देख रहा तमाशा.... क से अपने क्रोध के बाहर आने की क से कर रहा प्रतीक्षा।।
सिर्फ लिखता हूं कविताएँ
चाहता तो हूं कि एक शब्द मेरी
कविता से निकलकर
खड़ा हो जाए मेरे सामने
पूछे मुझसे निर्मम सवाल
कर जाय मेरी त्वचा को लहूलुहान
अपने तेज पंजों से
निकल जाए मेरे घेरे से बाहर
आग-जैसे सवालों के साथ
पूरी दुनिया में अवतार की तरह
लेकिन एक भी शब्द नहीं निकलता
बाहर
मेरी कविता के तहखाने से
और अपने कवि होने पर बार-बार
आती है मुझे ही शर्म
चाहता तो हूं कि शब्दों की इस
दुनिया से दूर
चला जाऊं अपने छूटे हुए खेतों
में
वहीं जहां से पच्चीस साल पहले
चला आया था
वहीं जहां से आते हैं मेरी कविता
में शब्द
और एक तहखाने में होते जाते हैं
कैद
चाहता तो हूं कि चाहूं और उस
चाहने पर
कायम रह सकूं पूरी उम्र
लेकिन फिलहाल मैं
सिर्फ लिखता हूं कविताएँ।
विजया दशमी
(निराला को याद करते हुए)
विजयपर्व जैसा एक शब्द लिखने मे
अंगुलियों के पोर छिल-छिल जाते चुप बैठा हूं अपनी लहूलुहान अंगुलियों में कलम लिए मेरी कविता में कवि का खून शामिल हो रहा बाहर बहुत शोर है ढाक बज रहे हैं उड रहे हैं लाल सिंदूर के डिब्बे बहुत दूर फटे गमछे में विक्षिप्त करार दिया गया एक कवि इलाहाबाद और बनारस के घाटों पर लागातार दौड़ लगा रहा है अथक पता नहीं किस चीज की तलाश में ।
उस दिन सुबह
सुबह मैं जिन्दा था
इस सोच के साथ कि एक कविता लिखूँ गा दोपहर एक भरे पूरे घर में मैं अकेला और जिंदा कुछ परेशान-हैरान शब्दों के साथ मुझे याद है मेरे घर के पड़ोस में जो एक छोटी बच्ची है जिसके दूध का बोतल खाली था वह ऐसे रो रही थी जैसे अक्सर इस गरीब देश का कोई भी बच्चा रोता है उसकी मां ने पहले उसे चुप कराया फिर उसे पीटने लगी और फिर उसके साथ खूब-खूब रोई जैसे अक्सर इस गरीब देश की मां रोती है इस रोआ-रोंहट के बीच मेरे शब्द कहीं गुम गए मैं कोई कविता न लिख सका की तर्ज पर उस बच्ची के लिए दूध भी न ला सका हालांकि मैं यह शिद्दत से करना चाहता था एक आम आदमी होने के नाते जो बचे-खुचे शब्द थे मेरी स्मृतियों में इतिहास की अंधी गली से जान बचाकर भाग निकले उनके सहारे फिर मैंने इस देश के सरकार के नाम एक लंबा पत्र लिखा उस पत्र में आंसू थे क्रोध था गालियां थीं और सबसे अधिक जो था वह डर था उसके बाद जो मैंने किया वह कि मैंने बहुत साहस किया कि उसे पास के डाक में पोस्ट कर दूं लेकिन हर बार मेरे हाथ काँपते रहे मैं मूर्छित होता रहा कई एक बार यह जानते हुए कि यह ख्वाहिश मेरे जिंदा रहने के लिए सबसे अधिक जरूरी थी अंततः जब मैं घर से निकला तो नेपथ्य में बूढ़े पिता की कराह थी कमजोर और बेबस मां के आंखों का धुंआ था पत्नी दरवाजे की ओट में खड़ी थी मौन मेरा अपना बच्चा दौड़कर आया था दरवाजे तक एक 'फ्लाईंग किस्स' जैसा कुछ देने और साथ एक वादा लेने कि जब मैं लौटूं तो उसके लिए कैलॉग्स का एक