लाडला तो
चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |
ये है
हमारा आज का आम आदमी, जो रोजी
रोटी के लिये इस कदर काम करता है कि घर परिवार के लिये उसे घर में भी फुर्सत नहीं।
आज भी, जहाँ
ग़ज़लों में अधिकांशत: प्यार मुहब्बत की बातें करके ख़ुश हुआ जा सकता है, वहाँ युवा शायर वीनस कहते
हैं-
हर कोई
अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं|
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं|
मेरा
लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली
जायेगी ज़बान भी क्या
इन्तिहा-ए-ज़ुल्म ये है, इन्तिहा
कोई नहीं!
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?
कुछ
व्यस्त्तताओं के चलते की अनियमितता के लिये माफ़ी के साथ तत्सम में इस बार वीनस
केसरी की कुछ ग़ज़लें...
प्रदीप कांत
वीनस केसरी
विधा: ग़ज़ल, गीत छन्द कहानी आदि
प्रकाशन: प्रगतिशील वसुधा, कथाबिम्ब, अभिनव
प्रयास, गर्भनाल, अनंतिम, गुफ्तगू, विश्वगाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
में ग़ज़ल, गीत व
दोहे का प्रकाशन हरिगंधा, ग़ज़लकार, वचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक
लेख प्रकाशित
प्रसारण: आकाशवाणी इलाहाबाद
व स्थानीय टीवी चैनलों से रचनाओं का प्रसारण
पुस्तक: अरूज़ पर
पुस्तक ग़ज़ल की बाबत प्रकाशनाधीन
विशेष: उप संपादक, त्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद
(अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक), सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका (जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३
तक)
संप्रति: पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
संप्रति: पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
सम्पर्क: जनता पुस्तक भण्डार,
942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज,इलाहाबाद 211003
मो: 094530
04398
इन्तिहा-ए-ज़ुल्म ये है, इन्तिहा
कोई नहीं!
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?
बाद-ए- मुद्दत आइना देखा तो उसमें मैं न था,
जो दिखा, बोला वो मुझसे मैं तेरा कोई नहीं |
हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं |
हम अगर चुप हैं तो हम भी बुज़दिलों में हैं शुमार,
हम अगर बोलें तो हम सा बेहया कोई नहीं |
बरगला रक्खा है हमने खुद को उस सच्चाई से,
अस्ल में दुनिया का जिससे वास्ता कोई नहीं
अपनी बाबत क्या है उनकी राय, फरमाते हैं जो,
राहजन चारों तरफ हैं रहनुमा कोई नहीं |
000
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं ?
बाद-ए- मुद्दत आइना देखा तो उसमें मैं न था,
जो दिखा, बोला वो मुझसे मैं तेरा कोई नहीं |
हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं |
हम अगर चुप हैं तो हम भी बुज़दिलों में हैं शुमार,
हम अगर बोलें तो हम सा बेहया कोई नहीं |
बरगला रक्खा है हमने खुद को उस सच्चाई से,
अस्ल में दुनिया का जिससे वास्ता कोई नहीं
अपनी बाबत क्या है उनकी राय, फरमाते हैं जो,
राहजन चारों तरफ हैं रहनुमा कोई नहीं |
000
पत्थरों
में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |
आईना
हैं, खुद
में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |
हम
अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या,
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |
जौहरी
होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है,
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |
लाडला
तो चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |
हमने
अपनी शख्सियत बाहर से चमकाई मगर,
इक अँधेरा आज भी अन्दर भरे बैठे हैं हम |
इक अँधेरा आज भी अन्दर भरे बैठे हैं हम |
000
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है ख़ंजर आइना |
शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |
गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |
आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |
मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |
अपना अपना हौसला है, अपना अपना फ़ैसला,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है ख़ंजर आइना |
शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |
गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |
आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |
मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |
अपना अपना हौसला है, अपना अपना फ़ैसला,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |
000
अब हो रहे
हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये
जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये
जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये
जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये
इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये
किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये
जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये
जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये
जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये
जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये
इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये
किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये
जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
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छीन
लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या
ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या
है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या
ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या
है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या
मेरा
लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट
ली जायेगी ज़बान भी क्या
धूप
से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट
लेंगे ये सायबान भी क्या
इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या
अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या
मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या
इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या
अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या
मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या
9 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी गजलें हैं। वीनस भाई को बधाई। आपका शुक्रिया।
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं |
इसी भाव को ख़त्म करने में जुटे हैं तमाम मीडिया वाले
आदरणीय वीनस जी की सभी गज़लें कमाल हैं
अच्छी गजलें
आप सभी का आभारी हूँ
धन्यवाद
वीनस की ग़ज़लें प्रभावित करती रही हैं और करती रहेंगी।
आ. वीनस भाई की गज़लें पढ़ के आनंदित हूँ , तारीफ़ कर पाऊँ इतनी योग्यता मुझमे नहीं है | बस वो लिखते रहें हम पढ़ते रहें |
वीनस अपनी ग़ज़लों में बहुत ही सहजता से सब कुछ कह जाते हैं.उनकी साफगोई और सहजता बेमिसाल है.
bahut hi umda gajale veenas bhai...!!
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