जब
भी सदा आई ज़हन तक अज़ानों की,
मस्जिदों
की ऊँची मीनारों से डर लगा।
डर
को इस तरह से अपने शेर में बयान करते हैं डॉ मोहसिन खान 'तन्हा' । आप लाख तकनीक को
गरियाऐं पर फेसबुक पर इनकी ग़ज़लों से मुठभेड़ हुई तो मुझे इनसे अनुरोध करना पड़ा कि
भाई कुछ मेरे ब्लॉग के लिए भी। और मुझे तुरंत और बड़ी सरलता से गज़लें मिल गई। ये
कितनी आसानी से कह देते हैं-
बड़ी
महीन चुभन है इस नैज़े की,
क़लम
कम नहीं किसी औज़ार से।
और सचमुच कलम किसी औज़ार
से कम नहीं। मोहसिन अपने समय और उसके ख़तरों से वाकिफ हैं और इसीलिए कहते हैं-
मुझको
पता है ये उसको ख़बर है,
झाँक
रहा था कौन उस दरार से।
देर से ही सही पर तत्सम
पर इस बार डॉ मोहसिन खान ‘तन्हा’…
- प्रदीप कान्त
|
डॉ.
मोहसिन ख़ान (लेफ़्टिनेंट), जन्म –
01-06-1975
35 से अधिक
शोध-पत्र एवं आलेख राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कथाक्रम में
पहली कहानी प्रकाशित। वर्तमान में कहानी लेखन में सक्रिय। अपनी माटी, रचनाकार डॉट कॉम, सृजनगाथा वेब पत्रिका पर
कहानियाँ,कविताएँ एवं ग़ज़लें प्रकाशित।
प्रकाशित
पुस्तकें –
‘प्रगतिवादी
समीक्षक और डॉ. रामविलास शर्मा’ , ‘दिनकर का कुरुक्षत्र और
मानवतावाद’ , पुस्तक (सह-सम्पादक) – ‘देवनागरी विमर्श’
उपन्यास – ‘त्रितय’ व ग़ज़ल
संग्रह- ‘सैलाब’ परिदृश्य
प्रकाशन (शीघ्र प्रकाश्य)
प्रेमचंद
की तीन कहानियों का नाट्य रूपान्तरण एवं मंचन हेतु निर्देशन। अक्षर वार्ता’ अंतरराष्ट्रीय शोध
पत्रिका में सम्पादन सहयोग
कुलाबा
गौरव समान, डॉ. अम्बेडकर
फ़ेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान 2014 (दलित साहित्य अकादेमी,
दिल्ली द्वारा प्रदत्त) आदि कई पुरूस्कार व सम्मान
Blog-www.sarvahara.blogspot.com
संप्रति –
स्नातकोत्तर
हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम.
महाविद्यालय, अलीबाग –
402 201, जिला – रायगड़ (महाराष्ट्र)
|
1
कभी दरिया से, कभी किनारों से डर लगा।
तो कभी अपने घर की दीवारों से डर लगा।
जाने क्यों सुना दिया अपने दिल का हाल,
मुझे अपने ही सारे राज़दारों से डर लगा।
जब भी सदा आई ज़हन तक अज़ानों की,
मस्जिदों की ऊँची मीनारों से डर लगा।
जो कहा, सामने कहा और सहीं तोहमतें।
पीठ के पीछे चल रहे इशारों से डर लगा।
‘तनहा’ रखा जब बुलंदियों पे क़दम मैंने तो,
आसमानों से टूटते सितारों से डर लगा।
2
न दिलों में रहा, न निगाहों में रहा।
उम्र भर मैं गैरों की पनाहों में रहा।
मस्जिद सामने थी,फ़ितरत न थी,
साथ आवारगी के गुनाहों में रहा।
मेरी मुश्किल खुद मैं ही बन गया,
न जाने मैं किन भुलावों में रहा।
ख़ामोश तबीअत ने किया बदनाम,
हर वक़्त मैं झूठी अफ़वाहों में रहा।
‘तनहा’ बिछड़ा जबसे अपने घर
से,
जैसे टूटा कोई पत्ता हवाओं में रहा।
3
गिरा के मुझको वो मुस्कुरा रहा है।
औक़ात अपनी अब बता रहा है।
मैदान भी उसका, खेल भी उसका,
चालें नई-नई मुझको दिखा रहा है।
टूटे उनके हौसले जो कमज़ोर थे,
काँच से पत्थर को डरा रहा है।
क़ायम रखना है गर ऊंचाई तुझे,
तो क़द मेरा तू क्यों घटा रहा है।
‘तनहा’ तप के बनी शख़्सीयत,
सलीक़ा तू मुझे सिखा रहा है।
4
रिश्ते ख़रीदे नहीं जाते बाज़ार से।
एक डोर बाँधे हुए है, एतबार से।
आईने शराफ़त छोड़ दें तो अच्छा,
नीयत नज़र आ जाएगी दीदार से।
बड़ी महीन चुभन है इस नैज़े की,
क़लम कम नहीं किसी औज़ार से।
मुझको पता है ये उसको ख़बर है,
झाँक रहा था कौन उस दरार से।
'तनहा' हूँ, बेसहारा हूँ, बेचारा हूँ,
बिछड़ा हुआ हूँ कूच-ए-दयार से।
5
ये हुनर है, इसे छुपा रहने दो।
ज़रा मुझमें मेरी अदा रहने दो।
बड़ी नाज़ुक हैं, काँच की चीज़ें,
छुओ नहीं, इन्हें सजा रहने दो।
बाँट लो तुम ज़मीं-आसमाँ सारे,
बस मेरे हक़ में दुआ रहने दो।
राख़ कुरेदो नहीं, सुलग जाएगी,
इस आग को अब बुझा रहने दो।
'तनहा' जी लूँगा पर झुकूँगा नहीं,
मेरे हिस्से में मेरी ख़ता रहने दो।
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