कलम सिर्फ़ बची है ह्स्ताक्षर के लिये, कमल जीत
चौधरी का लेखन शुरु होता है 2007-08 में, और इन कविताओं में हमारे समय का यह एक
भायावह सच सामने आता है कि कम्प्यूटर तकनीक के इस दौर में कलम का काम यांत्रिक
रूप से हस्ताक्षर करना ही रह गया है। ये कविताएँ छोटी छोटी है किंतु इनके भाव गम्भीर और
बड़े हैं।
तत्सम में इस बार कमल जीत चौधरी की कुछ कविताएँ....
-प्रदीप
कांत
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कमल जीत
चौधरी
जन्म: १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा (जे & के) में एक
विस्थापित जाट परिवार में
माँ: सुश्री सुदेश, पिता: मेजर (सेवानिवृत) रत्न चन्द
शिक्षा: जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में
परास्नातक (स्वर्ण
पदक प्राप्त) और एम फिल
प्रकाशन: संयुक्त संग्रहों 'स्वर
एकादश' (स०
राज्यवर्द्धन) तथा 'तवी जहाँ
से गुजरती है' (स० अशोक
कुमार)
में
कुछ कविताएँ, नया ज्ञानोदय, सृजन सन्दर्भ, परस्पर, अक्षर पर्व,अभिव्यक्ति, दस्तक, अभियान, हिमाचल मित्र, लोक गंगा, शब्द सरोकार, उत्तरप्रदेश, दैनिक जागरण, अमर उजाला, शीराज़ा, अनुनाद, पहली बार, बीइंग पोएट, सिताब दियारा आदि में प्रकाशित
सम्प्रति: उच्च शिक्षा विभाग, जे & के में
असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
सम्पर्क: काली बड़ी, साम्बा, जम्मू व कश्मीर – १८४१२१
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खेत
याद
आते हैं
मुझे
वे दिन
जब धान
काटते हुए
थक
जाने पर
शर्त
लगा लेता था अपने आप से
कि
पूरा खेत काटने पर ही उठूँगा
नहीं
तो खो दूंगा
अपनी
कोई प्यारी चीज
मैंने
भयवश दम साधकर
बचायी
कितनी ही चीजें ...
डर आज
भी है
कुछ
चीजें खो देने का
मन आज
भी है
कुछ पा
लेने का
दम आज
भी है
शर्त खेलने
का
कुछ
नहीं है तो वे खेत ...
****
किताबें
डायरियां और कलम
किताबें
बंद
होती जा रही हैं
बिना
खिड़कियाँ - रोशनदान
वाले
कमरों में
डायरियां
खुली
हुई फड़फड़ा रही हैं
बीच
चौराहों में
कलम
बची है
सिर्फ
हस्ताक्षर
के लिए।
****
राजा जी !
राजा जी !
सबको
एक आँख
से
देखने
वाले राजा जी !
राजा
जी !
एक
अन्धा
कलम
घिसाऊ लेखक
आपकी
फौज में
भर्ती
होना चाहता है
आप
उसकी परीक्षा ले लें
वह
भाले की नोक पर
कूद
नहीं सकता
उसे
कुंद कर सकता है
वह
पेशे से अध्यापक
हूनर
से काव्यगुरू है
उसके
पास बुलन्द ऊँची आवाज़
दलित
तथा स्त्री विमर्श है
सोने
की कलम से
वह
समाजवादी कविताएँ लिखता है
वर्णाश्रम
में उसकी
पूरण
आस्था है ...
राजा
जी ! राजा जी !
आपको
दिल्ली का बास्ता है
अर्जी
स्वीकार करें
अपनी
निर्धारित पोशाक
उसके
लिए तैयार रखें
वह
बाहर खड़ा है
दरवाज़ा
खोलें - ठक ठक ठक ठक।
****
सम्पूर्णता
वो
मुझे
खोलता
गया
परत दर
परत प्याज की तरह
मुझे
पूरा जानने की उसकी इच्छा ने
उसकी
आँख को दिए आंसू
हाथ में थमा दिया शून्य।
****
4 टिप्पणियां:
मुझे पूरा जानने की उसकी इच्छा ने
उसकी आँख को दिए आंसू
हाथ में थमा दिया शून्य। ..kamaljeet lagatar chupchap apni jra jra si kavitayon se sabka dhayn khich rhe hain...aur bakhubi apni baat bhi kah rhe hain..achchi kavitayen kamljeet
संवेदनशील कविताएँ . प्रदीप कान्त जी की सटीक टिपण्णी . कमलजीत जी को बधाई .
-नित्यानंद गायेन
अपने ब्लॉग पर सप्रेम प्रकाशित करने हेतु भाई प्रदीप कान्त जी का हार्दिक धन्यवाद ! दोस्त शैलजा जी प्रोत्साहन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया ! मित्र नित्यानंद जी आप हमेशा मुझे पढ़ते है ...बहुत अच्छा लगता है ! आभार ! - कमल जीत चौधरी
अपने ब्लॉग पर सप्रेम प्रकाशित करने हेतु भाई प्रदीप कान्त जी का हार्दिक धन्यवाद ! दोस्त शैलजा जी प्रोत्साहन हेतु बहुत बहुत शुक्रिया ! मित्र नित्यानंद जी आप हमेशा मुझे पढ़ते है ...बहुत अच्छा लगता है ! आभार ! - कमल जीत चौधरी
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