जन्म: 31 दिसंबर 1934, टौंक, (राजस्थान)
आपकी प्रमुख किताबों में सियाह बर सफ़ेद, आवाज़ का ज़िस्म, सबरंग, आते-जाते लम्हों की सदा, बाँस के जंगलों से गुज़रती हवा, 'पेड़ गिरता हुआ' और 'दीवारो-दर के दरमियाँ' और एक दर्जन से अधिक आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखीं।
आपने उर्दू साहित्यक पत्रिका तहरीक, गुल फिशां और निगार का संपादन किया। वे एवाने उर्दू और उमंग के संपादक और नखलिस्तान के भी प्रधान संपादक रहे।
अपनी शायरी से भाईचारे और इंसानियत का पैगाम फैलाने वाले मशहूर शायर मखमूर सईदी का मूल नाम सुल्तान मोहम्मद खाँ था, लेकिन साहित्य की दुनिया में उन्होंने उपनाम 'मखमूर' से शोहरत हासिल की। लगभग 50 साल तक अदबी दुनिया में काम करने वाले मख़्मूर को साहित्य अकादमी अवार्ड, मिर्जा गालिब अवार्ड के साथ और भी कई सम्मानों से सम्मानित किया गया।
सीधी सादी ज़बान में शायरी करने वाले इस शायर का 76 साल की उम्र में 2 मार्च 2010 को जयपुर में इंतकाल हो गया। तत्सम में इस बार मरहूम मख़्मूर सईदी की कुछ ग़ज़लें.....
- प्रदीप कांत
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1
सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
साअते-क़ुर्ब: सामीप्य का लक्षण; मुख़्तसर: संक्षिप्त; शौक़े-शहरगर्दी: नगर में घूमने का शौक़।
2
न रास्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सब की क़िस्मत सफ़र है यहाँ
सुनाई न देगी दिलों की सदा,
दिमाग़ों में वो शोर-ओ-शर है यहाँ
मगर सब की क़िस्मत सफ़र है यहाँ
सुनाई न देगी दिलों की सदा,
दिमाग़ों में वो शोर-ओ-शर है यहाँ
हवाओं की उँगली पकड़ कर चलो,
वसिला इक यही मोतबर है यहाँ
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ
पलक भी झपकते हो "मख्मूर" क्यूँ,
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ
वसिला इक यही मोतबर है यहाँ
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ
पलक भी झपकते हो "मख्मूर" क्यूँ,
तमाशा बहुत मुख़्तसर है यहाँ
3
भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
अपने-अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तन्हा हूँ वो भी तन्हा है
मंज़िलें ग़म की तय नहीं होतीं
रास्ता साथ-साथ चलता है
साथ ले लो सिपर मौहब्बत की
उस की नफ़रत का वार सहना है
तुझ से टूटा जो इक तअल्लुक़ था
अब तो सारे जहाँ से रिश्ता है
ख़ुद से मिलकर बहुत उदास था आज
वो जो हँस-हँस के सबसे मिलता है
उस की यादें भी साथ छोड़ गईं
इन दिनों दिल बहुत अकेला है
4
चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा
रेत का ढेर थे हम, सोच लिया था हम ने
जब हवा तज़ चलेगी तो बिखरना होगा
हर नए मोड़ प' ये सोच क़दम रोकेगी
जाने अब कौन सी राहों से गुज़रना होगा
ले के उस पार न जाएगी जुदा राह कोई
भीड़ के साथ ही दलदल में उतरना होगा
ज़िन्दगी ख़ुद ही इक आज़ार है जिस्मो-जाँ का
जीने वालों को इसी रोग में मरना होगा
क़ातिले-शहर के मुख़बिर दरो-दीवार भी हैं
अब सितमगर उसे कहते हुए डरना होगा
आए हो उसकी अदालत में तो 'मख़्मूर' तुम्हें
अब किसी जुर्म का इक़रार तो करना होगा
5
आंखों के सब ख़्वाब कहीं खो जाते हैं
आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं
ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के
दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं
तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान
तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं
ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है
चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं
कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है
बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं
किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी
दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं
आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर'
चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं
आईने इक दिन पत्थर हो जाते हैं
ऐसा क्यूं होता है, मौसम दरमां के
दिल में ताज़ा दर्द भी कुछ बो जाते हैं
तुझसे वाबस्ता हर मंज़र की पहचान
तुझसे बिछड़ कर सब मंज़र खो जाते हैं
ख्वाबे-सफ़र इन आंखों में जाग उठता है
चांद, सितारे थक कर जब सो जाते हैं
कौन सी दुनियाओं का तसव्वुर ज़ेहन में है
बैठे - बैठे हम ये कहां खो जाते हैं
किस मौसम के बादल हैं जो कभी-कभी
दिल के मर्क़द पर आ कर रो जाते हैं
आईनों से पूछ के देखो ऐ 'मख्मूर'
चेहरे क्या होते हैं, क्या हो जाते हैं
दरमां : चिकित्सा, मर्क़द : समाधि-भवन
6
सुन ली सदा-ए-कोहे-निदा और चल पड़े
हमने किसी से कुछ न कहा और चल पड़े
ठहरी हुई फिजा में उलझने लगा था दम
हमने हवा का गीत सुना और चल पड़े
तारीक रास्तों का सफर सहल था हमें
रोशन किया लहू का दिया और चल पड़े
घर में रहा था कौन कि रुखसत करे हमें
चौखट को अलविदा कहा और चल पड़े
'मख्मूर' वापसी का इरादा न था मगर
घर को खुला ही छोड़ दिया और चल पड़े
हमने किसी से कुछ न कहा और चल पड़े
ठहरी हुई फिजा में उलझने लगा था दम
हमने हवा का गीत सुना और चल पड़े
तारीक रास्तों का सफर सहल था हमें
रोशन किया लहू का दिया और चल पड़े
घर में रहा था कौन कि रुखसत करे हमें
चौखट को अलविदा कहा और चल पड़े
'मख्मूर' वापसी का इरादा न था मगर
घर को खुला ही छोड़ दिया और चल पड़े
7 टिप्पणियां:
सईदी साहब से परिचय करवाने और उनके ग़ज़ल को प्रस्तुत करने के लिए आप बधाई के पात्र हैं.. अलग मिजाज की गज़लें हैं.. अच्छा लगा उनको पढ़ कर...
सुभान अल्लाह...हर गज़ल बार बार पढ़ने को मजबूर करती है...
नीरज
ek se badhkar ek badhai prdeepji
bahut sundar prastuti..
gagaj padhna bahut achha laga.. prastuti hetu aabhar
अच्छा लगा। एक रचनाकार से परिचय करवाया आपने।
सामने ग़म की रहगुज़र आई दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल वादियों में नदी उतर आई
वाह .........!!
न इस शहर-ए-बेहिस को सेहरा कहो,
सुनो इक हमारा भी घर है यहाँ
बहुत खूब ....!!
भीड़ में है मगर अकेला है उस का क़द दूसरों से ऊँचा है
अपने-अपने दुखों की दुनिया में मैं भी तन्हा हूँ वो भी तन्हा है
सईदी साहब से परिचय करवाने के लिए आभार ....!!
Ek se badhake ek gazal hai! Wah! Maza aa gaya! Ru-b-ru karane ke liye shukriya!
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