1
पीठ के बल सतर सोना
पिछले दशक की बात है
अब अनजाने में ही करवट देकर
पीठ कर देती है देह को मुक्त
पैर पर पैर चढ़ाकर सोना कहाँ तो
आदत में शुमार था
अब एक पैर दूसरे को
नकार देता है सिरे से
सिर के नीचे रखा अपना ही हाथ
सहारा देता - सा लगता था
अब हटा लेता है वह आहिस्ता से
अपने-आप को
अब यही चलन हो गया है ,
जीना चाहते हैं सब अकेले-अकेले
अपने में मगन
कोई नहीं उठाना चाहता अब किसी का भार
2
मैं चींटी से डरती हूँ, कहीं काट न ले
मैं तिलचट्टे से डरती हूँ, कहीं घर पर कब्ज़ा न कर ले
मैं छिपकली से डरती हूँ कहीं ...
मैं चूहे से डरती हूँ ...
मैं बिल्ली से डरती हूँ ...
मैं कुत्ते से,सूअर से
केंचुए से, सांप से
सबसे डरती हूँ
मैं सबसे ज्यादा तुमसे डरती हूँ
पता चला है कि तुम आदमी हो
और भी बहुत कुछ सुना है तुम्हारे बारे में !!!
3
'अ' अनार का सीख रही थी
तभी दौड़ते-भागते
'ड' आ पहुंचा डर लेकर
और माँ ने पकड़ा दिया
'स' सुरक्षा का
सुगन्धित फूल की तरह खिल रहा स्त्रीत्व
अपने साथ 'ल' लज्जा का लेकर आया
और साथ-साथ चलते रहे 'ड' और 'स' भी
'ड' के साथ कई बार जोड़ना चाहा 'नि' को
निडर बनाने के लिए
पर यह न हो सका
'स' के साथ 'अ' जरूर जुड़ गया
वह भी भूल गई मैं
'ल' लज्जा का भी कहीं गुम हो गया
अब मेरे साथ था
'म' मुक्त का
'ब' बेहिचक का
'ग' गरिमा का
'प' प्रणाम का
सब कुछ नया था
बस पुराना था तो अपने भीतर का
भरपूर स्त्रीत्व
उससे भी निवृत्ति पाकर
मैं चलना चाहती थी
व्यक्ति के 'व' को साथ लेकर
लेकिन जल्दी ही जान गई
कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है
पर अपने स्त्रीत्व को नहीं
याद दिलाता ही रहता है हर वक्त कोई न कोई
बहत्तर साल की उस नन के मुकाबले
अभी भी युवा हूँ मैं
और कितने ही कमज़र्फ़
घूम रहे हैं मेरे आस-पास भी .
4
माँ की कोख से गुजरकर धरती पर आई
माँ ने कहा-ईश्वर रचता है हमें
न उसने ईश्वर को देखा
और न मैंने
पर माँ की आस्था को मैंने
मान लिया ईश्वर
और तब से लगातार देख रही हूँ मैं
आसमान की ओर
स्याह रातों के सन्नाटे में
माँ ने कहा-ऊपर देखो
तुम्हें दिखे ना दिखे
रोशनी तो होती ही है वहाँ
माँ का विश्वास रोशनी पर
और मेरा माँ पर
मैंने मान ली फिर एक बार
माँ की बात
धीरे-धीरे यह आदत में आ गया
ऊपर देखने का सिलसिला
चलता ही चला गया
ईश्वर मुझसे प्रेम करता था
वह चाहता था
मै उसीकी ओर देखूं बार-बार
वह बीच-बीच में
मुझे सम्मोहित करता रहा
जादू की छड़ी घुमाता रहा
घुमावदार रास्तों से बाहर लाता रहा
मै खुश होती रही
सुस्ताती रही
पहले माँ पर और बाद में
ईश्वर पर रीझती रही
उस पर विश्वास किया
निर्भर होती चली गई
फिर एक दिन
माँ को ले गया ईश्वर
अब दोनों एक साथ हैं
और मै अब भी
देखती रहती हूँ
4 टिप्पणियां:
Sabhi kavitaen sunder aur prabhavshali hain. Smt. Alaknanda Sane Ji ko Hardik badhai. (is computer par abhi unicode Hindi likhne ki suvidha nhi hai, isliye Roman me likha h.)
कविताएँ बहुत अच्छी है तेज है पूरा वार करती है दिल से निकली आवाज है
कविताएँ बहुत अच्छी है तेज है पूरा वार करती है दिल से निकली आवाज है
समाज का कटु यथार्थ छुपा है कविता में। .
अलकनंदा साने जी से परिचय और उनकी कवितायेँ पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
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