पैकेट जरूर लेता आऊं मैं घर से निकल तो चुका था लेकिन पोस्ट ऑफिस के पहले ही दम उखड़ने लगा मेरा पूरा शरीर पसीने से भीगा हुआ और सांसे बहुत जोर-जोर चलती हुई मेरे कांपते हाथ में चिट्ठी थी और एक ठंढा डर मेरे रक्त में घुलता हुआ मैं लौट तो आया था उल्टे पांव आधे रास्ते से और आपको यकीन तो होगा अगर मैं कहूं कि रास्ते और घर के बीच ही कहीं मेरी मौत हो चुकी थी आपको यकीन तो होगा कि मैं इसी महान देश का नागरिक और मेरा नाम विमलेश त्रिपाठी वल्द काशीनाथ त्रिपाठी वल्द कौशल तिवारी या रूदल राम बल्द खोभी राम बल्द....या.... या..... और मैं चाहता हूं कि वह चिट्ठी जो मेरे जिंदा इतिहास के किसी टिनहे संदूक में सदियों से बंद पड़ी थी उसे पोस्ट करूं इसी जन्म में क्योंकि किसी दूसरे जन्म में मेरा यकीन नहीं मेरा विश्वास करें मैं फिर जिंदा होना चाहता हूं आपके भयहीन सांसों का आसरा लेकर क्या इस देश के एक आम आदमी की जिंदगी के लिए आप अपनी सांसें दे सकेंगे ??
तीसरा
एक कवि ने लिखा 'क' से कविता
दूसरे ने लिखा 'क' से कहानी तीसरा चुप था बाकी दो के लिखने पर मुस्कराता मंद-मंद लेकिन उस वर्ष जब घोषित हुआ पुरस्कार तो उसमें शामिल था सिर्फ तीसरे का नाम ।
जब वह दिन
कुछ लोग थे जो बहुत तेजी से
जानवर में बदलते जा रहे थे मैं चाहता कि आदमी बना रहूं लेकिन मुश्किल यह कि आदमी बनकर मैं बहुत देर तक साँस नहीं ले पाता था मुझे लगता कि जिंदा रहने के लिए मुझे भी एक दिन जानवर में बदल जाना होगा जब वह दिन आया तो मेरे पास दुनिया भर की चीजें थीं जिनके न होने से गांव घर से लेकर मुहल्ले तक मुझे नक्कारा समझा जाता था जब वह दिन आया सब कुछ था मेरे पास बस कविता नहीं थी ।
लोक
यह कोई शब्द नहीं
जिसका करें आप प्रयोग कविता में खोजें जिसे गांव के एक कवि में जिसके लिए खेत-बधार गांव-जवार किसी भी कविता से ज्यादा जरूरी उसके पांव जमीन पर है और वह वहीं से देश दुनिया की खबर लेता है आपके पास तो कोई जमीन ही नहीं न कोई आसमान है आप लिखते हैं कविताएँ पुरस्कार के लिए लुभाने के लिए आलोचकों को लेकिन उसके लिए मेरे भाई कविता रोटी की तरह बारिश की तरह धूप की तरह है बेहद जरूरी आप एक शब्द लिखकर हँसते हैं दो पंक्ति लिखकर गर्व से सीना फूलाते हैं वह हर शब्द पर रोता है इस अभागे देश के दुर्भाग्य पर आप नकली फूल आप जोरदार अभिनय कर सकते हैं शब्दों का खूब इस्तेमाल कर लूटते हैं वाहवाही आपकी नकली चमक कभी कम नहीं होती असली फूल वह लड़ता है जीवन के हर मोर्चे पर और मुरझाता जाता है क्या कभी आप समझ पाएंगे उसके मुरझाने से ही उगते हैं नए पौधे खिलते हैं फूल और बची रहती है यह दुनिया सदियों-सदियों । |
गुरुवार, 5 सितंबर 2013
तुम थोड़ा प्यार भरो वाक्यों में - विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ
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